शौचालय मर चुके हैं !

भारत की ‘तेजी’ से बढ़ती अर्थव्यवस्था और इसके विकास के प्रतिफल के बारे में बड़े शोर के बावजूद देश में अभी भी अपने सभी नागरिकों के लिए पूर्ण स्वच्छता हासिल करने में समर्थ नहीं हुआ है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में 65-80 प्रतिशत लोगों को खुले में शौच करने जाना पड़ता है। सार्वजनिक शौचालय का उचित रख-रखाव नहीं है। 26 लाख से अधिक शुष्क शौचालय हैं जहाँ इंसानों को अपने हाथों से दूसरे मानव का मल-मूत्र साफ करना पड़ता है। ऊँचे-ऊँचे दावों और बड़े-बड़े वादे के बाद भी हम इस अमानवीय प्रथा और परम्परा को खत्म नहीं कर पाए हैं। जनगणना 2011 के आँकड़ें बताते हैं कि ग्रामीण भारत में केवल 31.9 प्रतिशत घरों में स्वच्छता सुविधाएँ उपलब्ध हैं। पर्याप्त स्वच्छता साधनों के उपयोग की कमी लोगों के जीवन के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करती है। कई अध्ययन हैं इस कमी के स्वास्थ्य, शिक्षा, आजीविका और देश की बेहतर स्थिति से आन्तरिक सम्बन्ध को बताते हैं। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में कई उदाहरण है जहाँ शौचालयों की कमी के कारण लड़कियों ने स्कूलों में आना बन्द कर दिया, स्वच्छता साधनों की कमी के कारण बड़ी संख्या में बच्चों की डायरिया से मौत होती है। समस्याएँ कई हैं और उनके कुप्रभाव भी बहुत बड़े हैं। और, इस आपातकाल जैसे संकट के समय में यह खतरनाक है कि भारत में बने हुए शौचालय बड़ी संख्या में ‘लापता’ होते जा रहे हैं।

पेयजल और स्वच्छता मन्त्रालय (एनडीडब्ल्यूएस) ने घोषणा की है कि निर्मल भारत अभियान (एनबीए) के माध्यम से 2022 तक पूरे देश को खुले में शौच से मुक्त बनाया जाएगा। क्या भारत मार्च 2022 तक 100 फीसदी स्वच्छता प्राप्त करने का खुद को ही दिया गया यह चुनौतिपूर्ण लक्ष्य पूरा करने में सक्षम हो पाएगा? करोड़ों ‘लापता’ शौचालयों के कारण यह लक्ष्य दूर की सम्भवना है- अन्यथा हम इन्हें ‘मृत शौचालय’ कह सकते हैं।

जनगणना 2011 की रिपोर्ट का यह रहस्योद्घाटन शर्मसार करने वाला हे कि भारत कुल परिवारों में से 49.8 प्रतिशत परिवार खुले में शौच करने जाते है। खुले में निस्तार करने वाली ग्रामीण जनसंख्या का प्रतिशत 67.3 फीसदी है जो सर्वाधिक है। केवल 30.7 प्रतिशत परिवारों के पास अपने घरों में शौचालय है और 1.9 प्रतिशत परिवार सार्वजनिक शौचालय का उपयोग कर रहे हैं।

भारत में ग्रामीण स्वच्छता में पहल करते हुए ‘केन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम’ (सीआरएसपी) प्रारम्भ करने के साथ ही 1986 से हर साल शौचालय का निर्माण किया जा रहा है। इस पहल को 1999 में देश के 26 राज्यों के 67 जिलों में ‘क्षेत्र सुधार परियोजना’ के पायलेट प्रोजेक्ट के माध्यम से तेज किया गया। इसके अलावा, 2002 में ‘सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान’ (टीएससी) के माध्यम से इसका विस्तार पूरे भारत में किया गया जिसके तहत देश को खुले में शौच से मुक्त करने के लिए एक दशक में बड़ी संख्या में शौचालयों का निर्माण किया गया।

पेयजल एवं स्वच्छता मन्त्रालय (एनडीडब्ल्यूसी) का दावा है कि दिसम्बर 2012 तक शौचालय अभियान से 53.09 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों तक पहुँचा गया और जनगणना के आँकड़ों के संग्रह प्रक्रिया के पूरा होने का समय सितम्बर 2010 माना है। इस तरह अगर हम दिसम्बर 2010 को तय समय मान लें तो एमडीडब्ल्यूसी द्वारा दिया गया आँकड़ा जनगणना के आँकड़ों की तुलना में 22.30 प्रतिशत अधिक है। अब सवाल यह है कि भारत के ग्रामीण परिवारों से 22.39 प्रतिशत (3,75,76,324) शौचालय कहाँ गायब हो गए हैंँ?

अध्ययन और रिपोर्ट बताते हैं कि प्रस्तुत किए गए आँकड़ों और जमीनी हकीकत में बड़ा अन्तर है। मन्त्रालय ने परस्पर विरोधी और खतरनाक आँकड़े को उचित साबित करने के लिए पिछले कुछ वर्षों में जनसंख्या वृद्धि का सहारा लिया गया है।

हकीकत में उपलब्ध शौचालयों और प्रस्तुत आँकड़ों में अन्तर यानी लापता शौचालयों के पीछे कुछ महत्वपूर्ण कारक हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

 

1. कई मामले हैं जहाँ शौचालयों का निर्माण हुआ ही नहीं लेकिन आँकड़ों में शौचालय बना होना बताया गया।

2. ‘क्षेत्र सुधार परियोजना’ के तहत कम प्रोत्साहन राशि से और टीसीएस के प्रारम्भिक वर्षों में बनाए गए शौचालय वास्तव में अब मौजूद ही नहीं है।

3. एक शौचालय में किए गए सुधार/ नवीकरण को गिनती में दो बार या तीन बार ज्यादा शौचालय बनाना मान लिया गया।

4. एसआरपी/टीएससी के तहत आवंटित राशि का उपयोग कर एक ही घर के शौचालय का फिर से निर्माण किया जा रहा है।

ये स्थितियाँ क्षेत्र में सामान्य रूप से दिखाई देती है और ये ‘मृत शौचालय’ की संख्या बढ़ा देते हैं। वास्तव में, पहले दो बिन्दुओं का कारण ग्राम पंचायतों को दिए जाने वाले ‘निर्मल ग्राम पुरस्कार’ (एनजीपी) है। अब, हालांकि मन्त्रालय ने भी माना है कि ‘निर्मल ग्राम पुरस्कार’ पाने वाली पंचायतों में भारी अन्तर है और उनकी स्थिति भी इतनी ‘निर्मल’ नहीं है।  

इस सन्धिकाल में, भारत यह देखने के लिए तैयार है कि जनसंख्या में वृद्धि हुई है या वास्तव में घरों में से शौचालय गायब हुए हैं। यह लापता सभी शौचालयों और जनता के धन को लूटने वालों को जवाबदेह बताती है।

लगता है कि इस भारी अन्तर और इसमें निहित कमियों का अहसास होने लगा है। इसे लक्ष्य करने और वास्तविक लक्ष्य की स्थापना सुनिश्चित करने के प्रयास में एमडीडब्ल्यूसी ने 2012 की वास्तविक स्थिति का पता लगाने के लिए देशभर में घरेलू स्तर का आधारभूत सर्वेक्षण शुरू किया और अब तक आधारभूत सर्वेक्षण में एमडीडब्ल्यूसी द्वारा लगभग 80 प्रतिशत ग्राम पंचायतों की प्रविषिटियाँ दर्ज की जा चुकी है (2011 की जनगणना के आधार पर)। ये आँकड़ें साबित करते हैं कि शौचालय गायब हैं और यह अन्तर इस प्रकार दिखता है-

1. एमडीडब्ल्यूसी (2011 की जनगणना अनुमान एचएच कवरेज) और वास्तविक जनगणना 2011 शौचालय कवरेज के बीच ग्रामीण परिवारों में शौचालय की उपलब्धता में लगभग 25 प्रतिशत का अन्तर है।

2. यह अन्तर नया नहीं है और इस पर मई 2012 से विभिन्न मन्त्री स्तरीय सम्मेलनों में अच्छी तरह से विस्तार से अध्ययन किया गया है।

इस बात से कोई इंकार नहीं है कि वर्षों के अन्तराल में जनसंख्या में वृद्धि हुई है और परिवारों की संख्या बढ़ गई है और इसके परिणामस्वरूप शौचालय उपलब्धता का अन्तर जारी रहेगा। हालांकि, परिवारों की वृद्धि (एमडीडब्ल्यूसी और जनगणना 2011 के अनुमान की तुलना में 2011 की जनगणना के वास्तविक आँकड़ों के आधार पर) को ध्यान में रख कर आँकड़ों का अध्ययन किया जाए तो भी 25 प्रतिशत के करीब का अन्तर आता है।

दावा किया गया है कि आधारभूत सर्वेक्षण ‘लापता शौचालय’ की पहेली का समाधान कर देगा और राज्यों के वार्षिक क्रियान्वयन की योजना से आलोचकों और योजनाकारों को सन्तुष्ट कर देगी। हालांकि, अगर अभी हम केरल जैसे राज्य का उदाहरण लें जहाँ आधारभूत सर्वेक्षण पूरा हो गया है, तो पाएँगे कि वहाँ जनगणना (93.23 प्रतिशत) और एमडीडब्ल्यूसी (99.68 प्रतिशत) के आँकड़ों के बीच बड़ा अन्तर है। यह वह राज्य है जहाँ ‘लापता’ शौचालयों  की संख्या बीमारू राज्यों की तुलना में कम हैं। बीमारू राज्यों में तो यह लापता शौचालयों का प्रतिशत काफी ज्यादा है।

हालांकि, देश में यह बड़ा सवाल है कि जो शौचालय मौजूद हैं उनका भी इस्तेमाल किया जा रहा है या नहीं और इसके सम्दर्भ के रूप में देश में ऐसा कोई व्यापक आँकड़ें नहीं है। जनगणना केवल उपलब्धता से सम्बन्धित डेटा प्रदान करती है, उपयोग का नहीं और एमडीडब्ल्यूसी भी कवरेज से सम्बन्धित आँकड़े उपलब्ध कराता है। हालांकि मौजूदा आधारभूत सर्वेक्षण कार्यात्मक और बन्द शौचालयों से सम्बन्धित डेटा प्रदान करता है लेकिन यह भी उपयोग से सम्बन्धित जानकारी नहीं देता है।

चाहे हम एमडीडब्ल्यूसी और जनगणना द्वारा उपलब्ध कराए गए आँकड़ों का उपयोग करें या नीतिगत स्तर पर परिवर्तन हो रहे हैं, इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि शौचालय क्यों खत्म हो चुके हैं। वर्ष 1986 में केन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम (सीआरएसपी) से लेकर निर्मल भारत अभियान (एनबीए) तक किए गए तमाम प्रयासों के बाद भी वांछित परिणाम नहीं मिले हैं। दशकों में ऐसे मृत शौचालयों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है और बेहतर होगा कि ‘विश्व शौचालय दिवस’ पर उन्हें दफन कर दें ताकि स्वच्छता से जुड़े संकट को नए सिरे से लक्षित किया जा सके।

‘लापता शौचालय’ या ‘मृत शौचालय’ पर आँकड़े एक तरह से सभी के लिए एक चेतावनी संकेत है और इसका तत्काल समाधान किया जाना चाहिए।

तो, इस समस्या से कैसे निपटा जाए? क्या सिर्फ इसे स्वीकार करने और सामान्य रूप से काम करते रहना काफी होगा? इससे पहले कि यह किसी बड़े घोटाले में बदल जाए, यह आवश्यक है कि सरकार जागे और इसे स्वीकार करे तथा जनता के धन के इस गम्भीर दुरुपयोग के लिए दण्डात्मक कार्रवाई करे और इस ऐतिहासिक अन्याय को दुरुस्त करे।

 

सन्दर्भ : 1.http://www.censusindia.gov.in/2011census/hlo/Data_sheet/India/Latrine.pdf

2.http://mdws.gov.in/sites/upload_files/ddws/files/pdf/Agenda-SC%20final%2024-

 

साभार : स्वच्छता के अधिकार की समस्याएँ और समाधान पर राज्य स्तरीय विचार विमर्श नवम्बर 2013

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