शौचालय-क्रान्ति

यहाँ कुछ अनोखा है, ओफेलिया! मैंने आज सुबह तारों के समूह को गिरते देखा।’ ये शब्द विश्व-विख्यात लेखक शेक्सपीयर की रचना ‘हैमलेट’ से हैं। मध्य-प्रदेश के बैतूल जिले में झीटूढाना गाँव में ब्याह कर गईं एक आदिवासी लड़की अनीता नर्रें द्वारा अपनी ससुराल को इस कारण त्याग देना कि घर में एक स्वच्छ शौचालय नहीं है, यह कोई कम अचरज की बात नहीं है।

 

ग्रामीण सभ्यता की अधिकता के कारण हमारे देश में घने जंगल, खुले मैदान एवं जल की उपलब्धता हमेशा से बनी हुई है, जिसके कारण खुले मंे शौच बदस्तूर जारी है। पश्चिमी शासकों के आने से देश में शौचालय, गर्भनिरोधक, डब्ल्यू.सी इत्यादि का दौर आया। आज ये सभी आधुनिक जन-जीवन के चिह्न के रूप में देखे जाते हैं।

भारत की प्राचीन सभ्यता के, जो हड़प्पा और मोहन-जोदड़ो में विकसित हुई, ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं, जिनसे पता चलता है कि उन दिनों शौचालय एवं स्नानागार का निर्माण किया जाता था, किन्तु वह इतिहास की बात है। आधुनिक काल में स्वच्छता के साथ उसे जोड़ना उचित नहीं होगा।

श्रीमती अनीता का कहना है कि वह मशहूर नहीं होना चाहती थी, किन्तु शौचालय उसकी आवश्यकता थी। उसके मायके के घर में सदा ही शौचालय रहा है, जिसे वह सात भाई-बहनों के साथ प्रयोग करती रही है। उसके पिता श्री अम्मूलाल कुमरे, जो प्राथमिक विद्यालय में एक शिक्षक हैं, द्वारा उसे स्वतन्त्रता एवं स्वच्छता के विषय में सदा ही जानकारी दी जाती रही है। एक ऐसे घर में ब्याह कर आने के बाद, जहाँ पर शौचालय की उपलब्धता न हो, भी पिता-द्वारा दी गई जानकारी को भुला नहीं पाई।

ईश्वर के पास अपनी इच्छाओं को समाज के समक्ष रखने के कई साधन उपलब्ध रहते हैं। किन्तु अचरज-भरा सत्य तो यह है कि स्वच्छता के क्षेत्र में क्रान्ति लाने के लिए हम जैसे शहर में बैठे समाजशास्त्र पर चर्चा करने वालों की तुलना में उसने एक आदिवासी लड़की को चुना, जिसका पति दैनिक मजदूरी करने वाला एक श्रमिक है।

यह खबर उस वक्त राष्ट्रीय खबर बन गई जब सुलभ-आन्दोलन के संस्थापक डाॅ. बिन्देश्वर पाठक-द्वारा अनीता के गाँव का दौरा किया गया। जहाँ डाॅ. पाठक ने अनीता के इस बहादुरी-भरे निर्णय के लिए 7 लाख रुपए की राशि देने की घोषणा की। अनीता ने अपने कृत्य-द्वारा शान्त जल में एक छोटा कंकड़ फेंका है, जिसने आज एक लहर का रूप ले लिया है।

लगता है कि स्वच्छता-आन्दोलन तीव्र गति से अपने पथ पर अग्रसर है। आश्चर्य की बात तो यह है कि इस अभियान का आगाज 24 वर्षीया एक आदिवासी लड़की-द्वारा किया गया। डाॅ. पाठक-द्वारा अनीता नर्रे को सुलभ-स्वच्छता-आन्दोलन का ब्रैंड एम्बेस्डर बनाया गया हैं।

स्वच्छता के विशेषज्ञों के बीच हमेशा से यह बहस चलती रही है कि स्वच्छता-अभियान में हो रही वृद्धि शौचालय बनाने के लिए उपलब्ध धन की कमी के चलते है, वस्तुतः वहाँ शौचालय की माँग ही नहीं है। इसमें आश्चर्य नही कि भारत में शौचालयों की संख्या से अधिक मोबाइल फोन उपलब्ध हैं। इसमें मोबाइल फोन की आवश्यकता अधिक मानी जाती है। खुले में शौच पुरानी संस्कृति है, जो आज भी प्रचलित है। यूनिसेफ के अनुसार सन 2008 में भारत के गाँवों में केवल 21 प्रतिशत घरों में ही शौचालय उपलब्ध थे, जबकि विश्व में खुले में शौच करने वालों की संख्या 58 प्रतिशत है। हालाँकि आज स्थिति मंे सुधार आ चुका है एवं 64 प्रतिशत ग्रामीण घरांे में शौचालय उपलब्ध हैं, किन्तु आज भी रेल-पटरी के किनारे एवं खुले स्थान पर लोगों को शौच के लिए बैठा देखा जा सकता हैं, जिनमें वे महिलाएँ भी शामिल हैं, जो शौच के दौरान अपने स्त्रीत्व पर पर्दा डालने का भरसक प्रयास कर रही होती हैं।

 

इसी सन्दर्भ में अनीता नर्रे का विद्रोह प्रासंगिक है। सत्य तो यह है कि इसी प्रकार के लाखों विद्राहों की आवश्यकता है, जिनके लिए कई और अनीता चाहिए, जो भारत के स्वच्छता-अभियान को आगे ले जा सके। यही सुलभ-आन्दोलन का भी उद्देश्य है। यह आन्दोलन आज अपनी स्थापना के 42 वर्षों के बाद एक नया मोड़ ले रहा है। अनीता के इस उदाहरण में अनीता-द्वारा ‘जान आॅफ आर्क’ का किरदार अदा किया गया, जिसने 15वीं सदी में फ्रांस के चार्ल्स-8 से ईश्वरीय आदेश प्राप्त किया था। किन्तु इस आदिवासी लड़की-द्वारा तो केवल एक शौचालय की इच्छा की गई है। यह कोई बहुत बड़ी वस्तु तो नहीं है, परन्तु हमारी सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से एक क्रान्तिकारी पहल है।

साभार : सुलभ इण्डिया मार्च 2012

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