पूजा भट्टाचार्जी
दक्षिण कोलकाता की रहने वाली प्रियंका बासु नियमित तौर पर गरियाहाट के व्यस्त बाजार जाती हैं। ट्रैफिक की अव्यवस्था, सैकड़ों राहगीरों और हॉकरों के बीच वहाँ सड़क किनारे खाने के कई स्टॉल और कुछ अच्छे बुक स्टोर हैं। लेकिन, जब उन्हें टॉयलेट का इस्तेमाल करना होता है, तब उनकी पहली कोशिश खुद पर नियंत्रण कर घर या पास के किसी कॉफी हाउस पहुँचने की होती है। वह गरियाहाट फ्लाईओवर के नीचे स्थित सुलभ शौचालय जाने से बचती हैं, क्योंकि उन्हें वे गन्दे और असुरक्षित महसूस होते हैं। प्रियंका बासु के पास ये विकल्प होता भी है, अलबत्ता कई महिलाओं के लिए तो यह भी सम्भव नहीं होता।
फर्न रोड से देशप्रिय पार्क तक गरियाहाट के पूरे इलाके में शायद ही कोई सार्वजनिक शौचालय है। शहर के दक्षिणी हिस्से में बेतरतीब जगहों पर बनाए कुछ सार्वजनिक शौचालय जरूर मिल जाएंगे। बाकी जगहों पर पब्लिक टॉयलेट खोजना बहुत मुश्किल है। कुछ हैं तो वहाँ कोई कर्मचारी नहीं रहता, लिहाजा महिलाओं के लिए अकेले जाना असुरक्षित है।
टॉयलेट्स की कमी गम्भीर समस्या है, और सरकार को इस बारे में ध्यान ही होगा। लेकिन, सवाल सिर्फ पब्लिक टॉयलेट्स की कमी का नहीं बल्कि हाइजीन का भी है। आम लोगों को टॉयलेट एटीकेट्स और हाइजीन के मुद्दे पर जागरूक करने की जरूरत है. उन्हें साथ जोड़ने के लिए कुछ खास कैम्पेन चलाए जाने चाहिए, जिससे लोगों को इस बारे में जागरूक किया जा सके।- समीरा रेड्डी
मैं टॉयलेट के लिए मॉल जाने को प्राथमिकता देती हूँ, जहाँ टॉयलेट साफ और सुरक्षित होते हैं। लेकिन कई बार आप ऐसी जगह पर होते हैं, जहाँ कोई मॉल नहीं होता। तब आप क्या करेंगे? एक बार मैं अपनी दोस्त के साथ पार्क स्ट्रीट में घूम रही थी कि जरूरत पड़ने पर मुझे वॉशरूम का इस्तेमाल करना पड़ा। पार्क स्ट्रीट बड़े और शानदार रेस्टोरेंट के लिए जाना जाता है, लेकिन परेशानी में घिरे शख्स के लिए यह रेस्टोरेंट निर्दयी हो सकते हैं। एक बार मेरी एक दोस्त ने मुझे बताया था कि वह वॉशरूम इस्तेमाल करने के लिए एक रेस्टोरेंट में चुपके से चली गई थी। रेस्टोरेंट से बाहर निकलते वक्त कर्मचारियों ने उसे रोका और जमकर पूछताछ की। रेस्टोरेंट के कर्मचारियों ने मुसीबत में फँसी लड़की के प्रति सहानुभूति दिखाने से साफ इन्कार कर दिया और उसे भविष्य में सार्वजनिक शौचालय के इस्तेमाल को कहा। मैं जब कॉलेज में थी, तब मैकडोनाल्ड इकलौती ऐसी जगह था, जहाँ जाना हम वहन कर सकते थे। मैं जब तक वॉशरूम जाती, तब तक मेरी दोस्त मैन्यू से सबसे सस्ता सामान ऑर्डर करती।
दक्षिण कोलकाता, जहाँ शॉपिग के लिए कई जगहें हैं- वहाँ फिर भी कई विकल्प हैं, लेकिन उत्तर कोलकाता में तो हालात बदतर हैं। इसी साल अप्रैल में मुझे रिपोर्टिंग के सिलसिले में उत्तरी कोलकाता जाना पड़ा था। मैंने दमदम तक के लिए मेट्रो ली और उसके बाद अपने गंतव्य तक पहुँचने के लिए रिक्शा लिया। लौटते वक्त मुझे टॉयलेट जाने की आवश्यकता महसूस हुई। दिल्ली मेट्रो स्टेशन की तरह कोलकाता मेट्रो स्ट्रेशनों पर टॉयलेट नहीं है, जो की अजीब है। खासकर तब, जबकि हजारों लोग रोज मेट्रों से इधर से उधर जाते हैं।
संयोग से मेरे कुछ रिश्तेदार दमदम में रहते हैं। मैं उनसे मिलने की इच्छा प्रकट करते हुए उनके घर पहुँची। सिर्फ टॉयलेट इस्तेमाल करने के लिए! और यह कोई पहली बार नहीं था, जब मैं सिर्फ टॉयलेट जाने के लिए किसी के घर गई थी। क्योंकि मैं इसी शहर में पली-बढ़ी हूँ, लिहाजा विकल्प खोजने में मुझे ज्यादा दिक्कत नहीं होती। लेकिन, किसी बाहरी व्यक्ति के लिए यह वास्तव में बड़ी चुनौती है।
घर से दफ्तर, स्कूल और कॉलेज जाने वाले हजारों लोगों को टॉयलेट सिर्फ उनकी मन्जिल पर मिलते हैं। स्कूल और स्कूल के आसपास सैकड़ों बच्चे अक्सर सड़क पर ही पेशाब करते देखे जा सकते हैं। यदि आप पूरे शहर को देखें तो कहा जा सकता है कि साफ और सुरक्षित सार्वजनिक टॉयलेट की यहाँ भारी कमी है।
साभार : गवर्नेंस नाउ 1-15 सितम्बर 2014
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