सामाजिक भागीदारी से ही स्वच्छ बनेगा भारत

रमेश कुमार दुबे

 

लाल किले की प्राचीर से अपने पहले संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस स्वच्छ भारत अभियान का आगाज किया था उसका दायरा बढ़ता जा रहा है। मीडिया, गैर-सरकारी संगठनों, नामचीन हस्तियों, विदेशी संस्थाओं की ओर से इस अभियान को अभूतपुर्व समर्थन मिल रहा है। इसे देखते हुए महात्मा गांधी की 150वीं जयंती अर्थात वर्ष 2019 तक देश को खुले में शौच से मुक्त बनाने और स्वच्छ भारत का महत्वाकांक्षी लक्ष्य भले ही आसान लगने लगा है लेकिन इसे तभी कामयाबी मिलेगी जब यह सरकारी कार्यक्रम के बजाए सामाजिक आंदोलन बने।


इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि एक ओर मनुष्य मंगल ग्रह पर कॉलोनी बसाने में जुटा है तो दूसरी ओर करोड़ों लोगों को साफ-सफाई व स्वच्छ पेयजल की बुनियादी सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं। देखा जाए तो यह समस्या मुख्य रूप से विकासशील देशों की है। इन देशों में जिन 2.5 अरब लोगों तक साफ-सफाई व स्वच्छता सुविधा की पहुंच नहीं है उनमें से एक तिहाई भारत में रहते हैं। दुनिया में 1.1 अरब लोग खुले में निवृत्त होते हैं इनमें से साठ प्रतिशत लोग भारतीय हैं। इस प्रक्रिया से जल स्रोतो के प्रदूषित होने, संक्रमण फैलने जैसे कारणों से प्रति वर्ष 5 वर्ष से कम आयु वर्ग के छह लाख बच्चों की मौत हो जाती है। इनमें से 80 प्रतिशत मौतें साफ-सफाई व पेयजल की कमी से होती हैं। जो बच्चे जीवित बच जाते हैं उनका भी समुचित विकास नहीं हो पाता है।


इतना ही नहीं लाखों महिलाएं और पुरुष इसके दुष्प्रभावों से आजीवन प्रभावित रहते हैं। चेचक, पोलियो उन्मूलन और एचआईवी-एड्स को नियंत्रित करने में सफलता का झंडा गाड़ने वाला भारत डायरिया,पेचिस से होने वाली मौतों को नहीं रोक पा रहा है तो इसका कारण खुले में शौच की प्रथा ही है। 2011 की जनगणना के मुताबिक अभी भी देश में लाखों की संख्या में मैला ढोने वाले कर्मचारी 26 लाख सूखे शौचालयों को साफ करने को विवश हैं। इसे सभ्यता के माथे पर कलंक ही कहा जाएगा।

 

आर्थिक शक्ति

 

2011 की जनगणना के मुताबिक देश के ग्रामीण क्षेत्रों में 67 प्रतिशत परिवार और शहरी क्षेत्र में 13 प्रतिशत परिवार खुले में शौच जाने पर मजबूर हैं। इस प्रकार 62 करोड़ लोगों का खुले में निवृत्त होना राष्ट्रीय शर्म का विषय है। यह समस्या ग्रामीण समाज के सभी वर्गों में व्याप्त है। इसके कारण होने वाले प्रदूषण और संक्रामक बीमारियों से स्कूली बच्चों को 40 करोड़ स्कूली दिनों से वंचित होना पड़ता है। बच्चियों के स्कूल छोड़ने की तेज गति का एक कारण स्कूलों में शौचालय सुविधाओं का अभाव भी है। विश्व बैंक के मुताबिक साफ-सफाई की कमी से विश्व अर्थव्यवस्था को हर साल 260 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ता है। यह नुकसान विश्व के सकल घरेलू उत्पाद का 2.5 प्रतिशत है। भारत जैसे देशों में तो यह नुकसान 6.4 प्रतिशत है। हर रोज 14,000 बच्चों की मौत डायरिया के कारण होती है जिसका मुख्य कारण गन्दा पानी और अस्वास्थ्यकर दशाएं हैं। इसके अलावा 16.5 करोड़ बच्चों का अपेक्षित विकास नहीं हो पाता है। साफ-सफाई के मामले में भारत ब्रिक्स देशों में सबसे फिसड्डी है। भारत की तुलना में अधिक जनसंख्या वाले चीन में 1.4 करोड़ लोग खुले में निवृत्त होते हैं जबकि ब्राजील में यह संख्या 70 लाख ही है।

 

संपूर्ण स्वच्छता अभियान

 

भारत सरकार का केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम 1986 में शुरू हुआ। इसमें गरीब परिवारों के लिए सब्सिडी पर शौचालय बनवाने का प्रावधान किया गया, लेकिन कम वित्तिय आवंटन के कारण यह आंशिक रूप से सफल हुआ। इस कार्यक्रम को 1999 में संपूर्ण स्वच्छता अभियान (टोटल सेनिटेशन कैम्पेन टीसीएस) में बदल दिया गया। इसका लक्ष्य 2012 तक खुले में शौच की प्रथा को खत्म करना था। इसके तहत घरों, स्कूलों, आंगनवाड़ी केंद्रों, पंचायत घरों में शौचालय का निर्माण कराया जाता है, लेकिन यह अभियान भी पूरी तरह सफल नहीं हुआ। इसका कारण यह रहा कि यह अभियान सरकारी कार्यक्रम बनकर रह गया। रही-सही कसर नौकरशाही की सुस्ती और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी ने पूरी कर दी। इसी का परिणाम यह है कि 2011 की जनगणना तक 37.7 प्रतिशत ग्रामीण घरों में ही शौचालय की सुविधा उपलब्ध हो पाई।

 

इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि एक ओर मनुष्य मंगल ग्रह पर कॉलोनी बसाने में जुटा है तो दूसरी ओर करोड़ों लोगों को साफ-सफाई व स्वच्छ पेयजल की बुनियादी सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं। इन देशों में जिन लोगों तक साफ-सफाई व स्वच्छता सुविधा की पहुंच नहीं है, उनमें से एक तिहाई भारत में रहते हैं।

 


निर्मल भारत अभियान

 

7 जून 2012 को केंद्र सरकार ने संपूर्ण स्वच्छता अभियान का नाम बदलकर निर्मल भारत अभियान कर दिया इसके साथ ही सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में कूड़े-कचरे के प्रबंधन व निपटान हेतु प्रत्येक गांव को एकमुश्त वित्तीय सहायता देना शुरू किया। निर्मल भारत अभियान का लक्ष्य 2022 तक खुले में शौच पर पूरी तरह रोक लगाना रखा गया। इसमें उन कमियों को दूर किया गया है जिनके कारण टीसीएस को अपेक्षित सफलता नहीं मिल रही थी। इसके तहत शौचालय बनवाने हेतु दिए जाने वाले अनुदान की राशि को 3200 रुपए से बढ़ाकर 10,000 रुपये कर दिया गया है। एनबीए में कुछ चुनिंदा परिवारों को अनुदान न देकर सभी परिवारों को अनुदान देने का प्रावधान कर दिया गया। 2013-14 से मनरेगा के माध्यम से शौचालयों के निर्माण के काम को शामिल कर लिया गया


बहुआयामी लाभ

 

देखा जाए तो शौचालय सुविधा से न केवल सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ती है बल्कि यह पर्यावरण और पेयजल को सुरक्षित बनाने में भी मददगार होता है। गौरतलब है कि साफ-सफाई की मूलभूत सुविधा उपलब्ध न होने के कारण लाखों लोग उन बीमारियों के शिकार हो जाते हैं जिन्हें रोका जा सकता है। एक अनुमान के मुताबिक खुले में शौच से होने वाली बीमारियों से भारत को हर साल 12 अरब रुपय और 20 करोड़ श्रम दिवसों से हाथ धोना पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक दुनिया के जिन क्षेत्रों में खुले में शौच की प्रथा प्रचलित है उन्हीं क्षेत्रों में बाल मृत्यु दर अधिक है। यह भारत में 5 साल से कम उम्र के 20 लाख बच्चो की अकाल मौत के कारणों में से एक है। हैजे का मूल कारण दूषित पानी और स्वच्छता की कमी है। इसे भारत और चीन की तुलना से समझा जा सकता है। भारत से अधिक जनसंख्या वाले चीन में खुले में मल विसर्जन करने वालों की संख्या मात्र 1.1 करोड़ और डायरिया से मरने वाले बच्चों की संख्या मात्र 40 हजार है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपने निष्कर्ष में बताया है कि साफ-सफाई की व्यवस्था के सुधार पर खर्च किए गए प्रत्येक डॉलर से औसतन 7 डॉलर का आर्थिक लाभ होता है।


प्राथमिकता में नहीं

 

शौचालय के बहुआयामी लाभ के बावजूद हम साफ-सफाई के मामले में फिसड्डी बने हुए हैं तो इसका कारण है कि शौचालय हमारी प्राथमिकता में नहीं है। इसी का नतीजा है कि देश में एक ओर जहां लगभग 95 करोड़ लोग मोबाइल फोन का इस्तेमाल कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर शौचालय इस्तेमाल करने वालों की संख्या मात्र 40 करोड़ ही है। इस विडम्बना को संयुक्त राष्ट्र ने अपनी रिपोर्ट में रेखांकित करते हुए लिखा है कि भारत में परिवार के एजेंडे में शौचालय नहीं मोबाइल है। लोग हर साल नए व खराब होने वाले हैंडसेट पर तो खर्च करने को तैयार रहते हैं, लेकिन पूरे परिवार के स्वास्थ्य व सुविधा के लिए जरूरी शौचालय पर नहीं। साफ-सफाई के प्रति हमारी उपेक्षा को एक और उदाहरण से समझा जा सकता है गांवों में झोपड़ी के बाहर मोटर साइकिल खड़ी मिल जाती है, लेकिन शौचालय दूर-दूर तक नहीं दिखाई देता। एक समस्या यह भी है कि जिन क्षेत्रों में शत-प्रतिशत शौचालय का लक्ष्य हासिल कर लिया गया है वहां भी लोग खुले में शौच की आदत नहीं छोड़ पाते हैं। कई क्षेत्रों में इस समस्या को अनूठे माध्यम अपनाकर दूर किया गया।


सामाजिक भागीदारी

 

हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम हर काम के लिए सरकार का मुहं ताकते हैं। उदाहरण के लिए भारत विश्व का पहला देश है जहां जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम शुरू हुआ था, लेकिन हमारे यहां वह सरकारी कार्यक्रम ही बना रहा। इसके विपरीत भारत से वर्षों बाद जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम शुरू करने वाले देश स्थिर जनसंख्या वृद्धि दर के लक्ष्य को प्राप्त कर चुके हैं। स्पष्ट है कि स्वच्छ भारत मिशन भी तभी सफल होगा जब यह सामाजिक कार्यक्रम बने। सिक्किम, केरल, मिजोरम, लक्षद्वीप ने समय से पहले शत-प्रतिशत स्वच्छता का लक्ष्य हासिल किया है तो इसमें सामाजिक भागीदारी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। स्पष्ट है जब पूरे भारत, विशेषकर हिंदी पट्टी में, समाज इस सरकारी अभियान में साथ देगा तभी देश में शौचालय क्रांति आएगी। शौचालय सुविधा से न केवल गरिमा और सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ती है बल्कि यह पर्यावरण संरक्षण में भी सहायक होता है। फिर इससे पेयजल को सुरक्षित बनाने में भी मदद मिलती है। इसीलिए महात्मा गांधी ने कहा था हमारे लिए आजादी से अधिक जरूरी साफ सफाई है। दुर्भाग्यवश भारत आज भी गांधी के सपने को साकार नहीं कर पाया है। स्वच्छ भारत मिशन ने एक बार फिर देश वासियों को गांधी के सपने को पूरा करने का अवसर दिया है लेकिन यह मिशन तभी सफल होगा जब इसे सरकारी के बजाए सामाजिक आंदोलन बनाया जाए।

 

साभार : प्रजातंत्र लाइव 7 दिसम्बर 2014

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