शादी, कूड़ा और जहर

ऋभु वाजपेयी

 

हर साल हमारे देश में तकरीबन दस लाख शादियाँ होती हैं। एक स्रोत के मुताबिक आज से चार साल पहले अकेले दिल्ली में एक दिन में साठ हजार शादियाँ हुई थीं। लेकिन ये कोई आम शादियाँ नहीं थीं। समाज के बदलते रुख के साथ दिन पर दिन ये शादियाँ और महँगी और दिखावटी होती जा रही हैं। आज हमारे लिए बेहतर शादी वह है जो न केवल दिखने में सुन्दर हो, बल्कि वह जो ज्यादा से ज्यादा मेहमान भी आमन्त्रित करे। लेकिन एक भारतीय के लिए शादी के दिखाऊपन का काम तो शादी के निमन्त्रण से ही शुरू हो जाता है।

 

निमन्त्रण भी बढ़िया से बढ़िया होना चाहिए, नहीं तो मेहमान नहीं पधारेंगे। और इसी के चक्कर में भारतीय निमन्त्रण भी महँगे से महँगे छपवाने की कोशिश करते हैं। ज्यादा कागज, चमकीले रंग और स्टाइल से लिखे हुए निमन्त्रण तो आज आम बात है। पर बात यहाँ खत्म नहीं होती, यह निमन्त्रण तो सही सलामत मेहमानों के पास भी पहुँचने चाहिए। इसलिए निमन्त्रण के साथ इसमें महँगा कागज भर नहीं, प्लास्टिक का लिफाफा भी चढ़ा दिया जाता है। अब मान लीजिए कि एक शादी में करीब दो सौ लोग आमन्त्रित किए गए यानी दो सौ निमन्त्रण। ऐसी ही करीब दस लाख शादियाँ हर साल होती हैं यानी दो करोड़ निमन्त्रण हर साल। यानी करीब इतने ही प्लास्टिक के लिफाफे हर साल केवल शादियों के निमन्त्रण पत्रों को बनाने में इस्तेमाल होते हैं!

 

अब मेरा एक सवाल है। प्लास्टिक तो बीसवीं शताब्दी की देन है। क्या उससे पहले शादियाँ नहीं होती थीं? क्या उससे पहले मेहमानों को निमन्त्रण नहीं जाता था? अगर सालों से शादियाँ होती आई हैं और इनमें मेहमान भी आते रहे हैं तो अब निमन्त्रणों को प्लास्टिक में लपेटने की जरूरत क्यों है?

 

यह तब जबकि प्लास्टिक आखिरकार जहर बन जाता है! एक बार निमन्त्रण आपके अतिथि के पास पहुँच गया, तो फिर यह प्लास्टिक बेकार हो जाता है। यानी उस लिफाफे की जिन्दगी केवल आपके हाथ से लेकर मेहमान के हाथ तक होती है। एक बार फेंक दिए जाने पर यह प्लास्टिक सीधे कूड़े के ढेर तक पहुँचा दिया जाता है और वहाँ अरसे तक पड़ा रहता है। शहरी इलाकों में खासकर जानवरों के लिए हमारी मेहरबानी से खाना खोजने-पाने की जगहें कम होती जा रही हैं, इस कारणवश ये जानवर कूड़े में ही अपना खाना ढूँढ़ते हैं। पर अनजाने में ये बहुत सारे हानिकारक पदार्थ भी खा लेते हैं जिसका आजकल सबसे अहम हिस्सा बन गए हैं ये प्लास्टिक के कवर। यह प्लास्टिक खास प्रकार से बनता है और आम प्लास्टिक से 5.5 प्रतिशत ज्यादा हानिकारक होता है। इस कारण कई जानवर बीमार पड़ जाते हैं और नब्बे प्रतिशत अपनी जिन्दगी खो बैठते हैं। क्या अपनी जिन्दगी में खुशी मनाने के लिए जानवरों की जिन्दगी खतरे में डालना जरूरी या उचित है?

 

हाँ, माना कि कूड़े में और भी कई तरह के पदार्थ होते हैं लेकिन प्लास्टिक ही मुख्य रूप से जानवरों की बीमारी और हत्या के लिए जिम्मेदार होता है। प्लास्टिक के कई फायदे हैं लेकिन उसका यह इस्तेमाल लगभग अमानवीय है। जरा सोचिए, निमन्त्रणों पर प्लास्टिक कवर लगाने की क्या जरूरत है? इसमें ऐसी क्या शक्ति है कि इसके बिना निमन्त्रण मेहमानों तक पहुँच ही नहीं सकते? माना कि हम प्लास्टिक को अपने दैनिक जीवन से नहीं हटा सकते। लेकिन जहाँ इसकी जरूरत सचमुच नहीं है, क्या हम वहाँ से भी इसे नहीं हटा सकते! शायद आप कहेंगे कि हमारे हटाने भर से क्या होगा, औरों को भी तो बोलो!

 

अगर आप यह सोचते हैं तो फिर क्या कहा जाए! औरों के कर्मों की प्रतीक्षा में आप जानवरों की जिन्दगी बर्बाद करते रहिए! अच्छा बदलाव लाने की आपको जरूरत नहीं लगती! परिस्थिति सरकार के नियमों से नहीं बदलेगी। ‘स्वच्छ भारत अभियान’ भी तब तक काम नहीं कर सकता जब तक हम अपनी भागीदारी और समझ के बलबूते पर छोटे-छोटे कार्य न शुरू कर दें।

 

विवाह एक शुभ अवसर होता है। उससे ही जिन्दगी भर चलने वाले परिवार की नींव पड़ती है। अब इस जीवनपर्यंत नींव के लिए ही एक कम समय के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले प्लास्टिक किसी मासूम जानवर की पूरी जिन्दगी ले ले? क्या आप इस क्रूरता को नैतिक, उचित और शुभ कहेंगे?

 

लेखक ईमेल : vibhu.vajpeyi@gmail.com

 

साभार : जनसत्ता 19 अप्रैल 2015

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