रूढ़ियां और स्वच्छता

हरजेन्द्र चौधरी

 

आज का भारत विश्व-भर में जिन नकारात्मक बातों के लिए जाना जाता है, उनमें यहाँ की गन्दगी और हमारी संदर्भित आदतें प्रमुखता से शामिल हैं। जो भी बाहरी व्यक्ति भारत घूम चुका होता है, उसके मन में बनी छवियों में यहाँ की गन्दगी की कालिख जरूर मौजूद होती है। वातानुकूलित टैक्सियों में बैठकर भारत के नव-विकसित राजमार्गों का सफर चाहे यूरोपीय, अमेरिका या जापानी यात्रा-अनुभव से बहुत अलग न हो, पर विदेशी पर्यटक जब दिल्ली जैसे किसी शहर से सुबह के समय छूटने वाली या वहाँ पहुँचने वाली ट्रेन में से, पानी की बोतल या लोटे लिए पटरियों के किनारे बैठे लोगों को देखते हैं तो भारत की गन्दगी और भारतीयों की ‘अस्वच्छ’ आदतों के बारे में अनायास ही उनके मन में एक धारणा बन जाती है। बहुत साल पहले वारसा विश्वविद्यालय में मेरी एक यूरोपियन छात्रा ने मुझसे कहा था कि भारत में विदेशी पर्यटकों के दर्शनार्थ इतना कुछ है, जो शायद पूरे यूरोप के बराबर होगा। पर भारत की गन्दगी और पर्यटन-व्यवसाय से जुड़े अनेक भारतीयों का अवांछित व्यवहार भारत और उसके पर्यटन-उद्योग पर बहुत बड़े धब्बे हैं। भारत की विविधतापूर्ण संस्कृति हम (यूरोपियन) लोगों को खीचती है, लेकिन बहुत सारे पर्यटक भारत से कुछ कड़वे अनुभव लेकर ही अपने देश लौटते हैं।

 

भारत में जगद-जगह इतनी गन्दगी का होना क्या केवल जनसंख्या की अधिकता और संसाधनों की कमी के कारण है, या इसकी कुछ अन्य वजहें भी हैं? भारत की अन्तरविरोधी विविधताओं के कारण इस देश के सन्दर्भ में कोई भी इकहरा और अन्तिम निष्कर्ष निकाल पाना कठिन है। पूरा भारत एक जैसा नहीं है। दो घटनाएँ याद आ रही हैं। हमारे पुश्तैनी ग्रामीण घर में आज से लगभग पैंतीस-छत्तीस साल पहले जब मेरे पिताजी ने शौचालय बनवाया, जब अधिकतर ग्रामीणों ने नाक-भौं सिकोड़ी थी कि छीःछीः घर में ही शौच-कर्म करेंगे। शिक्षा के कम प्रसार वाले किसी दूर देहात में आज भी ऐसे मुद्दों पर इस तरह की प्रतिक्रियाओं से आपका सामना हो सकता है। जाहिर है कि साधनों की कमी के साथ-साथ यह मसला हमारी प्रवृत्तियों और सोच से भी जुड़ा हुआ है।

 

दूसरी घटना गोआ की है। बहुत साल पहले नारियल-पानी पीकर जब हम अपनी दिल्ली वाली आदत के मुताबिक खाली नारियलों को बस की खिड़की से बाहर फेंकने ही वाले थे, तो गाइड ने तुरन्त विनयपूर्वक उन्हें लेकर बोरे में भरते हुए कहा था कि अगर इस तरह नारियल बाहर सड़कों पर फेंके जाने लगे तो हमारे गोआ की सड़कों पर नारियल ही नारियल इकट्ठे हो जाएंगे, जिससे सिर्फ गन्दगी नहीं, यातायात-जाम की समस्या भी पैदा होगी।

 

स्वच्छता के मामले में राष्ट्रीय राजधानी की हालत किसी से छिपी नहीं है। गोआ के लोग शायद अपने क्षेत्र और नगर से गहरा जुड़ाव महसूस करते हैं। क्या दिल्ली वाले भी इस शहर की साझी जिन्दगी में उसी तरह शामिल हैं, जिस तरह गोआ के लोग? गोआ राज्य भी भारत में है और दिल्ली महानगर भी। इस महानगर में शायद ही ऐसी कोई जगह हो, जहाँ आप बदबूदार हवा से बचकर केवल चार-पाँच किलोमीटर की दूरी तय कर सकें। अधिकतम हर दो-तीन किलोमीटर पर कूड़े के बड़े ढेर या किसी नाले की बदबू से आपका पाला पड़ ही जाता है। माना कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रो में खेती-बाड़ी और पशुपालन जैसे व्यवसायों के कारण हर समय और जगह पूरी साफ-सफाई रखना काफी मुश्किल काम है, पर अधिकतर नगरों-महानगरों के निवासी और स्थानीय प्रतिष्ठान सफाई और कूड़ा-निपटान के मामले में इतने काहिल और गैरजिम्मेदार क्यों बने रहते हैं, यह बात समझ से परे है। हम क्यों सार्वजनिक स्थानों की सफाई के लिए केवल सरकारी अमले को जिम्मेदार मानते हैं? हम क्यों शारीरिक श्रम को आज भी हेय दृष्टि से देखते हैं? व्यावहारिक रूप से गलत इस समझ पर क्यों कायम हैं कि हम केवल अपने प्रति उत्तरदायी हैं, दूसरो के प्रति नहीं? विश्व की प्रचीनतम सीवर-व्यवस्था वाली हड़प्पा-संस्कृति के सुदूर उत्तराधिकारी होने के बावजूद आज हमारे पास इस तरह के ‘क्यों’ का कोई तर्कसंगत उत्तर नहीं है। क्या इसका उत्तर हमें अन्य देशों के लोगों से उधार माँगना पड़ेगा? स्वच्छता के मामले में सुविख्यात जापान जैसे देश में सेवानिवृत्त बुजुर्गों को अपने घरों के आसपास स्वैच्छिक रूप से झाड़ू लगाते देखा जा सकता है। छोटे-छोटे बच्चे पार्क में खेलते समय अगर चॉकलेट जैसी कोई चीज खाते हैं, तो बिना बड़ों के कहे ‘रैपर’ को कूड़ेदान के हवाले करते हैं। जापानी लोग कुत्तों को सैर कराते समय एक बड़ा पॉलीथीन बैग हाथ में पकड़े तत्पर रहते है कि उनका कुत्ता सड़क या फुटपाथ पर गन्दगी न करे।

 

वे आदतन किसी भी तरह के कूड़े को कूड़ेदान में ही डालते हैं। इधर, हम अपने घर के सामने का कूड़ा नजर बचाकर पड़ोसी की तरफ सरकाकर निश्चिंत हो जाते हैं। ‘सभ्य-सुशिक्षित’ लोग बिना सोचे-समझे, चलती गाड़ियों से केवल सिगरेट का जलता  टोटा ही नहीं, पानी की बोतलें, कोक के डिब्बे, गन्दे नैपकिन और बचा-खुचा भोजन (केले के छिलके तक) भी फेंकते देखे जा सकते हैं। कहीं भी पान की पीक की पिचकारी मारना तो जैसे पान के शौकीनों का जन्मसिद्ध अधिकार है! हम लेग सार्वजनिक स्थानों पर पड़े कूड़े को देखने और नाक पर रूमाल रखकर, नजर फेरकर कन्नी काट जाने के आदी हैं। कूड़े की उपस्थिति हमें सक्रिय नहीं, पलायनवादी और वाचाल बनाती है। होना तो यह चाहिए कि हम आदतन और सहजता से अपने आसपास की गन्दी जगहों की सफाई में लग जाए, पर होता यह है कि हम सरकार को या दूसरे लोगों को कोसने लग जाते हैं। हमारी ऐसी आदतें अपनी जगह बनी रहती हैं और नतीजतन कूड़ा अपनी जगह बना रहता है। अन्य अनेक मामलों की तरह कूड़े के मामले में भी हम यथास्थितिवादी हैं।

 

चीजें जहाँ जैसी हैं, उन्हें उसी रूप में स्वीकार करने और उसी स्थिति में देखते रहने के आदी हैं हम। बैठकखाने को तो साफ-सुथरा और सजाकर रखने पर खास जोर देते हैं, पर मेहमानों की नजरों से परे रहने वाले हिस्सों पर ध्यान जाता ही नहीं। घरों के ऐसे हिस्सों में अनेक प्रकार का गैरजरूरी सामान भी पड़ा रहता है। जापान में उपहारों का लेन-देन बहुत होता है। लेकिन अगर उपहार में मिली कोई चीज उपयोग में न लानी हो तो उसे कूड़ेदान के एक साफ कोने में रख देते हैं, जिसे भी जरूरत हो , वहाँ से उठाकर ले जा सकता है। एकदम नई और बहुत महंगी चीजें भी वहाँ कूड़ेदान के पास रखी मिल जाती हैं। भारत में ऐसा नहीं होता। यहाँ तो हम पुरानी चीजें भी मुश्किल से फेंकते हैं। हाँ दीवाली के आस-पास ही घरों की विशेष सफाई और रंग-रोगन कराने की परम्परा है। काफी (सारा का सारा कभी नहीं) कूड़ा-कबाड़ उसी दौरान रुखसत किया जाता है। बाकी पूरे साल घरों में जरूरी के साथ-साथ गैरजरूरी सामान भी इकट्ठा होता रहता है। बस, साल में दो-चार बार कबाड़ी को पुराने अखबार-पत्रिका जरूर बेच देते हैं।

 

हम मध्यवर्गीय भारतीय फालतू सामान बटोरने-रखने के आदी हैं क्या? क्या हमारे मन में चीजों के प्रति इतना मोह है कि उनके अनुपयोगी और गैरजरूरी होने के बावजूद हम उनसे चिपके रहना चाहते हैं? फिर वे चाहे भौतिक मूर्त्त चीजे हों या रिवाजों-रूढ़ियों (या कूड़े) के ढेर को पोसने वाली हमारी अमूर्त्त सोच हो! फालतू चीजें हमेशा हमारी आदत का हिस्सा बनी रहती हैं। पर्यावरण-सुरक्षा और स्वच्छता को सुनिश्चित करने के लिए हमें शायद अपने-आप को बदलने और नए ढंग से सोचने की जरूरत है। ’अज्ञेय’ ने एक जगह किसी विदेशी विद्वान के हवाले से कहा है कि परम्परा भी बोझ हो जाती है। पुरानी सभ्यता-संस्कृतियों वाले देशों में यथास्थितिवाद के कारण वैचारिक नवोन्मेष और औचक परिवर्तन के प्रति अक्सर उदासीनता, अस्वीकृति, अनमनेपन और दुराग्रह वगैरह का भाव अधिक मिलता है।

 

तमाम सरकारी प्रतिष्ठानों द्वारा प्रधानमन्त्री के स्वच्छता अभियान का खूब प्रचार-प्रसार किए जाने के बावजूद हमारी गन्दगी, हमारी उदासीनता और हमारी रूढ़ आदतें अपनी जगह कायम हैं। इसके लिए कहीं न कहीं आंशिक रूप से हम भारतीयों का यथास्थितिवादी भावबोध भी जिम्मेदार है। हम केवल उसी परिवर्तन को स्वीकार करते हैं जो हमें तात्कालिक और निजी तौर पर सुविधाजनक और अनुकूल लगता है। अन्यथा हम यथास्थितिवाद के पोषक बने रहते हैं। हमारा सार्वजनिकता का सबक अभी अधूरा है। सार्वजनिक जीवन को बेहतर बनाने वाली आदतें शुरू में गहरी संवेदनशीलता, सावधानी और मेहनत की माँग करती हैं। पर वही आदतें कुछ समय बाद पककर मानव-व्यवहार का सहज हिस्सा बन जाती हैं। हम सब जानते-मानते हैं कि सफाई तो करने से होती है और रखने से रहती है, पर वर्तमान सरकारी नीतियों में अपना उचित स्थान बना चुकने के बावजूद सफाई-कर्म अभी हमारी आदतों का हिस्सा नहीं बन पाया है। जब हम यथास्थितिवादी भावबोध की जकड़न से मुक्त होकर भीतर-बाहर से स्वच्छ हो जाएंगे, उस दिन हमारा देश हर तरह से, सहज ही स्वच्छ हो जाएगा। अब समय आ गया है कि सरकारी अमले पर निर्भर करने और शारीरिक श्रम और मेहनतकश तबकों को हेय मानने की हमारी प्रवृत्ति बदलनी चाहिए और सफाई-कर्म हर आम-ओ-खास की आदतों में शुमार होना ही चाहिए। जिस दिन हो जाएगा, उस दिन किसी स्वच्छता-अभियान और विज्ञापनबाजी की जरूरत नहीं रहेगी।

 

साभार : जनसत्ता 5 अप्रैल 2015  

फोटो साभार : द हिन्दू  

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