राष्ट्रीय संकल्प लेने की आवश्यकता

रमेश कुमार दुबे

 

भारत की विशाल आबादी एवम् इसकी भौगोलिक, भाषाई व सांस्कृतिक विविधताओं को ध्यान में रखें तो पूरे देश को साफ-सुथरा करने का लक्ष्य अब तक की सरकारों द्वारा घोषित कार्यक्रमों में सबसे कठिन लक्ष्यों वाला दिखाई देगा। एक देश, जो संस्कारवश स्वभाव से ही अपनी व्यक्तिगत और सामूहिक दिनचर्या में परिवेश की शुद्धता और पवित्रता के प्रति सबसे ज्यादा सतर्क था वह समय के थपेड़ों और नई जीवन शैली की विवशताओं में इससे परे काफी दूर तक निकल गया है। उसको फिर से पुराने संस्कार तक लाना आसान काम नहीं है।

 

हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आप आलोचक हों या समर्थक, उनकी कुछ बातों की बर्बस प्रशंसा करनी पड़ती है। महात्मा गांधी के जन्म दिवस के दिन स्वच्छता अभियान का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस ढंग से शुभारंभ किया वह आजाद भारत के राजनीतिक इतिहास में अभूतपूर्व कहलाएगा। इसका कितना असर होगा, भारत कितना स्वच्छ होगा इस बारे में कोई भी आंकलन जल्दबाजी होगी पर साहस और योजना के साथ इस दिशा में आगे बढ़ने और लोगों को जोड़ने का काम तो प्रधानमंत्री ने किया ही है। इस अभियान का उपहास उड़ाने वालों की कमी नहीं है। मसलन, कई लोग यह कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री ने तो झाड़ू लगाई तस्वीरें खिंचवाई, उनके नेताओं-मंत्रियों ने भी ऐसा ही किया और बात खत्म। कुछ महाज्ञानियों का तर्क है कि अरे गांधीजी को केवल स्वच्छता तक सीमित करने की याद आ गई। ऐसी और भी आलोचनाएं और  उपहास हैं। यह भारत देश है जहाँ आपको सब कुछ बोलने की आजादी है और उसमें अनुशासन, संयम, विवेक और सच्चाई हो यह आवश्यक नहीं। प्रधानमंत्री दिन-रात झाड़ू तो नहीं लगा सकता। उसका काम प्रेरणा देना, योजना देना और जहाँ सरकार की जरूरत है वहाँ उपलब्ध कराना है। हम अगर आरम्भ में मान लें कि यह हो ही नहीं सकता तब तो कोई बड़ी योजना आरम्भ ही न करें, बड़ा लक्ष्य रखें ही नहीं। भारत साफ-सुथरा बने अगर गांधी जी के जन्म दिवस से 5 वर्ष की सीमा यानी उनकी 150वीं जयंती तक इसे पूरा करने का लक्ष्य दिया गया है तो इसकी सराहना होनी चाहिए, इस संकल्प के साथ देश को खड़ा होना चाहिए और हमसे आपसे जितना बन पड़े इसमें भागीदारी करेंगे। यहाँ गांधीजी को स्वच्छता तक सीमित करने का प्रश्न कहाँ है, पर गांधी स्वच्छ चेतना के प्रतीक हैं, वे स्वयं अपने आश्रम में कितनी कठोरता से इसका पालन करते थे, जहाँ जाते थे वहाँ स्वयं सफाई में लगकर लोगों को इसके लिए प्रेरित कर काम करने को आत्मविवश करते थे यह तो सच है। यह भी सच है कि उन्होंने भारत के गांवों को गोबर कह दिया था और इसे पवित्र स्थल बनाने की कल्पना की थी।

 

वैसे मूल लक्ष्य तो देश को स्वच्छ बनाना है गांधी जी का नाम प्रतीक और प्रेरणा के लिए है, फिर इससे जो सेक्युलरवाद के नाम पर छाती पीटते हैं उनको भी समस्या नहीं होने वाली है। मोदी ने इसे राजनीति से परे हटकर संपूर्ण देश का अभियान बनाने की पहल की है। उन्होंने राजनीति से परे होकर इसे देशभक्ति के रूप में लेने की अपील की। आज तक यदि हमारा भारत गंदगी मुक्त नहीं हुआ तो उसमें किसी का दोष नहीं है ऐसा प्रधानमंत्री ने स्वयं आग्रह किया। उनके शब्द थे, ‘मेरा आग्रह है कि हम इसमें किसी की आलोचना न करें।’ इसमें राजनीति न हो। उन्होंने इसके लिए पूर्व में काम करने वाले संगठनों में सर्वोदय कार्यकर्ताओं, अनेक सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक संगठनों सहित कांग्रेस पार्टी की प्रशंसा तक कर दी। उन्होंने कहा कि गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस तो अगुवाई करने वाली पार्टी थी। सभी सरकारों ने काम किया। हमें इसे सकारात्मक अभियान के तौर पर लेना चाहिए। उन्होंने कहा कि आप महात्मा गांधी यानी हमारे बापू की बात पर चलिए, उनके सपनों को पूरा करिए, मोदी को छोड़ दीजिए, क्योंकि मोदी 125 करोड़ नागरिकों में से एक है बाद में प्रधानमंत्री है वास्तव में देश तभी विश्व के लिए आदर्श बन सकता है जब ऐसे कार्यों को राजनीति से परे रहकर अपनाया जाए। राजनीतिक मतभेद रहेंगे, चुनावों में एक-दूसरे की आलोचना करिये, संसद के अंदर विरोध करिये, जिन नीतियों से सहमत नहीं हैं उनसे असहमति जताइये, लेकिन देश के कार्य में एकजुट होकर काम करिये। भारत को स्वच्छ बनाने का अभियान ऐसा ही है। आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओ ने अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में सफाई की ईमानदारी से शुरूआत की। यह प्रशंसनीय है देश ऐसे ही आगे बढ़ेगा। कई दूसरे संगठनों ने भी इस में भाग लेना आरम्भ किया है।

 

यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि लक्ष्य अत्यंत कठिन है। गांव के पतन, गांव से पलायन, बेतरतीब शहरों का आविर्भाव, अंधाधुंध औद्योगीकरण एवम् कारोबारों के अराजक विस्तार ने एक प्रकार से स्वच्छता विरोधी ढांचे को ज्यादा सशक्त किया है। लोग घर के अंदर तो सफाई करेंगे लेकिन बाहर कूड़ा डाल देंगे। बिना शौचालय के केवल विद्यालय ही नहीं है, शहरों में मुहल्ले के मुहल्ले ऐसे हैं जहाँ सार्वजनिक शौचालय या मूत्रालय नहीं। कूड़े के सही उपयोग और विसर्जन की उचित व्यवस्था नहीं। सरकार ही आंकड़ा दे रही है कि 67.3 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों को शौचालय की सुविधा प्राप्त नहीं है। 10 प्रतिशत विद्यालयों में लड़कियों के लिए शौचालय की सुविधा नहीं है। ये तो कुछ तथ्य हैं। सरकार स्वच्छता मिशन के लिए राशि की व्यवस्था कर रही है। 2015 तक 2 करोड़ शौचालय बनाने का लक्ष्य रखा गया है तो 2019 तक देश के 4041 शहरों में ठोस कचरा प्रबंधन की व्यवस्था करने का संकल्प है। देखते हैं कहाँ तक हो पाता है।

 

गांधी ने शौच के लिए कच्चे और प्रदूषण मुक्त शौचालय का प्रयोग किया था, वो काफी उपयोगी साबित हो सकता है। हमारी धरती को भी मनुष्य के मल और मूत्र की आवश्यकता है। खेती के लिए यह पोषक तत्व प्रदान करता है। इसी तरह की दूसरी बातें भी हैं, लेकिन मूल बात है सामूहिक व्यवहार की। वातावरण नहीं होने से लोग बिल्कुल गैर-अनुशासित तरीके से थूकने और मूत्र त्याग करने के अभ्यस्त हो चुके हैं। कहने का अर्थ यह कि निजी और सामाजिक स्वच्छता चेतना का संपूर्ण रूप से अभाव हो चुका है। इसलिए सबसे ज्यादा आवश्यक समाज की स्वच्छता, पवित्रता की सामूहिक चेतना को जागृत करना है। इसे अभियान की तरह चलाया जाए तो सबसे ज्यादा कारगर होगा। यह सब हमारे आपके जैसे समान्य नागरिकों पर भी निर्भर करता है।

 

साभार : प्रजातंत्र लाइव 7 दिसंबर 2014

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