संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों में से एक है सन 2015 तक सुरक्षित पेयजल और स्वच्छता सुविधाओं को सुधारना और इन सुविधाओं से रहित आबादी में से आधी संख्या तक इसे पहुँचाना।
भारत की इस लक्ष्य को प्राप्त करने की सम्भावना कम ही नजर आती है। कुछ राज्य सरकारें तो इस क्षेत्र में बेहतर बदलाव कार्य करने के लिए केन्द्र की विभिन्न योजनाओं पर ही निर्भर हैं।
निर्मल भारत अभियान
नब्बे के आखिरी दशक में सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान का लक्ष्य स्कूलों और घरों में शौचालय की माँग में एक गुणात्मक परिवर्तन लाना था। इसी योजना को 2012 में निर्मल नाम बदलकर और कुछ बदलावों के साथ निर्मल भारत अभियान बना दिया गया। यह अभियान अब केवल शौचालय के उपयोग पर ही नहीं बल्कि साफ-सफाई और स्वास्थ्य पर भी बल देता था।
इस अभियान को तकनीकों और ढाँचे के लिहाज से बेहद लचीला बनाया गया जिससे कि शौचालय भूगोल और घर में रहने वालों के अनुकूल हो। इसके तहत सिर्फ शौचालय ही नहीं ग्रामीण क्षेत्रों में भी ठोस और तरल अपशिष्ट प्रबन्धन का डिजाइन तैयार किया गया। ग्रामीण स्वच्छता मार्ट की स्थापना को प्रोत्साहित करने के लिए आवश्यक सामग्री और उपकरण की सहायता प्रदान की गई।
जागरुकता अभियान और मीडिया गतिविधियों द्वारा घर-घर में इसका सन्देश पहुँचाया गया। 'निर्मल ग्राम पुरस्कार' द्वारा उन गाँवों को सम्मानित किया गया जिन्होंने खुले में शौच से मुक्ति पा ली थी। इससे औरों को बदलाव के लिए प्रेरित करने में सहायता मिली।
सपनों से हकीकत तक
पेयजल और स्वच्छता मत्रालय, जल और स्वच्छता प्रोग्राम के अन्तर्गत विश्व बैंक के सहयोग से पूरे देश में हुई सफल कहानियों का संकलन कर रही है। इससे पंचायतों को पुरस्कार पाने की राह का पता चलेगा। इसका प्रथम खण्ड ‘सपनों से हकीकत’ 2010 में जबकि दूसरा ‘सफलता का मार्ग’ 2013 में प्रकाशित हुआ था।
पहले संकलन में उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद की बात की गई है जहाँ शौचालय निर्माण पर नहीं स्वास्थ्य और स्वच्छता के सभी पहलुओं पर ध्यान केन्द्रित किया गया। प्रशिक्षित लोगों ने घर-घर जाकर महिलाओं और बच्चों का ध्यान स्वच्छता, हाईजीन (स्वास्थ्य अनुकूलता) पर केन्द्रित करके उन्हें इस विषय पर सन्देश दिया।
ओडिशा के नक्सल प्रभावित मल्कानगिरी जिले के पण्डरीपानी ग्राम पंचायत के सरपंच ने सात दिनों तक चलने वाले चैत पर्व को स्वच्छता और हाईजीन के विषय में जागरुकता फैलाने के लिए उपयोग किया। इस अभियान की बदौलत पंचायत के हर घर में एक क्रियाशील शौचालय बन गया।
हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले के हूरी पंचायत में एक अजीब मामला आया। 60 प्रतिशत परिवारों में शौचालय होने के बावजूद भी 95 प्रतिशत लोग खुले में शौच के लिए जाते थे। जिला ग्रामीण विकास अभिकरण द्वारा आयोजित एक प्रशिक्षण कार्यशाला में ग्रामीणों और पंचायत अधिकारियों को उनकी स्वच्छता प्रथाओं पर विचार करने के लिए प्रेरित किया गया। दो महिलाओं ने गाँव को खुले में शौच मुक्त बनाने का बीड़ा उठाया।
सामान्य गड्ढे वाले शौचालयों का पाँच स्थानों में निर्माण किया गया है। इससे सभी ग्रामीणों ने खुले में जाने के बजाय इन शौचालयों को प्रयोग करना शुरू कर दिया। मात्र छह महीने में ग्रामीणों द्वारा उपयोग किए जा रहे इन्हीं शौचालयों को पोर-फ्लश में बदल दिया गया।
मन्त्रिमण्डल और निर्देश
उत्तर प्रदेश में स्वच्छता की आदतों को छोटी उम्र से ही डालने के उद्देश्य से बाल मन्त्रिमण्डलों की स्थापना के लिए बच्चों को प्रोत्साहित किया गया। इसका उद्देश्य बच्चों को बदलाव प्रतिनिधि के रूप में स्थापित करके स्वच्छता और सफाई के प्रति उनके परिवार और साथियों के नजरिए को परिवर्तित करना था। इन छोटे संगठनों की मदद से एक आन्दोलन का जन्म हुआ जिसने कि स्कूल के वातावरण के साथ ही समुदाय में परिवर्तन की पहल की।
आंध्र प्रदेश में पश्चिम गोदावरी जिला प्रशासन ने अपने ‘10 स्वच्छता दूतों’ को स्वच्छता के विचार को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए सामुदायों में भेजा ताकि जिला खुले में शौच मुक्त बन सके। जागरुकता फैलाने के लिए गैर सरकारी संगठन चिन्हित किए गए। युवा समितियों का गठन प्रगति पर नजर रखने के लिए किया गया। इस जिले ने 2007 से तीन सालों तक अधिकांश निर्मल ग्राम पुरस्कार को अपने नाम किया।
सफलता का मार्ग
पंजाब ने अपने तरल अपशिष्ट निपटान के लिए एक आदर्श तरीका अपनाया। विनोद और वर्षा जल संचयन के लिए बनाए गए तालाबों को अपशिष्ट जल के लिए इस्तेमाल होते पाया गया। प्रशासन ने गाँवों के तरल अपशिष्ट निपटान के लिए इनके होते प्रयोग में हस्तक्षेप किया। इन तालाबों को खाली करवाकर इसके गाद को निकाला गया फिर इसे चार भागों में बाँट दिया गया। इससे अवसादन, परिपक्वता और घर्षण माध्यमों से अपशिष्ट जल को साफ किया जाता है ताकि इस पानी को सिंचाई के लिए प्रयोग किया जा सके।
केरल ने स्कूली छात्रों में स्वच्छता, हाईजीन (स्वास्थ्य अनुकूलता) और स्वास्थ्य को शामिल करने के लिए एक गतिविधि उन्मुख पाठ्यक्रम ‘थेलिमा’ शुरू किया। शिक्षकों को विशेष प्रशिक्षण प्रदान किया गया ताकि वे बच्चों में युवावस्था से सम्बन्धित स्वास्थ्य और हाईजीन मूल्य व्यवहार को मन में बैठा सके। यह परिकल्पना काफी अहम साबित हुई। अंग्रेजी स्कूलों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए सरकार ने अंग्रेजी और मलयालम दोनो भाषाओं के संस्करण को पूरे राज्य में लागू किया।
यदि पानी की आपूर्ति कम या बाधित होती है तो शौचालय मृत हो जाते हैं। मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के स्कूल शौचालयों के गन्दे और अप्रयुक्त होने का कारण यही था। इसी वजह से निरन्तर पानी की आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए एक फोर्स-लिफ्ट पम्प स्थापित किया गया। पम्प की स्थापना के बाद जिला प्रशासन ने पाया कि स्कूलों में शौचालयों के उपयोग और रख-रखाव में काफी सुधार हुआ है और इसी से बच्चों की व्यक्तिगत स्वच्छता में भी सुधार हुआ है।
महत्वपूर्ण ज्ञान प्रसार
उक्त प्रयास बहुमूल्य जानकारी हैं कि कैसे सामाजिक और व्यवहार परिवर्तन की प्रक्रिया में सामाजिक-आर्थिक और भौगोलिक कारक कारगर भूमिका निभाते हैं। कई तरीकों को आवश्यकता और जरूरत के हिसाब से कहीं भी दोहराया जा सकता है।
ऊपर लिखी गई परियोजनाओं के विषय में और अन्य सफल प्रयासों के विषय में पढ़ने के लिए कृप्या नीचे दिए गए अटैचमेंट को डाउनलोड करें-
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