नार्वे कचरे से बिजली पैदा कर रहा है तो हम क्यों हैं पीछे

डॉ. मुनीश रायजादा

लगभग साल भर पहले अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में खबर आई थी कि देश में कचरे की बढती मांग को लेकर नार्वे कचरा आयात करने लगा है। नार्वे की राजधानी ओस्लों में तो 50 प्रतिशत से ज्यादा बिजली की पूर्ति वातानुकूलन के लिए हीट कचरे को जला कर की जाती है। इस रिपोर्ट को दुनिया भर से अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएं मिलीं। कुछ लोगों ने जहां इसे मजाक समझकर टाल दिया, वहीं कुछ लोग नार्वे द्वारा विकसित कचरे से ऊर्जा उत्पादन करने की तकनीकों से बहुत प्रभावित हुए।

पहले कचरा फैलाओ, फिर झाड़ू लगाओ

15 नवम्बर का दिन अमेरिका में ‘अमेरिका रिसायकल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। भारत में इस तरह का कोई प्रचलन नहीं है और अगर होता भी तो शायद इसका अंजाम ‘स्वच्छ भारत अभियान’ जैसा होता जहां राजनेता पहले से साफ सरकारी कार्यालयों में पहले अपने लोगों द्वारा कचरा डलवाते हैं व फिर मीडिया के सामने हाथ में झाड़ू लेकर सफाई करने का स्वांग रचते दिखाई देते हैं।

रिसायकलिंग की महत्ता समझनी होगी

रिसायकलिंग की प्रक्रिया को सफल बनाने के लिए एक सुनियोजित बुनियादी तंत्र की आवश्यकता होती है। मसलन अलग-अलग रंगों के कचरा पात्रों से आपको पहले ही पता चल जाता है की कौन सा कचरा किस पात्र में फेंकना है। इससे रिसायकलिंग योग्य कचरे को अलग से छांटने की जरूरत नहीं पड़ती। इसी प्रकार से रिसायकलिंग योग्य उत्पादों पर ‘रिसायकलिंग योग्य’ का चिन्ह बना होना चाहिए। मेरे शहर शिकागो में नगरपालिका हर साल 6 लाख घरों से लगभग एक मिलियन टन कचरा उठाती है। यहां सन् 2007 में शुरू हुआ ‘ब्लू कार्ट रेजिडेन्शियल रिस्य्क्लिंग प्रोग्राम’ अब तक 2।6 लाख घरों तक अपनी पहुंच बना चुका है। इस अभियान के तहत नागरिकों को रिसायकलिंग योग्य कचरा पारंपरिक काले कचरा पात्रों की जगह नीले कचरा पात्रों में डालने के लिए प्रेरित किया जाता है। इन नीले डिब्बों में से उत्पादों को छांटकर व प्रोसेस कर नए उत्पादों के रूप में बेचने के लिए भेज दिया जाता है।

सफाई की अवधारणा भारत में पुरानी बात

अब हम चर्चा का रुख भारत की ओर करते हैं। भारत में साफ-सफाई व स्वच्छता की अवधारणा कोई नई नहीं है।

शिकागो में नगरपालिका हर साल 6 लाख घरों से लगभग एक मिलियन टन कचरा उठाती है। यहां सन् 2007 में शुरू हुआ ‘ब्लू कार्ट रेजिडेन्शियल रिस्य्क्लिंग प्रोग्राम’ अब तक 2।6 लाख घरों तक अपनी पहुंच बना चुका है। इस अभियान के तहत नागरिकों को रिसायकलिंग योग्य कचरा पारंपरिक काले कचरा पात्रों की जगह नीले कचरा पात्रों में डालने के लिए प्रेरित किया जाता है। इन नीले डिब्बों में से उत्पादों को छांटकर व प्रोसेस कर नए उत्पादों के रूप में बेचने के लिए भेज दिया जाता है।

प्राचीन सिन्धु घाटी सभ्यता अपनी शानदार वास्तुकला व नगर नियोजन के लिए जानी जाती थी और निश्चित रूप से ही वहां पर कचरा प्रबंधन की उत्तम व्यवस्था रही होगी। लेकिन आज का भारत बढती जनसंख्या,  तेज व अनियोजित शहरीकरण व भयंकर भ्रष्टाचार के दुष्चक्र में उलझ गया है। तिस पर नागरिकों में नागरिकता के दायित्व की कमी ने कोढ़ में खाज का काम किया है। परिणामस्वरूप आज हम कचरे के ढेर पर बैठे हैं। हमारे नेता गुड़गांव व बेंगलुरु जैसे शहरों के विश्व स्तरीय होने का दावा करते हैं परन्तु चारों ओर फैला कचरा व बदबू का माहौल यहां हुए विकास की वास्तविक तस्वीर प्रस्तुत कर देता है। रिसायकलिंग की बात तो छोडि़ये हमारे शहरों में अभी तक कचरा एकत्र व निस्तारण का तंत्र भी पूरी तरह से विकसित नहीं हो पाया है। यही स्थिति कस्बों व गांवों में है। और ऊपर से हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुके भ्रष्टाचार ने कचरा प्रबंधन के क्षेत्र को भी नहीं बख्शा है। उदाहरण के लिए 2013 में बृहत बेंगलुरु महानगरपालिका ने कचरा निस्तारण के लिए 360 करोड़ का रूपए का भारी-भरकम बजट खर्च किया था। इसमें से कितना पैसा कट-कमीशन की भेंट चढ़ गया होगा आप स्वयं ही अंदाजा लगा सकते हैं। दुसरे शब्दों में कहें तो हम एक राष्ट्र के रूप में कचरे के निस्तारण में बुरी तरह असफल रहे हैं।

 

अमेरिका से चार गुना अधिक कचरा पैदा करता है भारत

भारत हर वर्ष लगभग 100 मिलियन टन ठोस कचरा उत्पन्न करता है जो कि अमेरिका की तुलना में चार गुना अधिक है। 2008 में प्रकाशित विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार 4378 भारतीय कस्बों व शहरों में से 423 प्राथमिक दर्जे के शहर (1 लाख से ज्यादा जनसंख्या वाले) की गिनती में आते हैं। यह 423 नगर भारत के कुल अर्बन कचरे का 72 भाग उत्पन्न करतें हैं। सेंट्रल पब्लिक हेल्थ एंड एनवायरनमेन्टल इंजीनियरी ऑर्गेनाइजेशन के अनुसार भारतीय शहरों व कस्बों में प्रति व्यक्ति कचरा उत्पादन की मात्रा 0.2 से 0.6 किग्राध्प्रतिदिन है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के आंकड़ों के अनुसार कचरे का औसत एकत्रण 50 से 94 प्रतिशत तक ही हो पाता है। एकत्र किए हुए कचरे में से 94 प्रतिशत का निस्तारण गलत व अवैज्ञानिक तरीकों से किया जाता है।
कचरा प्रबंधन में हम लगातार पिछड़ रहे हैं

भारत में भी कचरा प्रबंधन मूल रूप से नगरपालिकाओं की जिम्मेदारी है। इसी जिम्मेदारी को सही ढंग से नहीं निभाने के कारण 1996 में सुप्रीम कोर्ट में भारत सरकार, राज्यों व नगरपालिकाओं के अधिकारियों के खिलाफ एक जनहित याचिका दायर की गई। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाते हुए भारत सरकार को आवश्यक कदम उठाने के निर्देश दिए। फलस्वरूप कचरा प्रबंधन के लिए नए नियम-कानून बने। भारत सरकार के पर्यावरण व वन मंत्रालय ने म्युनिसिपल सॉलिड वेस्ट (मैनेजमेंट व हैंडलिंग) नियम, 2000 पारित किया। आज हम वर्ष 2014 में हैं। परंतु तब से आज तक स्थिति और अधिक खराब ही हुई है।

नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शहरों में बढ़ रहे प्रदूषण व कचरे के ढेर से निजात पाने हेतु इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर स्वच्छ भारत अभियान की घोषणा की है। भारत ने हाल ही में प्रथम प्रयास मे मंगल ग्रह पर यान भेजने में सफलता प्राप्त की है। हालांकि यूरोपियन यूनियन भी प्रथम प्रयास में सफल हुआ था परंतु इस अभियान में बहुत से देश शामिल थे। इतनी गौरवशाली उपलब्धि पाने वाले मुल्क के लिए कचरे की समस्या से निपटना कोई मुश्किल काम नहीं होना चाहिए। लेकिन इच्छाशक्ति के अभाव में बहुत से काम नहीं हो पा रहे हैं।
 भले ही भारत में रीसायकलिंग  का प्रभावशाली ढांजा मौजूद नहीं है तथापि कचरा प्रबंधन तंत्र में कहीं न कहीं रीसायकलिंग  तो हो ही रही है। थोड़ा ध्यान दें तो अनुभव करेंगे की कबाड़ी, रद्दी वाले और खपरैल बीनने वाले भारत में रीसायकलिंग के प्रणेता हैं।
 
(लेखक शिकागो, अमेरिका में नवजात शिशु रोग विशेषज्ञ तथा सामाजिक-राजनैतिक टिप्पणीकार हैं)

साभार : प्रजातंत्र लाइव, 18 नवंबर 2014
                        
 

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