महँगे फ्लश टाॅयलेट से बढ़ती है गन्दगी

अमरनाथ

 

दुनिया के प्रमुखतम शोध संस्थानों में से एक स्टॉकहोम एनवायरमेंट इंस्टीट्यूट के उप-प्रमुख योरान एक्सबर्ग ने कहीं कहा है कि फ्लश टाॅयलेट की सोच गलत थी। उसने पर्यावरण का बहुत नुकसान किया है। अब हमें अपने आप को अधिक बेवकूफ बनाने की बजाए दूसरे समाधानों की ओर देखना चाहिए। वैसे आविष्कार के सौ साल बाद भी दुनिया में केवल 15 प्रतिशत लोगों के पास ही आधुनिक विकास का यह प्रतीक पहुँच पाया है और फ्लश लैट्रिन होने के बाद भी मानव मल का 95 प्रतिशत से अधिक नदियों के माध्यम से समुद्र में पहुँचता है। दुनिया के लगभग आधे लोगों के पास पिट लैट्रिन है जिसमें मल नीचे गड्ढे में इकट्ठा होता है और रिस-रिसकर जमीन के पानी को दूषित करता है। अभी जिन सुलभ शौचालयों की चारों ओर धूम मची है, उनमें भी यह दोष है।

 

आधुनिक विकास का प्रतीक लंदन भी 1997 तक अपने मल को सीधे समुद्र में प्रवाहित किया करता था। 2004 में जब एक दिन आँधी आई तो लंदन का ट्रीटमेंट प्लांट बैठ गया और लंदन ने एक बार फिर सारा मल टेम्स नदी में प्रवाहित कर दिया। पर कोई इस बारे में बात नहीं करना चाहता कि जब लंदन का यह हाल है तो बाकी शहरों का हाल क्या होगा?

सीधा सा गणित है कि एक बार फ्लश करने में 10 से 20 लीटर पानी चाहिए। यदि दुनिया के 6 अरब लोग फ्लश लैट्रिन का उपयोग करने लगे तो इतना पानी लाएंगे कहाँ से और इतने मल का ट्रीटमेंट करने के लिए प्लांट कहाँ लगाएंगे? सब करने के बाद इन शौचालय की टंकियाँ भी भरती हैं, जाम होती हैं और उनकी सफाई कराना अब पहले से कहीं अधिक कठिन हो गया है। भंगी मुक्ति अधिनियम के बाद इस काम में किसी मनुष्य को लगाना अपराध है। सफाई के लिए महँगी मशीनें बनी जरूर हैं, पर निकले मलबे को निपटाने की समस्या फिर भी रह जाती है। जिन सुलभ शौचालयों की अभी पूरी दुनिया में धूम मची है, वह भी इन दोषों से मुक्त नहीं है। लखनऊ में सुलभ शौचालय की मलवाही नालियों को साफ करते भंगी परिवार की तस्वीर भी एक अखबार में छपी है।

आँकड़े बताते हैं कि यूरोप के 540 शहरों में से सिर्फ 79 के पास आधुनिक ट्रीटमेंट प्लांट हैं। 168 यूरोपीय देशों के पास कोई ट्रीटमेंट प्लांट नहीं है। आधुनिक विकास का प्रतीक लंदन भी 1997 तक अपने मल को सीधे समुद्र में प्रवाहित किया करता था। 2004 में जब एक दिन आँधी आई तो लंदन का ट्रीटमेंट प्लांट बैठ गया और लंदन ने एक बार फिर सारा मल टेम्स नदी में प्रवाहित कर दिया। पर कोई इस बारे में बात नहीं करना चाहता कि जब लंदन का यह हाल है तो बाकी शहरों का हाल क्या होगा? योजना आयोग के आँकड़ों के अनुसार, 'राजधानी दिल्ली में 20 प्रतिशत मल का भी ट्रीटमेंट नहीं हो पाता, सारा मल फ्लश के बाद सीधे यमुना में पहुँच जाता है।'

यह बड़ी विडम्बना है। एक तरफ हमारे जलस्रोत सड़ांध देते नाइट्रोजन के प्रदूषण से अटे पड़े हैं, दूसरी तरफ हमारी खेती की जमीन से जीवन देने वाला नाइट्रोजन रिसता जा रहा है। कोई भी किसान या कृषि विज्ञानी बता देगा कि रासायनिक खाद डाल-डालकर फसल लेने से हमारे खेत बंजर होते जा रहे हैं। चारे की घोर तंगी है और मवेशी रखना आम किसानों के बूते से बाहर हो गया है। नतीजतन गोबर की खाद की भी बहुत किल्लत है। उर्वरता के इस व्यापार को अभी तक ठीक से समझा नहीं गया है। हम अपनी जमीन की उर्वरता चूस रहे हैं और उनसे उगने वाले खा़द्य पदार्थ को मल बनने के बाद नदियों में डाल रहे हैं। अगर इस मल-मूत्र को वापस जमीन में डाला जाए- जैसा सीवर लगने के पहले होता ही था- तो हमारी खेती की जमीन आबाद हो जाएगी और हमारे जलस्रोतों में फिर से प्राण लौट आएंगे।

सरकार जो अरबों रुपए गटर, सिवेज लाइन और मैला जल साफ करने के संयंत्रों पर खर्च करती है, और फिर शौचालयों की संख्या बढ़ाकर मैला जल बढ़ाती जाती है, उसके बजाए अगर वह इकोसैन शौचालयों पर ध्यान दे तो करोड़ों लोगों को साफ सुथरे शौचालय मिलेंगे और बदले में नदियाँ खुद ही साफ हो चलेंगी। किसानों को टनों प्राकृतिक खाद मिलेगी और जमीन का नाइट्रोजन जमीन में ही रहेगा। ध्यान देने की बात है कि भंगी-परम्परा जब ठीक से चलती थी, तब भी मानव मल को जमीन में मिट्टी से दबा दिया जाता था और खासकर सब्जियों की खेती में उस खाद का इस्तेमाल करते थे।

सरकार जो अरबों रुपए गटर, सिवेज लाइन और मैला जल साफ करने के संयंत्रों पर खर्च करती है, और फिर शौचालयों की संख्या बढ़ाकर मैला जल बढ़ाती जाती है, उसके बजाए अगर वह इकोसैन शौचालयों पर ध्यान दे तो करोड़ों लोगों को साफ सुथरे शौचालय मिलेंगे और बदले में नदियाँ खुद ही साफ हो चलेंगी।

हालाँकि इस ढंग के शौचालयों के साथ भंगी परम्परा की वापसी का डर भी कुछ लोगों को लगता है। प्राचीन समय में मैला ढोने का काम एक जाति के लोगों के पल्ले पड़ा जैसा कि चीन में भी होता था। और उस जाति के सभी लोगों को कई पीढ़ियों तक कई तरह के अमानवीय कष्ट झेलने पड़े। एक पूरे वर्ग को भंगी बनाकर हमारे समाज ने अछूत कहकर उनकी अवमानना की। आज भी भंगी शब्द के साथ बहुत शर्म जुड़ी हुई है। परन्तु जनजीवन को जागरूक और हिस्सेदार बनाए बगैर इस समस्या का कोई समाधान है भी नहीं।

शहरों में सार्वजनिक स्थानों और गरीबों के इलाकों में शौचालय नहीं बने हैं। जो बने हैं, उनका प्रबंधन, संचालन ठीक से नहीं होता। आँकड़ों के लिहाज से देश के ग्रामीण इलाकों में सिर्फ तीन प्रतिशत लोगों के पास फ्लश लैट्रिन है, शहरों में भी यह आँकड़ा 22.5 प्रतिशत को पार नहीं करता। इन सारे लोगों के लिए ‘देश में जितने शौचालय चाहिए, उतने अगर फ्लश लैट्रिन’ बन गए तो हमारा जल संकट घनघोर हो जाएगा। आज जब तकरीबन सभी नदियाँ और दूसरे जलस्रोत मलवाही नालों में बदल गए हैं, और पूरे देश में चारे ओर गोबर की कमी है तो शौचालयों की लागत, लाभ-हानि, संचालन के तौर-तरीके, स्वच्छता और पर्यावरण पर दूरगामी प्रभाव का आंकलन करने की जरूरत निःसन्देह है।

सन्दर्भः-

1. सोपान जोशी- जल,थल और मल। गाँधी मार्ग, जुलाई-अगस्त, 2011।

2. इन्दिवर जोनालगाड़ा व संदीप तानिरू -रीथिन्किंग गवर्नेंस ऑफ टायलेट्स, लेसन्स फॉर स्वच्छ भारत फ्राॅम हैदराबाद। इकोनाॅमिक एण्ड पाॅलिटिकल विकली, 29 नवम्बर 2014।

(लखनऊ के सादातगंज में सुलभ इंटरनेशनल के शौचालय के मलवाही नालों को साफ करते भंगी। द हिन्दू में संदीप जोशी की रिपोर्ट के साथ राजीव भट्ट की यह तस्वीर छपी है।) कृपया ऊपर देखें

 
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