एके सेन गुप्ता
भारतीय समाज में गंदगी से भरे माहौल के साथ जीने के कारण अनेक प्रकार की बीमारियों का सामना करते हुए स्कैवेंजर (भंगी समाज) -वर्ग परंपरागत रूप से सिर पर मानव-मल ढोने का कार्य करते थे। इनकी वजह से दूसरी मानव आबादी स्वच्छ तथा स्वस्थ रहती है। कुल मिलाकर हम पाते हैं कि स्कैवेंजरों का कार्य जनसेवा ही रहा, किंतु इसके बावजूद इस वर्ग को समाज में सबसे नीचे पायदान पर स्थान दिया गया है। इन्हें अस्पृश्य मानकर समाज की मुख्यधारा से बाहर कर नारकीय जीवन जीने को विवश कर दिया गया है। न कोई मानवाधिकार था, न सम्मान और न ही सामाजिक प्रतिष्ठा, यहां तक कि वे सार्वजनिक कुओं से पानी लेने के लिए भी स्वतंत्र नहीं होते। उनके लिए मंदिरों में जाना भी वर्जित रहा। उनकी यह स्थिति विगत हजारों वर्षों से चली आ रही थी। कोई भी यह सोचेगा कि इस 21 वीं सदी में ऐसी स्थिति संभव नहीं, यह बात तो कहीं इतिहास की हो सकती है। किंतु यह सत्य है।
मल ढोने की प्रथा आज भी जारी है
स्कैवेंजिंग की प्रथा आज भी भारत में कई स्थानों पर प्रचलित है और इस वर्ग को हर प्रकार के भेद-भाव झेलने पड़ते हैं। इनके बच्चों को ऊंची जाति के बच्चों के साथ खेलने की मनाही होती है। विद्यालयों में प्रवेश नहीं करने दिया जाता है। महिलाओं का जीवन तो और अधिक कष्टदायक होता है। ये सूर्योदय से पूर्व सर पर तगाड़ और हाथ में झाड़ू लेकर किसी शुष्क या बाल्टीनुमा शौचपात्र से मल उठाकर शहर या गांव से बाहर फेंकने जाती हैं। कोई देख न ले उन्हें। किसी के ऊपर परछाई न पड़े उनकी। यदि ऐसा हो गया तो अपमान, तिरस्कार, दुत्कार अथवा डांट के सिवाय और मिल ही क्या सकता है!
सुलभ ने चुनौती स्वीकार की
भारत के राष्ट्रपिता माहत्मा गांधी पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने माना कि स्कैवेंजिंग सर्वाधिक घृणित कार्य है। उन्होंने यह भी माना कि इस वर्ग के ऊपर अस्पृश्यता जबरन थोपी गई है। इन्हें भी समाज के अन्य वर्ग के लोगों के समान ही जीने तथा वैकल्पिक रोजगार पाने का अधिकार है। गांधी के इन्हीं विचारों से प्रभावित और उनके द्वारा दिखाए गए अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए सुलभ-स्वच्छता एवं सामाजिक सुधार-आंदोलन के संस्थापक डॉ. बिन्देश्वर पाठक ने महात्मा गांधी के इसी अधूरे स्वप्न को पूरा करने की ठानी। इसके लिए इन्होंने स्कैवेंजरों को समाज की मुख्यधारा में शामिल करने के लिए इनके जीवन-स्तर को उठाया। स्कैवेंजरों की मुक्ति के लिए ‘सुलभ-आंदोलन’-द्वारा विविध प्रकार के उपाय किए गए, जिनमें मुख्य हैं-तकनीक, पुनर्वास, वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था एवं सामाजिक परिवर्तन। सामाजिक परिवर्तन की इस प्रकार की विचारधारा के पीछे उद्देश्य है-स्कैवेंजरों का जीवन-स्तर उठाना और अन्य मानव के समान उनके मानवाधिकारों की वापसी। इसके पांच चरण हैं-(1) मुक्ति, (2) पुनर्वास, (3) व्यावसायिक प्रशिक्षण, (4) अगली पीढ़ी की शिक्षा और (5) सामाजिक उत्थान।
डॉक्टर पाठक ने कड़ी मेहनत की और अंत में एक ऐसा निदान निकाला, जिससे लाखों कमाऊ शौचालयों को जल प्रवाहित शौचालयों में बदला जा सका। भारत में व्यक्तिगत घरों के लिए टू-पिट पोर-फ्लश कंपोस्ट शौचालय तथा ‘भुगतान एवं उपयोग’ के आधार पर सार्वजनिक शौचालयों का प्रचलन आरंभ किया। इसके बाद स्कैवेंजरों को पढ़ाया-लिखाया एवं उन्हें व्यावसायिक प्रशिक्षण दिए गए, जिससे कि वे स्वयं का कोई रोजगार कर सकें। संस्था ने उनके बच्चों को भी शिक्षित करने का विचार किया, ताकि उनके आगे की पीढ़ी स्कैवेंजिंग के कार्य में न जुड़ जाए। इसके लिए उन्होंने सुलभ पब्लिक स्कूल और वोकेशनल ट्रेनिंग सेंटर खोले, जहां स्कैवेंजर-परिवार के बच्चे सामान्य वर्ग के बच्चों के साथ शिक्षा प्राप्त करते हैं।
शौचालय: समाज परिवर्तन का एक औजार
इतने बड़ेे सामाजिक परिवर्तन के लिए आवश्यक था एक अदद शौचालय, जिसमें मौके पर ही मल का निष्पादन हो सके और उसकी सफाई के लिए मानव स्कैवेंजर की आवश्यकता ही न पड़े। साथ ही यह लोगों की आर्थिक स्थिति के अनुकूल, पर्यावरण-हितैषी एवं सांस्कृतिक दृष्टि से स्वीकार्य हो।
नई दिशा
स्कैवेंजरों के जीवन में परिवर्तन लाने के लिए, विशेषतौर से महिलाओं के लिए कार्यरत ‘नई दिशा’ उन्हें स्कैवेंजिंग से मुक्ति दिलाकर पुनर्वासित करती है, जिससे वे समाज की मुख्यधारा में शामिल हो सकें।
स्केवेंजिंग यानी सिर पर मल उठाने की प्रथा आज भी जारी है। हम आधुनिक तकनीक और विज्ञान की तरक्की पर जितना बकबक कर लें लेकिन जब हकीकत की जमीन पर नजरें दौड़ाते हैं तब पता चलता है कि हम आज भी मानव जीवन की बुनियादी स्तरों को हासिल करने के मामले में बहुत पीछे हैं।
स्कैवेंजिंग समाप्ति के लिए दो चरणों में कार्य किया जाता है- (1) लोगों को एक स्वच्छ एवं जल प्रवाहित शौचालय उपलब्ध करवाकर, जिसमें स्कैवेंजर की आवश्यकता न पड़े और (2) स्कैवेंजरों को वैकल्पिक रोजगारों में प्रशिक्षित कर उनकी क्षमता में विस्तार करना।
‘नई दिशा’ के द्वारा स्कैवेंजरों को जीवन जीने की नई राह दिखाई जाती है, उसमें वे आर्थिक स्वतंत्रता के साथ अपने कार्यक्षेत्र को चुनने के लिए स्वतंत्र होते हैं, साथ ही सम्मानपूर्वक जीवन जीने के भी अधिकारी होते हैं।
सामाजिक पिरामिड
पिरामिड की तरह सामाजिक जीवन की सबसे ऊपरी सतह पर ऊंची जाति के लोग विराजमान होते हैं, जबकि स्कैवेंजर-वर्ग सबसे नीचे हैं। सुलभ-द्वारा पिरामिड के ऊपरी हिंस्से में रह रहे लोगों को बिना कोई नुकसान पहुंचाए, अहिंसक क्रांति के द्वारा समाज में परिवर्तन लाने का कार्य किया जाता रहा है। स्कैवेंजर-वर्ग को शिक्षा देकर, विविध प्रकार के व्यावसायिक ट्रेंडों में प्रशिक्षण इत्यादि देकर उनके आत्मविश्वास में वृद्धि की गई। उन्हें सरकारी अधिकारियों, राजनयिकों एवं अन्य महान हस्तियों से मिलवाया गया। यहां तक कि संयुक्त-राष्ट्र में भी उनकी उपस्थिति दर्ज करवाई गई, जिससे वे स्वयं को समाज के अन्य लोगों के समकक्ष मान लें।
एक आंदोलन
उठाए गए उपर्युक्त कदमों के परिणाम-स्वरूप एक आंदोलन का निर्माण हुआ। आरंभ में इस परिवर्तन का विरोध हुआ, किंतु बाद में जब स्वीकारात्मक परिणाम मिले, जिससे स्कैवेंजरों को आगे का जीवन सम्मानपूर्वक जीने का सुअवसर मिला। सुलभ-द्वारा उठाए गए कदमों से उनका भविष्य बदल गया तो लोगों ने इसकी तारीफ करनी शुरू कर दी। थोड़े-से लोगों के साथ आरंभ किए गए एक प्रयास ने आज एक बड़ा आंदोलन का रूप ले लिया है, जिससे आज कई शहर स्कैवेंजिंग-मुक्त घोषित हो सके हैं। उदाहरण के लिए राजस्थान के अलवर एवं टोंक की कुछ पूर्व महिला स्कैवेंजरों, जिनके जीवन में परिवर्तन आया है, के बारे में नीचे दिए जा रहे है-
केस स्टडी
उषा चोमड़ आज 43 वर्ष की हैं। राजस्थान के भरतपुर जिले के डीग नामक गांव में इनका जन्म हुआ था। जब वे केवल 7 वर्ष की थीं, तभी से वे स्कैवेंजिंग के कार्य में जुड़ी थीं। उनके मन में हमेशा मानव-मल की सफाई ही रहती थी। जबसे उन्होंने ‘नई दिशा’, अलवर के कार्यक्रम में प्रवेश लिया है, उनके जीवन में परिवर्तन आ गया है। अब उन्हें खाने-पीने की कोई कमी नहीं है और वे मानती हैं कि यह उनके जीवन का महत्त्वपूर्ण परिवर्तन है। श्रीमती उषा चौमड़ का निश्चय है कि वे स्कैवेंजिंग के दलदल में फंसी अन्य महिलाओं को निकालने के लिए हर संभव प्रयास करेंगी।
साभार : सुलभ इंडिया
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