खुले में शौच पर विजय ही हमें दुनिया में सम्मान दिलाएगी

वी. रघुनाथन

प्लास्टिक के चलते-फिरते शौचालयों से लेकर स्वच्छता ब्रांड्स जारी करने तक के साथ, खुले में शौच के विरुद्ध पूरी जंग ही इस समाज के धब्बे हो हटा सकती है।  महात्मा गांधी के बाद श्री जयमराम रमेश ही एक ऐसे राष्ट्रीय नेता हैं, जो आजादी के 65 वर्ष बाद भी 60 करोड़ भारतीयों द्वारा खुले में शौच किए जाने के विषय को लेकर वास्तव में चिंतित हैं। एक ओर जहां सिंगापुर के श्री ली क्वान यू सिंगापुर के निवसियों से शौचालय साफ रखने का आग्रह कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर हमारे देश के रेल मंत्रालय का मानना है कि देश के एक कोने से दूसरे कोने तक, शहरों के मध्य में, रेलवे स्टेशन, इत्यादि पर मानव-मल फैलने से रेल बजट असंतुलित हो सकता है। स्पष्ट है, एक देश के नजरिए से यदि हम स्वच्छता की ओर बढ़ते विश्व की तरफ पीठ फेर लेते हैं तो इसका अभिप्राय होगा कि हमने मानव-सम्मान और सभ्यता से अपनी पीठ फेर ली है। फिर भी, हमारा चिंतन हमें जागरूक बनाए रखता है, तभी हम एक मंत्री को यह कहते सुनते हैं कि हमारे देश में पूजा-स्थलों से अधिक शौचालयों की आवश्यकता है।

शादी के जश्न में उचित शौच की व्यवस्था नहीं होती है

हमारे यहां के ज्यादातर निर्माणकर्ताओं का मानना है कि मजदूर, जो उनकी इमारतें बनाते हैं, खुले में ही शौच का परित्याग करते हैं। हम अनेक विवाह, पार्टियों आदि में जाते रहते हैं, उनमें से केवल कुछ में ही शौचादि की उचित व्यवस्था रहती है। ऐसे में उन लाखों लोगों का क्या, जो ऐसे में शौचादि की आवश्यकता महसूस करते हैं? ऊंची-ऊची इमारतों में रहनेवाले अपने ड्राइवरों, दूधवालों, अखबारवालों इत्यादि के लिए शौचालय की व्यवस्था नहीं करते। हमारे देश में रेल की पटरी के पास का स्थान शौच के लिए सबसे अधिक प्रयोग में आनेवाला स्थान है।

1999 में सरकार ने कॉम्प्रिहेन्सिव रूरल सैनिटेशन प्रोग्राम को नया नाम दिया-‘टोटल सैनिटैशन कैम्पेन’, लगा जैसे कि नया नाम दे देने से वास्तविकता बदल जाएगी। इसका उद्देश्य बताया गया-ग्रामीण क्षेत्रों में जीवन की सामान्य गुणवत्ता में सुधार लाना और 2012 तक सभी को शौचालय उपलब्ध कराना एवं स्वच्छता का आच्छादन बढ़ाना। ऐसी जागरूकता और स्वास्थ्य-शिक्षा के जरिए स्वच्छता-सुविधाएं बढ़ाने के लिए समुदायों एवं पंचायती राज संस्थाओं को प्रोत्साहित किया जाना था।

सन् 1999 में ऐसा महसूस किया गया होगा कि अभी 2012 तो काफी दूर है, इस योजना को पूरा कर लिया जाएगा, किंतु अब 2012 है और सन् 2011 के आंकड़ों के अनुसार जैसा सोचा गया था कि यह योजना सफल रहेगी, वैसा नहीं हो सका। वैसे तो उन शौचालयों के नाम पर बहुत पैसा खर्च किया जा चुका है, जो कभी बने ही नहीं। इसका प्रभाव यह है कि हर तरफ मानव-मल के ढेर दिखाई देते हैं।

आज मॉस्को को लाखों प्लास्टिक के गैराज, जिनमें लोग अपनी कारें रख सकें, के लिए जाना जा रहा है। क्या भारत में प्लास्टिक के चलंत शौचालयों की बड़ी मांग नहीं है? विरोध करनेवाले तो वैसे ही कहेंगे जैसे कि वे लोग कहते थे कि सब सहारा अफ्रीका में जूतों की मांग नहीं है, क्योंकि वहां लोग जूते नहीं पहनते।

चलता-फिरता शौचालय भारत के लिए जरूरी

स्वच्छता की चुनौतियों से निबटने के लिए भारत में चलंत शौचालयों की संभावनाओं को तलाशने की आवश्यकता है।

1999 में सरकार ने कॉम्प्रिहेन्सिव रूरल सैनिटेशन प्रोग्राम को नया नाम दिया-‘टोटल सैनिटैशन कैम्पेन’, लगा जैसे कि नया नाम दे देने से वास्तविकता बदल जाएगी। इसका उद्देश्य बताया गया-ग्रामीण क्षेत्रों में जीवन की सामान्य गुणवत्ता में सुधार लाना और 2012 तक सभी को शौचालय उपलब्ध कराना एवं स्वच्छता का आच्छादन बढ़ाना। ऐसी जागरूकता और स्वास्थ्य-शिक्षा के जरिए स्वच्छता-सुविधाएं बढ़ाने के लिए समुदायों एवं पंचायती राज संस्थाओं को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए था, पर ऐसा संभव नहीं हो सका ।

सच यह है कि एक ऐसे देश में जहां लोगों में शौचालय प्रयोग करने की आदत में उतनी ही कमी है, जितना किसी वस्तु की देख-रेख करने की आदत में। जो भी हो, यदि मान ही लिया जाए कि भारतीय लोग जुगाड़ की संस्कृति पर अधिक विश्वास रखते हैं, क्या वहां विभिन्न स्थानों, जैसे-निर्माणधीन इमारत, पार्क, बाजार, रैली अथवा जुलूस के मार्ग पर अथवा किसी भी अन्य वांछित स्थान पर एक छोटा चलंत शौचालय, जो कि किसी सीवर से जुड़ा हो, का इंतजाम नहीं किया जा सकता है, जिससे वातावरण तथा व्यक्ति के सम्मान की रक्षा की जा सके?

चलता-फिरता शौचालय का महंगा होना अखरता है

यह सच है कि आज चलंत शौचालय की अधिक कीमत हमें चुनौती दे रही है। 30,000 रुपए की इसकी लागत वास्तव में अधिक है। किंतु विदेशों में ऐसे शौचालयों का निर्माण सन् 1960 से हो रहा है। इसमें प्रयोग की जानेवाली तकनीक बेहद आसान है-प्लास्टिक का ढांचा, जिसमें आवश्यक सैनिटरी उपकरण लगे हैं। यदि हम इन चलंत शौचालयों को अधिक मात्रा में बनाकर इसकी आधी कीमत पर इसे नहीं बेच सकते तो यह हमारे लिए शर्म की बात होगी।

प्रश्न है कि इस क्षेत्र का बाजार कितना बड़ा है? भारत के शहरों में रहनेवाले लगभग आधे परिवारों के पास शौचालय नहीं है। अर्थात् लगभग 6 करोड़ परिवार (मान लें कि एक परिवार में 4 सदस्य हैं) यह भी मान लिया जाए कि इनमें से 10 प्रतिशत परिवार शौचालय पर खर्च करने को तैयार हैं। ऐसे में एक शौचालय पर 15,000 रुपए अर्थात् यह बाजार 90,000 करोड़ रुपए का है। यह तो हुई शहरों की बात। अब यदि गांवों की बात की जाए, जहां की आबादी शहरों से अधिक है और शौचालय लगभग नहीं के बराबर हैं तो यह बाजार यदि अधिक का नहीं तो इतना तो है ही।

इसके अलावा ऐसे शौचालयों पर एसटीडी बूथ लगाया जा सकता है और बाहरी दीवारों को शौचालय आदि में प्रयोग में आनेवाली उपभोक्ता-वस्तुओं के प्रचार आदि के लिए प्रयोग किया जा सकता है। इससे उत्पन्न की गई राशि बहुत अधिक हो सकती है। यदि ऐसा है तो इस उद्योग में निवेश करने से हमलोग हिचकिचाते क्यों हैं, आज से एक दशक पूर्व डियोडोरेंट आदि की कंपनियों ने सोचा भी न था कि उनका व्यापार इतनी तरक्की करेगा। जबकि हमारा भारत एक गरम देश है और यहां ऐसी उपभोक्ता-वस्तुओं को तो काफी पहले आ जाना चाहिए था।
 
भारत में शौचालय के साथ ही चाहिए कुशल शौचालय नीति

इस नीति के अंतर्गत राष्ट्रीय स्तर पर कार्यकर्ताओं की एक बड़ी टुकड़ी, जिसका नेतृत्व सुलभ इंटरनेशनल के डॉ. बिन्देश्वर पाठक के पास हो, उससे आरंभ किया जा सकता है। आरंभिक तौर पर इस क्षेत्र को आकर्षक बनाने के लिए इसे आयकर, एक्साइज, वैट एवं जीएसटी से मुक्त रखा जाना चाहिए। बैंकों को चाहिए कि इस क्षेत्र को प्राथमिकता के आधार पर ऋण देने पर विचार करें। इस क्षेत्र को कर-मुक्त सैनिटरी ब्रांड्स निकालने की भी अनुमति मिलनी चाहिए। इन चलंत शौचालयों में कार्यरत व्यक्तियों को मिलनेवाली आय आयकर से भी मुक्त होनी चाहिए। यदि भारत के आई-टी उद्योग को अपने विकास के लिए टैक्स-ब्रेक चाहिए तो भारत के शौचालय-उद्योग को ऐसे टैक्स-ब्रेक की आवश्यकता अधिक है। क्योंकि ऐसी नीतियों के परिणामस्वरूप जो शुद्ध-पर्यावरण, जन-स्वास्थ्य में सुधार एवं शहरों के रख-रखाव में आए खर्च में कमी आएगी अर्थात् लाभ होगा वह ऐसी नीतियों पर आए खर्च से कहीं कम होगा। इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमें जो ख्याति मिलेगी, वह एक बोनस के समान होगी।
किंतु सबसे पहले हमें इस समस्या को गंभीरता से समझना होगा, अन्यथा हम कभी भी इसका हल नहीं कर पाएंगे।

साभार : द इकोनाॅमिक टाइम्स

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