वागेश्वर झा
भारतीय ऋषि-परम्परा में व्यास-पुत्र महर्षि शुकदेव का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनके जन्म के बारे में जन-मानस में कई कथाएँ प्रचलित हैं। इसी क्रम में एक कथा से उनका नाम ‘शुकदेव’ रखने पर प्रकाश डाला गया है। कहते हैं कि एक बार पार्वती के आग्रह पर शिव ब्रह्मज्ञान का उपदेश देने लगे। ऐसे प्रवचन के समय शिव किसी तीसरे की उपस्थिति नहीं चाहते थे। चारों ओर दृष्टिपात कर पार्वती ने स्पष्ट किया कि कोई अन्य नहीं है, परन्तु पास में ही तोते का एक अंडा पड़ा था।
कथा के हर मोड़ पर पार्वती को हामी भरनी थी, किन्तु सुनते-सुनते वे सो गईं। तब-तक अंडे से चूजा निकल आया था। पार्वती के बदले वही चूजा हामी भरने लगा। शिव को जब इसका पता चला तो वे अत्यन्त क्रोधित होकर उसे मारने दौड़े। भयभीत चूजा भागकर व्यास-पत्नी के गर्भ में छुप गया। वही बाद में ‘शुकदेव’ नाम से प्रख्यात हुए।
शिव-प्रवचन सुनने के कारण ही शुक परमज्ञानी बन गए। अतः उन्होंने गर्भ में ही अनुभव कर लिया कि यह संसार दुःखमय है। इसीलिए वे गर्भ से बाहर आना ही नहीं चाहते थे। इससे न केवल वेदव्यास, बल्कि सारे देवतागण भी चिन्तित हो गए, क्योंकि शुकदेव-द्वारा बड़े-बड़े कार्य होने वाले थे। जब देवताओं ने प्रार्थना की तो 18 महीनों के बाद शुकदेव पैदा हुए।
महर्षि वेदव्यास के लिए वह अवसर दुगुना सुख-सन्तोष लेकर आया। उन्होंने अभी-अभी ‘श्रीमद्भागवत’ -जैसी अप्रतिम रचना को पूर्ण किया था। गूढ़ वैदिक भाषा को ठीक से नहीं समझने वाले आम लोगों के लिए यह ग्रंथ वरदान प्रमाणित हुआ। समस्त वैदिक ज्ञान को सरल भाषा में पिरोकर जन-सुलभ बनाकर महर्षि को परम सन्तोष हुआ। बहुतों ने तो इसे ‘पंचम वेद’ भी कहा।
तभी अकस्मात् एक ऐसी घटना घटी, जिससे व्यास जी का मन उद्विग्न हो उठा। कुछ शिष्य दौड़कर आए और उन्होंने गुरूदेव को सूचित किया कि उनका बालक तपस्या-हेतु बीहड़ जंगल की ओर भाग रहा है। सुनते ही महर्षि खड़े हो गए और चिल्ला-चिल्लाकर शिष्यों को आदेश देने लगे कि किसी तरह बाल शुक को पकड़कर वापस ले आओ। उस समय शुकदेव की उम्र मात्र पाँच वर्ष की थी और ऐसे अबोध बालक का तपोलीन होने के लिए गृह-त्याग का निर्णय किस पिता को सहनीय होगा!
थोड़ी देर के बाद शिष्य बालक शुक को पकड़कर आश्रम वापस लाए। पिता के समक्ष भी शुकदेव मुक्त होने के लिए हठ कर रहे थे। इसकपर परम ममतामयी वाणी में पिता ने पूछा-‘वत्स! तुम्हें ऐसी कौन-सी वेदना है कि इस कच्ची उम्र में माँ-बाप तो क्या, संसाद का ही त्याग करने का हठ कर रहे हो?’
बालक शुकदेव ने कारण को स्पष्ट करते हुए अत्यन्त ओजस्वी वाणी में कहा-‘हे आर्य! यह अखिल विश्व दुःखमय है। जिधर देखें, कलह एवं पाप फैला हुआ है। इसलिए मैं इस निकृष्ट विश्व का यथाशीघ्र त्याग करना चाहता हँू।’
महर्षि -‘इस सृष्टि में तुझे क्या बुरा लगा ?’
शुक- ‘पिताश्री! एक-आध चीज हो तो गिनाऊँ, यहाँ की तो हर चीज बुरी है।’
महर्षि-‘अच्छा, तो तुम एक कार्य करो। मैं तुम्हें आज दिन-भर का समय देता हूँ। तुम आस-पास के इलाकों में घूमकर प्रत्येक चीज को पारखी दृष्टि से देखकर शाम तक वापस आकर बताओ कि उनमें सबसे बुरी चीज तुमको कौन-सी लगी।’
शुकदेव पिता का आदेश शिरोधार्य कर तुरन्त कुटिया से निकल पड़े, क्योंकि उन्हें शाम तक लौटना भी था। वे प्रत्येक चीज को देखते तो थे, पर यह निर्णय करना कठिन था कि कौन निकृष्टतम है। कुछ और अग्रसर हुए तो हठात् उन्हें रूक जाना पड़ा, क्योंकि किसी ने बीच रास्ते पर ही मल-त्याग कर दिया गया था। सड़नभरी विष्ठा की मात्रा इतनी अधिक थी कि वह सूर्पाकार क्षेत्र में फैल गई थी। सैकड़ों मक्खियाँ उस पर मंडरा रही थीं और दुर्गंध असहनीय थी। देखते ही बालक शुकदेव का मन इस तरह खिन्न हुआ कि उन्होंने तत्काल निर्णय ले लिया कि संसार में इससे बुरी चीज दूसरी कोई हो ही नहीं सकती।
वे यथाशीघ्र लौटकर पिता के समक्ष उपस्थित हुए और अपना मंतव्य सुना दिना कि मानव-मल से बुरी कोई अन्य चीज नहीं है।
उत्तर सुनते ही व्यास जी गम्भीर हो गए। फिर उन्होंने अपनी बौद्धिक परिपक्वता के आधार पर शुकदेव को समझाना आरम्भ किया। महर्षि ने कहा-‘प्रिय पुत्र! क्या तुम जानते हो कि जिस व्यक्ति ने मल-त्याग किया था, उसने उससे पहले सुस्वादु पायस भोजन किया था। गन्दा तो मानव-देह है, जिसके संसर्ग से पायस-जैसा सुस्वादु मिष्ठान्न भी घृणित विष्ठा हो गया।’ इतना सुनते ही शुकदेव ने परास्त होने की मुद्रा में सर झुका लिया।
तभी उन्हें ‘वर्हापीडं नटवरपुः कर्णयोः कर्णिकारम्’ का संगीतमय पाठ कर्ण-गोचर हुआ, जो आश्रम के साधक गा रहे थे। उन्हें शब्द और लय दोनों आह्लादकारी लगे। वे बरबस रुककर सुनने लगे। फिर उन्होंने एक साधक से शब्द-लालित्य से भरे उस काव्य के विषय में जिज्ञासा की। साधक ने रहस्य खोला-‘हे गुरु-भ्राता! क्या आप सचमुच नहीं जानते ? तो सुनिए, आपके पिताश्री ने अपने समस्त अध्ययन और ज्ञान के सागर को एक गागर में भरकर ’श्रीमद्भागवतपुराण’ की रचना की है। आप अभी मेरे साथ चलकर उसका रसास्वादन कीजिए।’ तबसे शुकदेव जी ‘श्रीमद्भागवत’ के भगवत्-प्रेम में ऐसे आकंठ डूबे कि सारा विश्व ही कृष्णमय दृष्टिगोचर होने लगा और उनकी दृष्टि में बुराई के लिए कोई स्थान ही नहीं बचा।
साभार : सुलभ इण्डिया मार्च 2012
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