ओलीवर बाल्च
काठमांडू- स्थित गृहयेश्वरी तथा पशुपतिनाथ-मंदिर-परिसर में प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं। यहां आनेवालों में अधिकतर आत्मिक शांति के लिए आते हैं। कुछ पर्यटन के इरादे से पहुंचते हैं। कोई किसी भी इरादे से जाए, उन सभी में एक बात समान है-किसी-न-किसी स्थिति में उन सभी को शौचालय के प्रयोग की आवश्यकता जरूर पड़ती है।
सुलभ की पहल से बदलेगी तस्वीर
इन मंदिर परिसर या आसपास वर्तमान समय में जो विकल्प उपलब्ध हैं, वे बस ठीक-ठाक ही हैं। सुलभ इंटरनेशनल का पहल इस हालात में तब्दीली लाने वाला है। एक स्थानीय संस्था के साथ मिलकर भारत का गैर-सरकारी संगठन सुलभ इंटरनेशनल इन दोनों ही स्थानों पर शौचालय-सुविधाएं उपलब्ध कराने की योजना बना रहा है।
तेरह लाख शौचालयों का निर्माण सुलभ करवा चुका है
संयुक्त-राष्ट्र के अनुसार, सन् 1990 के बाद के दो दशकों में 2,40,000 व्यक्ति प्रतिदिन स्वच्छता के साधनों का प्रयोग करते हैं। सुलभ (जिसका सामान्य अर्थ ‘सरल’ है) इस विषय में कार्यरत अग्रणी संस्था है। पिछले 44 वर्षों में यह 13 लाख से भी अधिक घरेलू शौचालयों का निर्माण कर चुकी है। इसके अल्प लागत पर्यावरण-हितैषी कंपोस्ट शौचालय-डिजाइन के 5 करोड़ 40 लाख शौचालय भारत-सरकार-द्वारा भी बनाए जा चुके हैं।
सुलभ 1600 शहरों में कार्यरत है
महात्मा गांधी से प्रेरित होकर डाॅ. बिन्देश्वर पाठक ने सुलभ इंटरनेशनल संस्था का गठन किया और सिर पर मैला ढोने की प्रथा को खत्म करने का बीड़ा उठाया लिया। डाॅ. पाठक एक ऐसे समाजशास्त्री हैं, जिन्होंने मानव-मल साफ करनेवाले वर्ग ‘स्कैवेंजर्स, जिनके साथ सामाजिक भेदभाव हो रहा था, की समस्या को सुलझाने के लिए किया था। आज यह संस्था देश के 1,599 शहरों में कार्यरत है और वार्षिक तौर पर 6 करोड़ डॉलर (लगभग 36 मिलियन पाउंड) का राजस्व एकत्र करती है।
डॉक्टर पाठक का कहना है, ‘अभी बहुत कुछ करना बाकी है, पूरे विश्व के विकासशील देशों में आज भी 2.5 अरब लोगों के पास स्वच्छता के साधन उपलब्ध नहीं हैं।’ 2011 की जनगणना के अनुसार, कुल 24 करोड़ 70 लाख घरों में लगभग आधे (49.8 प्रतिशत) घरों में शौचालय नहीं है। खुले में शौच से डायरिया, दस्त तथा अन्य रोगों का खतरा हो सकता है।
भुगतान आधारित शौचालय से ही पूरा हो सकता है सपना
घरों में शौचालय आदि के निर्माण को लेकर सुलभ लगातार सरकार के साथ मिलकर कार्य करता रहा है, जिसमें प्रति शौचालय-निर्माण-लागत केवल 15 डॉलर आती है। फिर भी डॉक्टर पाठक का मानना है कि भुगतान-आधारित सार्वजनिक शौचालयों के द्वारा ही संयुक्त-राष्ट्र सन् 2025 तक विश्व के सभी नागरिकों तक शौचालय की पहुंच बना सकता है।
आज सुलभ-द्वारा भारत में लगभग 8,000 सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण किया जा चुका है, जो बाजारों, अस्पतालों तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों पर स्थित हैं। उपयोगकर्ता से एक छोटी रकम (दो रुपए से पांच रुपए तक) लेकर इन शौचालय-परिसरों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाया जाता है।
संयुक्त-राष्ट्र के अनुसार, सन् 1990 के बाद के दो दशकों में 2,40,000 व्यक्ति प्रतिदिन स्वच्छता के साधनों का प्रयोग करते हैं। सुलभ इस विषय में कार्यरत अग्रणी संस्था है। पिछले 44 वर्षों में यह 13 लाख से भी अधिक घरेलू शौचालयों का निर्माण कर चुकी है। इसके अल्प लागत पर्यावरण-हितैषी कंपोस्ट शौचालय-डिजाइन के 5 करोड़ 40 लाख शौचालय भारत-सरकार-द्वारा भी बनाए जा चुके हैं।
जिन शौचालयों पर कम पैसा एकत्र होता है, उसकी देख-रेख का खर्च सुलभ उन शौचालयों से लेता है, जहां पर आवश्यक खर्च के बाद भी पैसा बच जाता है। इसके अलावा सुलभ सरकार के प्रतिष्ठानों में साफ-सफाई आदि रखने के कार्य कर भी राजस्व एकत्र करता है। यह कार्य स्कैवेंजिंग से मुक्त लोगों के लिए रोजगार का अवसर भी प्रदान करता है।
डॉ. पाठक का कहना है, ‘पैसा वसूल करना कोई बड़ी समस्या नहीं है, किंतु इसके लिए आपको चाहिए कि आप उपयोगकर्ता को अच्छी सुविधा दें।’ डॉक्टर पाठक को पिछले वर्ष ही फ्रांस की सीनेट-द्वारा ‘लेजेण्ड ऑफ द प्लेनेट सम्मान’ से सम्मानित किया गया था।
इसके लिए सुलभ-द्वारा यह ध्यान रखा जाता है कि शौचालय सदा स्वच्छ रहे तथा दिन के 24 घंटे खुले रहें। हाथ धोने के लिए सुलभ-द्वारा साबुन आदि भी मुफ्त में दिया जाता है। कुछ स्थानों पर इसके द्वारा स्वास्थ्य-जांच के लिए स्वास्थ्य-सुविधाएं देना भी आरंभ किया गया है।
इसकी तकनीक की योजना में आगे जाकर दो लाभ हैं। दो गड्ढों के डिजाइन वाले घरेलू शौचालयों में मानव-मल का बाद में प्राकृतिक खाद के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। सार्वजनिक शौचालय-परिसरों को वातनिरपेक्ष (एनरॉबिक) डाइजेस्टर से जोड़ा जाता है। इससे बायोगैस उत्पन्न होती है, जिसका प्रयोग प्रकाश करने, भोजन पकाने एवं विद्युत उत्पन्न करने में होता है।
नेपाल के साथ ही सुलभ ने भारत के अलावा भूटान एवं अफगानिस्तान में भी सार्वजनिक शौचालय-निर्माण का कार्य किया है। मोजाम्बिक, दक्षिण अफ्रिका, कीनिया, इंडोनेसिया तथा युगांडा ऐसे विकासशील देश हैं, जिन्होंने सुलभ से इस विषय पर परामर्श एवं सहायता प्राप्त की है। इसके बावजूद पाठक का मानना है कि केवल स्वैच्छिक कार्यकर्ताओं अथवा सरकार के द्वारा पूर्ण स्वच्छता नहीं लाई जा सकती। इसके लिए व्यापारिक घरानों को इस अवसर को अपने लाभ के रूप में प्रयोग करना चाहिए।
सुलभ की समन्वित पहुंच से यह साबित होता है कि विश्व में शौचालय की कमी को प्राकृतिक रूप से संवेदनशीलता के साथ दूर किया जा सकता है। डॉक्टर पाठक का कहना है, ‘मैंने रास्ता दिखा दिया है, अब कोई यह नहीं कह सकता कि उसके पास समाधान नहीं है। यह चेतावनी पूरे विश्व के नागरिकों के लिए भी है, जिनमें वे व्यापारिक घराने भी शामिल हैं, जो अधिक लाभ कमाने के लिए निवेश का अवसर देख रहे हैं।’
साभार : सुलभ इंडिया से साभार, अनुवाद ‘द गार्डियन’ 14 मई 2014
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