कचरे से जूझने की जरुरत

डॉ खुशालसिंह पुरोहित

 

कचरे ने आज वैश्विक समस्या का रूप ले लिया है। उद्योग, कृषि, शहर व गांव सभी इसमें भरपूर योगदान दे रहे हैं। आवश्यकता इस बात की है कि इसके निपटान पर नारेबाजी और स्वप्रसिद्धि की कामना से परे जाकर विचार किया जाए।

भारत सरकार द्वारा शुरू किये गए स्वच्छता अभियान के दूरगामी परिणामों के लिए सफाई  से जुड़े सभी पक्षों पर विचार करना होगा। सफाई का महत्व सभी के लिए समान हैं। कचरे का सम्बन्ध हर व्यक्ति से हैं क्योंकि वह उसका उत्पादक हैं और कचरे से होनेवाले खतरों का सामना भी उसे ही करना हैं। मनुष्य का कचरे से संबंध  बहुत पुराना हैं। आज 21वीं शताब्दी में जनसंख्या के घनत्व में वृद्धि, शहरीकरण, औद्योगीकरण और भोगवादी सभ्यता के विकास ने कचरे की समस्या को बहुआयामी विस्तार दे दिया है। आज यह दुनिया की प्रमुख समस्याओं में से एक है।


प्रकृति में प्राकृतिक रचना और मानव निर्मित उत्पादों में बुनियादी अंतर यही है कि  प्राकृतिक उत्पाद अपनी उपयोगिता पूर्ण होने पर पुर्नचक्रित  होकर पुनः प्रकृति का हिस्सा बन जाते हैं। वही मानव निर्मित वस्तुएं अनुपयोगी होने पर कचरे में शामिल हो जाती हैं। कचरे को उपभोक्तावादी सभ्यता का उपहार भी कहा जा सकता हैं। हमारे देश में भी आदिवासी समाज और ग्रामीण क्षेत्रों में जहां उपभोक्तावाद का असर कम हैं, वहां कचरा उत्पादन भी अत्यंत कम है। कचरे की श्रेणी में वे सभी पदार्थ आते हैं, जिनके अनियोजित एकत्रीकरण से किसी न किसी रूप में प्रदूषण होता है और परिणामस्वरूप मानव एवं अन्य जीवों के जीवन और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

  

सौंदर्य के प्रति आकर्षण ने मनुष्य में सफाई के प्रति संवेदनशीलता पैदा की हैं। इसलिए कचरे से निपटने के प्रयास पिछले 2,500 वर्षों से निरंतर चल रहे हैं। ग्रीस में पहली बार कचरे का उपयोग भूमि-भराव में किया गया था, आज भी सारी  दुनिया में कचरे को ठिकाने लगाने के विकल्पों में भूमि-भराव प्रमुख है। देश में कचरा प्रबन्धन का दायित्व स्थानीय शासन संस्थाओ पर है, किन्तु कमजोर आर्थिक स्थिति और संसाधनों की कमी के कारण अधिकांश संस्थाए इस कार्य को ठीक से नहीं कर पा रही हैं । राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग शोध संस्थान (नीरी) द्वारा देश के 43 शहरों से एकत्रित जानकारी से पता चलता है कि शहरी कचरे में 40-50 प्रतिशत तक ठोस जैव विघटनशील पदार्थ होते हैं। ठोस कचरे का उपय¨ग आमतौर पर भूमि-भराव में उपयोग होता है। इन स्थलों से कई विषैले पदार्थ भू-जल में रिस जाते हैं ।


देश में ठोस अपशिष्ट विसर्जन विधियां मोटे तौर पर तीन वर्गों में वर्गीकृत की जा सकती हैं -एक पदार्थ पुर्नचक्रण, दो ताप पुनः प्राप्ति और तीन भूमिगत विसर्जन। कचरे से पदार्थों की पुनः प्राप्ति और पुर्नचक्रण में कचरा बीनने वालों की भूमिका मुख्य होती हैं । अन्य विकासशील देशों के समान हमारे देश में कागज, प्लास्टिक और धातुओं के पृथक्करण के लिए और व्यर्थ पदार्थों की खपत के लिए सीमित संसाधन उपलब्ध हैं ।


विकसित देशों में नगरीय ठोस अपशिष्ट पदार्थों से ऊर्जा उत्पादन किया जाता है या कार्बनिक खाद बनाई जाती है। हमारे देश में मिश्रित कचरे में कम मैलोरीपान तथा नगर निकायों में संसाधनों की कमी के चलते ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है।


सफाई प्रकृति की मौलिक विशेषता है। प्रकृति के पांचों मूल तत्त्वों में अपने आपको साफ करने का स्वाभाविक गुण होता है। प्रकृति के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप से गंदगी और प्रदूषण की समस्या पैदा होती है। सामान्यतया गन्दगी दूर करने का अर्थ कूड़े-करकट को एक स्थान से दूसरे स्थान पर हटा देना समझा जाता है, यह सफाई नहीं है अपितु गंदगी का स्थांनातरण मात्र हैं। सफाई का वास्तविक अर्थ है किसी वस्तु को उसके उपयोगी स्थान पर प्रतिष्ठित करना याने कचरे को सम्पत्ति में परणित करना। वरिष्ठ सर्वोदयी विचारक धीरेन्द्र मजुमदार के शब्दों में कहें तो सफाई माने सब चीजों का फायदेमंद इस्तेमाल ।  


हमारे सभी धर्मों में स्वच्छता पर जोर है। इस कारण जहां व्यक्तिगत जीवन में शुचिता की प्रमुखता है वहीं सामुदायिक स्वच्छता के प्रति ज्यादातर लोग उदासीन रहते हैं। हम सार्वजनिक स्थान खासकर सड़क पर कचरा डालना अपना मौलिक अधिकार मानते हैं लेकिन इन स्थानों की सफाई को कोई अपना कर्तव्य मानने को तैयार नहीं है। इस मान्यता को बदले बिना स्वच्छ्ता अभियान सफल नहीं हो सकता।   


भारतीय शहरों में प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन औसतन 414 ग्राम कचरा निकलता है। देश में 5100 नगरीय निकाय हैं , इनसेे हर साल 60 लाख टन कचरा निकलता है। यदि इसमें औद्यौगिक कचरे को भी शामिल कर लें तो इस कचरे से 10 हजार मेगावॉट बिजली बनाई जा सकती है। इस दिशा में सन् 1987 से प्रयास चल रहे हैं लेकिन आज तक समुचित सफलता नहीं मिल पाई है।


सबसे पहले नगरीय निकायों एवं राज्य सरकारों को कचरे का बेहतर प्रबंधन करना होगा। इस दिशा में ठोस पहल करने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त हमारे देश में करीब 15 लाख टन ई-कचरा पैदा होता है। इससे निजात पाने के लिए उपकरणों का उपयोग घटाने और पुनः चक्रण की मिली-जुली रणनीति अपनानी होगी। इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का उचित रख-रखाव करके भी ई-कचरे की मात्र को सीमित किया जा सकता है।


देश में चिकित्सीय कचरा न सिर्फ साफ-सफाई अपितु स्वास्थ्य की दृष्टि से भी चिंता का विषय बनता जा रहा है। वर्तमान में ऐसे कचरे में आधे का ही सुरक्षित निपटान हो पा रहा है। देश में करीब 7 करोड़ लोग गंदी बस्तियों में रह रहे हैं। कचराघरों के समीप रहने वाले लोगों का स्वास्थ्य जहरीले कचरे की वजह से खराब हो  रहा है। अधिकांश कचरे में सीसा और क्रोमियम का स्तर सामान्य से बहुत अधिक रहता है। इससे बीमारियां और विकलांगता बढ़ रही है। शहरों व कस्बों में दुकानों व घरों के बाहर नालियां भी अतिक्रमण का शिकार हैं। सफाई कर्मचारियों द्वारा सफाई करने के बाद भी इन नालियों-गटरों में गन्दा पानी रुका रहता है। इसी गन्दगी से बदबू एवं बीमारियाँ फैलती हैं । देश में करीब 1 करोड़ वयस्क और 18 लाख बच्चे अस्वास्थ्यकर स्थितियों में कचरा बीन कर अपनी जीविका चला रहे हैं। देश में 66 करोड़ 70 लाख लोगो के पास शौचालय की सुविधा नहीं हैं। इतना ही नहीं देश में 3 लाख लोग अभी भी मानव मल  साफ करने के घृणित कार्य से मुक्त नहीं हैं। दूसरी तरफ देखें तो पिछले दस वर्षों में गंगा व यमुना नदियों की सफाई पर 1150 करोड़ रुपये खर्च हुए लेकिन गंगा किनारे स्थित 181 कस्बों से निकलने वाले सीवेज में से सिर्फ 45 प्रतिशत कचरे की सफाई संभव हो सकी। राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना में एक दशक (2000-2010) में 2607 करोड़ रुपये खर्च हुए , इसमें 20 राज्यों की 38 नदियों पर काम हुआ, इसका परिणाम यह है कि एक भी नदी का स्वास्थ्य उत्तम नहीं कहा जा सकता हैं। इसी  प्रकार की स्थितियां देश में स्वच्छ्ता  से जुड़े अन्य क्षेत्रों में भी देखी जा सकती हैं। अर्थात कचरा सड़क पर कम है, लोगों के मन में ज्यादा है।


साभार : सर्वोदय प्रैस सर्विस

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