आदित्य शुक्ला
लखनऊ। अन्न के अनादर से बढ़ती दुश्वारियों पर सभ्य समाज का मौन, विस्फोटक स्थिति पैदा करने वाला है। कूड़े और नाली, नालों में जा रहे अन्न कण और भोज्य पदार्थों के अंश वायु प्रदूषण यानी बदबू बढ़ाने के साथ ही ऐसी जहरीली गैसों का उत्सर्जन कर रहे हैं, जो पूरी मानव सभ्यता के लिए घातक है। हाल ही में ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाई गई मुम्बई की सबसे बड़ी अण्डर ग्राउण्ड कैनाल का जब परीक्षण हुआ तो पता चला कि उस कैनाल में इतनी मिथेन गैस है, जिसके विस्फोट से मुम्बई महानगर का 30 प्रतिशत हिस्सा जमींदोज हो सकता है। कमोबेश यही हाल देश के 90 प्रतिशत महानगरों का है।
विकास की दौड़ में भूले पूर्वजों का सबक
सभ्यताओं के विकास से लेकर आधुनिक युग तक का सफर तय कर चुके मानव समाज ने अपने ही घरों में होने वाले दैनिक कार्यकलापों व परम्पराओं को दरकिनार कर इस मुसीबत को दावत दी है। 80 के दशक तक लगभग सभी घरों से निकलने वाली जूठन, फल व सब्जी आदि के छिलके जानवरों के लिए अलग रखने की व्यवस्था थी। ग्रामीण इलाकों में तो दुदहड़ यानी दूध का बर्तन के साथ ही घर में जुठहड़ यानी जूठन रखने का बर्तन भी अवश्य होता था। वक्त बदलने के साथ ही आधुनिकता के दौर में एक ही डस्टबिन में कचरे के साथ सड़े या बचे भोज्य पदार्थ, जूठन, छिलके जाने लगे।
चौंकाने वाले हैं आँकड़े भी
संयुक्त राष्ट्र की अवॉइडिंग फ्यूचर फेमाइंस की ओर से वर्ष 2013 में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में करीब एक तिहाई भोज्य उत्पाद मनुष्य के मुँह तक नहीं पहुँच पाते। वह या तो रास्ते में खराब रख-रखाव के कारण बर्बाद हो जाते हैं या उपभोक्ता उन्हें खुद ही नष्ट कर देते हैं। यूनाइटेड नेशंस एन्वायरमेंट प्रोग्राम (यूएनईपी) की रिपोर्ट ‘फूड वेस्टेज फुटप्रिंट पैक्ट ऑन नेचुरल रिसोर्सेज’ में उजागर हुआ है कि हर साल दुनिया भर में करीब 1.3 अरब टन भोजन की बर्बादी होती है। यूएनईपी ने बताया कि विश्व के विकसित और विकासशील देशों में भोजन बर्बादी के अलग-अलग स्वरूप हैं। भारत जैसे विकासशील देशों में खराब प्रबंधन, पुरानी तकनीकी, अपर्याप्त और असुरक्षित संरक्षण के कारण अन्न खेत से गोदाम के बीच सड़ता है तो विकसित देशों में यह बर्बादी खाना बनने के बाद होती है। एक सर्वे के मुताबिक हर साल विश्व भोज्य उत्पाद का 50 फीसदी अंश सड़ता या गलता है जो नदी, नालों, नालियों या लैंडफिल साइट पर फेंका और बहाया जाता है।
कूड़े और नाली-नालों में जा रहे अन्न कण और भोज्य पदार्थों के अंश वायु प्रदूषण यानी बदबू बढ़ाने के साथ ही ऐसी जहरीली गैसों का उत्सर्जन कर रहे हैं, जो पूरी मानव सभ्यता के लिए घातक है। हाल ही में ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाई गई मुम्बई की सबसे बड़ी अण्डर ग्राउण्ड कैनाल का जब परीक्षण हुआ तो पता चला कि उस कैनाल में इतनी मिथेन गैस है, जिसके विस्फोट से मुम्बई महानगर का 30 प्रतिशत हिस्सा जमींदोज हो सकता है। कमोबेश यही हाल देश के 90 प्रतिशत महानगरों का है। सभ्यताओं के विकास से लेकर आधुनिक युग तक का सफर तय कर चुके मानव समाज ने अपने ही घरों में होने वाले दैनिक कार्यकलापों व परम्पराओं को दरकिनार कर इस मुसीबत को दावत दी है…
प्रभावित होते हैं अन्य संसाधन
दुनिया भर में जो खाना बर्बाद होता है, उसके उत्पादन में खेती योग्य 28 प्रतिशत जमीन का इस्तेमाल होता है और एक साल में रूस की वोल्गा नदी में जितना पानी बहता है, उतना सिंचाई में लग जाता है। भारत में अनाज, दालें, फल, सब्जियों के कुल उत्पादन का 40 फीसदी बर्बाद होता है, जिसका बाजार मूल्य 50 हजार करोड़ रुपए है। इसमें मीट की बर्बादी मात्र 4 फीसदी है, लेकिन इससे आर्थिक नुकसान 20 फीसदी का है। विश्व भोजन बर्बादी में 3.3 अरब टन ग्रीन हाउस गैसें निकलती हैं, जिसमें मीथेन सर्वाधिक होती है। इससे ओजोन परतों के साथ ही समाज को भी खतरा पैदा हो रहा है। सवाल सिर्फ यह नहीं कि भोजन बर्बाद होता है और लोग भूखे रहते हैं, बल्कि इससे पर्यावरणीय समस्याएँ बढ़ती हैं। पानी, खाद का अपव्यय होने के साथ मानव श्रम की तौहीन भी होती है।
कचरे में सड़न और बदबू के कारक
भोज्य पदार्थों के अवशेष व छिलके आदि छोड़ दें तो आमतौर पर घरेलू कचरे में धूल-मिट्टी, कागज, काँच, लकड़ी, प्लास्टिक, लोहा आदि ही होता है। इसमें से अधिकांश सड़ते नहीं जो सड़ते या गलते भी हैं तो उनमें बदबू की मात्रा बहुत ही कम होती है। पर्यावरण विशेषज्ञों की मानें तो कचरे में सिर्फ भोज्य पदार्थ, माँस, अन्न, फल, सब्जी व उनके छिलके, गीली चाय की पत्ती, दूध आदि ही सड़ते हैं और असहनीय बदबू फैलाते हैं। इनकी सड़न से मिथेन जैसी खतरनाक और जहरीली गैस भी बनती है।
भोज्य पदार्थ बर्बाद होने से कई नुकसान
भोज्य पदार्थों की बर्बादी से जहाँ सब्जियों व दालों के दाम आसमान छू रहे हैं, वहीं मध्यवर्गीय परिवारों के हर सदस्य को हर शाम एक गिलास दूध भी मिलना मुश्किल होता जा रहा है। मोटे अनाजों की कीमतें हर साल 25 से 30 फीसदी बढ़ रही हैं। विकासशील देशों के हजारों बच्चों पर किए अध्ययन के बाद ‘सेव द चिल्ड्रन’ ने ‘फूड फॉर थॉट’ रिपोर्ट में कहा कि विश्वभर में पढ़ने वाले बच्चों में से 25 प्रतिशत ऐसे हैं, जिनकी पढ़ने, लिखने और समझने की क्षमता औसत से बहुत कम है, क्योंकि वह कुपोषण के शिकार हैं। इतना ही नहीं स्वयंसेवी संगठन ‘द हंगर प्रोजेक्ट’ के अनुसार दुनियाभर में करीब 80.7 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं, जिसमें 98 प्रतिशत पीड़ित भारत जैसे विकासशील देशों के नागरिक हैं।
प्राण वायु की दुश्मन है मिथेन
कचरे व नाली-नालों में जा रहे अन्न कण और भोज्य पदार्थ व उनके अंश वायुमण्डल से प्राण वायु यानी ऑक्सीजन का घनत्व कम कर देते हैं। एक तो इन अवशेषों को सड़ने के लिए ऑक्सीजन चाहिए होती है और इनके सड़ने से पैदा होने वाली मिथेन अपने घनत्व से दो गुना से अधिक मात्रा में ऑक्सीजन को बदबू और कीटाणुयुक्त कर देती है। यही कारण है, लोगों को कचरे के आस-पास से निकलने पर बदबू का तगड़ा झोंका नाक पर रूमाल रखने या कुछ समय के लिए साँस रोकने के लिए मजबूर कर देता है। मिथेन बनने की प्रक्रिया को ऑप्टीमाइज कर उसका यूटीलाइजेशन किया जाए तो यह ऊर्जा का बेहतर स्रोत भी है- डॉ. सुशील शुक्ला, एसोसिएट प्रोफेसर रसायन विज्ञान अम्बालिका इंस्टीट्यूट, लखनऊ।
आवश्यक है समय रहते उपाय
कूड़े में अनऑर्गेनिक कागज, लकड़ी लोहा, काँच, प्लास्टिक, कपड़ा, धूल-मिट्टी तथा ऑर्गेनिक तत्व भोज्य पदार्थ, फल एवं सब्जियों के छिलके आदि के निस्तारण की समयावधि व तरीके पृथक-पृथक है इसलिए कचरे को अलग-अलग कर ऑर्गेनिक कचरे से बिजली, खाद जैसे उपयोगी संसाधन तैयार किए जा सकते हैं। जबकि अनऑर्गेनिक कचरे से टाइल्स, ईंट, आरडीएफ आदि बनाकर निस्तारित करने से दोगुना मुनाफा होता है। प्रयास यह भी होने चाहिए कि घरों से कम-से-कम कचरा निकले। इसके लिए लोगों को बताना होगा कि जैसे वह अखबार को कचरे में डालने के बजाय कबाड़ी को बेचते हैं, उसी तरह प्लास्टिक कैरी बैग, बचे भोजन समेत कूड़ा कही जाने वाली वस्तुओं को भी किसी तरह मुनाफे के दायरे में लाना होगा। समय रहते ऐसे उपाय नहीं हुए तो स्थितियाँ और बदतर होंगी, जो पूरे मानव समाज के लिए घातक है- एके गुप्ता सहायक निदेशक, क्षेत्रीय नगर एवं पर्यावरण अध्ययन केन्द्र , लखनऊ।
साभार : डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट 24 सितम्बर 2015
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