कचरे के ढेर पर दिल्ली

डॉ प्रवीण तिवारी


दिन-ब-दिन बढ़ती आबादी के बोझ के चलते और निश्चित कार्ययोजना के अभाव में देश की राजधानी दिल्ली गन्दगी और प्रदूषण की शिकार होती जा रही है। अगर जल्दी ही इस सन्दर्भ में ठोस उपाय नहीं किए गए तो हालात और भी बदतर हो जाएंगे। यहाँ रोजाना 8 हजार मीट्रिक टन कूड़ा पैदा किया जा रहा है जबकि 2 करोड़ मीट्रिक टन कचरा यहाँ पहले से ही पड़ा हुआ है, जिस का निस्तारण किया जाना है। समस्या इतनी गम्भीर हो चुकी है कि अब दिल्ली हाईकोर्ट को इस मामले में दखल देना पड़ा है। सम्बन्धित विभाग और नगर निगम की दलील है कि कूड़े के निस्तारण के लिए उनके पास अब कहीं डम्पिंग ग्राउंड नहीं बचे हैं। वे जमीन का रोना रो रहे हैं।


कचरे और प्रदूषण के चलते दिल्ली के आसमान पर इन दिनों धुन्ध की ऐसी चादर लिपटी पड़ी है जिससे कई समस्याएँ पैदा हो रही हैं। हर साल धुन्ध की ऐसी समस्या से दिल्लीवासियों को रु-ब-रु होना पड़ता है लेकिन इसे प्राकृतिक वजह बताकर प्रशासन चुप्पी साध लेता है। दरअसल, प्रशासन, नगर निकाय और सम्बन्धित विभागों द्वारा अब तक कचरा निस्तारण की जो प्रणाली अपनाई जाती रही है, वह कामचलाऊ तरीका ही रहा है।


इस कामचलाऊ प्रवृत्ति का ही नतीजा है कि दिल्ली की बढ़ती आबादी के मद्देनजर योजनाओं और उनके क्रियान्वयन में तालमेल की कोशिश नहीं की गई और अब वह सिस्टम चरमरा गया है। लिहाजा समस्याएँ बढ़ती जा रही हैं। एक दूरदर्शी प्रशासन पहले ही आने वाली समस्याओं का आंकलन कर लेता है और उसके समाधान के उपाय ढूंढने की कोशिश शुरू कर देता है। इससे किसी भी तरह की तात्कालिक समस्या से आसानी से निपटा जा सकता है।

 

 

कचरे और प्रदूषण के चलते दिल्ली के आसमान पर इन दिनों धुन्ध की ऐसी चादर लिपटी पड़ी है जिससे कई समस्याएँ पैदा हो रही हैं। हर साल धुन्ध की ऐसी समस्या से दिल्लीवासियों को रु-ब-रु होना पड़ता है लेकिन इसे प्राकृतिक वजह बताकर प्रशासन चुप्पी साध लेता है। नतीजतन, दिल्ली की बढ़ती आबादी के मद्देनजर योजनाओं और उनके क्रियान्वयन में तालमेल की कोशिश नहीं की गई और अब वह सिस्टम चरमरा गया है।


राजधानी की बढ़ती आबादी से निपटने के लिए आस-पास के इलाकों में टाउनशिप बनाने की एक सकारात्मक पहल तो की गई लेकिन मूलभूत समस्याओं से निपटने के ठोस उपाय नहीं किए गए। यह कहना गलत नहीं होगा कि ठोस पहल और दूरदर्शिता के अभाव में कचरा प्रबन्धन से जुड़ी तमाम कार्ययोजनाएँ अपने परिणति तक नहीं पहुंच पाईं। अब दिल्ली में कहीं ऐसी जमीन नहीं बची है जहाँ कूड़े का निस्तारण किया जा सके। हाईकोर्ट ने डीडीए से कहा है कि वह जमीन का इन्तजाम करे। जब देश की राजधानी कूड़े की बड़ी समस्या से इस तरह जूझ रही है तो बाकी के उन शहरों के हालात कमोबेश ऐसे ही होंगे जिनपर आबादी का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है।


कचरे का समय पर निस्तारण नहीं होने से ही हर साल भारी तादाद में लोग बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं। कचरा उठाने से लेकर उसके निस्तारण तक की प्रक्रिया की कोई तय समय-सीमा पर भी अमल नहीं हो रहा है। पर्यावरण पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ रहा है। दरअसल, कचरा प्रबन्धन के क्षेत्र में आधुनिक तकनीकी के इस्तेमाल में हम काफी पिछड़े हुए हैं। इसके अलावा हमारे देश में आम नागरिक भी अपने दायित्वों से पूरी तरह कटे करते रहते हैं। कूड़े का ढेर पैदा करने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता लेकिन उसका निपटारा कैसे होगा इसकी कोई चिन्ता उन्हें नहीं रहती। विदेशो में इस पर काफी शोध हुआ है और इसके लिए नई तकनीकों का भरपूर इस्तेमाल किया जा रहा है। वहाँ लोग भी काफी जागरुक हैं और इस संदर्भ में काफी एहतियात बरतते हैं।


दिल्ली में सिर्फ ओखला ऐसा केन्द्र है जहाँ कचरे से बिजली बनाई जाती है। जबकि अन्य डम्पिंग ग्राउंड पर ऐसी सुविधा नहीं है। कचरे की रिसाइक्लिंग पर भी तेजी से काम नहीं हो रहा है। प्रधानमन्त्री ने स्वच्छता अभियान चलाकर सफाई का नारा तो दे दिया लेकिन अब नगर निकाय और सम्बन्धित अमलों की जिम्मेदारी बनती है कि वे कचरे के ढेर में तब्दील होते शहरों को मुक्त कराने की कोशिश शुरू करें। इतना तो तय है कि अगर समय रहते कचरा प्रबन्धन के लिए ठोस उपाय नहीं किए गए तो देश की राजधानी दिल्ली को कचरे के ढेर में तब्दील होने से बचाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो जाएगा।


साभार : प्रजातन्त्र लाइव 21 दिसम्बर 2014

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