कचरा मेजों पर नहीं, जीवनशैली में

सचिन कुमार जैन

अचानक से साफ-सफाई और स्वच्छता एक आंदोलन बन गया लगता है। अचानक से भारत वर्ष 2014 में सभ्य हो रहा है। पहली बार हमें सिखाया जा रहा है कि सफाई कितनी जरूरी है! मेरी यह टिप्पणी आलोचना नहीं, बल्कि स्वच्छता के विषय के कुछ बुनियादी पहलुओं को खोलने की कोशिश है। आज हम जिस समाज में स्वच्छता लाने की पहल का रहे है वह झाड़ू से किसी भी कीमत पर न आएगी। इंसान की बात तो छोड़ दीजिए जानवर भी जब कहीं बैठता है तो वह पहले उस जगह को साफ करता है। गायें बारिश में सड़कों पर आकर बैठ जाती हैं क्योंकि वे सूखी जगह पर बैठती हैं। ऐसे में हमें यह खुद से पूछना चाहिए कि क्या स्वच्छता केवल जागरूकता अभियान और शौचालय बनाने (केंद्र सरकार से लेकर ग्राम पंचायत तक की हमारी व्यवस्था को निर्माण कार्यो में शाश्वत रुचि रही है क्योंकि वहां सरकारी खर्चे में निजी हितों के लिए पूरा स्थान बनाया जा चुका है) तक ही सीमित है? यदि गंदगी एक बीमारी है तो क्या वास्तव में हम उसके मूल कारणों को समझ रहे हैं? यदि नहीं तो फिर इलाज कैसे संभव है? क्या हम उस जीवनशैली और विकास की नीति की समीक्षा कर उसे बदलने के लिए तैयार हैं और असमानता, शोषण और कचरा एक साथ बढ़ाती हैं।


अपना घर साफ करने के लिए आज कई किस्मों के रसायन उपयोग में लाए जाते हैं पर पढ़ा-लिखा समाज उन्हीं उत्पादों पर लिखे संदेशों को नहीं पढ़ता है, जो बताते हैं कि घर साफ करने वाले उत्पादों में जिन रसायनों का उपयोग किया गया है, वे किन विषैले तत्वों से बने हैं। एनवायर्नमेंटल हेल्थ (2010) के एक शोध अध्ययन के मुताबिक जिन महिलाओं ने घर को साफ करने के लिए सफाई उत्पादों का उपयोग किया उनमें अन्य महिलाओं की तुलना में (जिन्होंने ऐसे उत्पाद बहुत कम उपयोग किए) स्तन कैंसर का जोखिम दोगुना पाया गया है। अमेरिका की एनवायर्नमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी के मुताबिक सामान्य से सामान्य घरेलू या औद्योगिक सफाई उत्पादों में से फारमेलडीहाइड और बेंजीन सरीखे वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों का उत्सर्जन होता है जो घर के भीतर की वस्तुओं और हवा को जहरीला बनाते हैं। जिन घरों में सफाई-पोंछे या धुलाई के लिए इनका उपयोग होता है तो बाहरी स्थान की तुलना में उन घरों के भीतर 2 से 5 गुना ज्यादा विषैले पदार्थ होते हैं। इन उत्पादों के उपयोग के तत्काल बाद तो बाहर की तुलना में चार-दीवारी के भीतर जहर का स्तर 1000 गुना ज्यादा होता है। मतलब यह कि स्वच्छता भी जहरीली हो सकती है।


पिछले दो दशकों में सफाई और स्वच्छता, का संदेश भय की तरह से फैलाया गया है। ऐसे में मन में एक सवाल कौंधता है कि क्या कहीं स्वच्छ भारत अभियान स्वच्छता के मूल सवालों को किनारे, रखते हुए केवल गली, सड़क, पुलिस थानों और सरकारी दफ्तरों की मेज पर चढ़ी धूल को मिटाने तक सीमित क्यों रखा जा रहा है? दो अक्टूबर यानी गांधी जयंती के दिन उन्हीं के नाम पर यह अभियान शुरू हुआ।

गांधी जी की किताब ‘ग्राम स्वराज’ में लिखा है कि ‘आप जो पानी पिएं, जो खाना खाएं और जिस हवा में सांस ले वे सब बिल्कुल साफ होना चाहिए। आप सिर्फ अपनी निजी सफाई से संतोष न मानें, बल्कि हवा, पानी और खुराक की जितनी सफाई आप अपने लिए रखें उतनी ही सफाई का शौक आप अपने आसपास के वातावरण में भी फैलाएं'।

 

अब यदि हम इस सोच से सहमत हैं तो केवल गंगा नदी में मिल रहे 1600 गंदे पानी के नालों को नहीं रोकना होगा, बल्कि 2680 बड़े तालाबों में हमारे द्वारा पैदा किए जा रहे कचरे को मिलने से रोकना होगा। चंबल, नर्मदा, कावेरी और यमुना सरीखी 87 बड़ी नदियों में मिल रहे 2900 बड़े नालों को रोकना होगा। इसके दो तरीके हैं, एक या तो ऐसे व्यवहार और उत्पादन के तरीकों को नियंत्रित किया जाए, जो इन नालों के लिए जहरीला अवशिष्ट पैदा करते हैं और दूसरा तरीका है कि इन नालों का मुंह मोड़कर किसी और जमीन या गड्ढे में डाला जाने लगे। तीसरा तरीका बहुत भुलावे वाला है कि इस अवशिष्ट का उपचार प्रबंधन किया जाए। जरा सोचिएगा कि क्या किसी जहर में से उसका जहरीलापन निकाल कर उपयोगी बनाया जा सकता है?


हमारे योजना आयोग ने शहरों में पैदा हो रहे ठोस अवशिष्ट (इसमें तरल की मात्रा शामिल नहीं है) पदार्थों के प्रबंधन के लिए विशेषज्ञों का एक कार्यदल बनाया। हमारे यहां विशेषज्ञों में एक ग्रंथि का विकास हो चुका है कि वे किसी भी समस्या के मूल कारणों के आधार पर समाधान नहीं खोजना चाहते हैं। वे हर समस्या और संकट को फायदे का सौदा मानते हैं। इस कार्यबल ने बताया कि अभी की स्थिति में भारत के 7935 छोटे, बड़े और बहुत बड़े शहरों में रहने वाले 37.7 करोड़ लोग एक साल में 60.20 अरब किलो ठोस कचरा पैदा करते हैं। इसमें से 40.96 अरब किलो कचरा खुले ढेर के रूप में छोड़ दिया जाता है। इस कचरे में कबाड़ी वालों द्वारा इकट्ठा किया गया कचरा शामिल नहीं है। एक शहरी भारतीय एक साल में औसतन 165 किलो कचरा पैदा करता है।


जैसे-जैसे शहर का आकार बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे प्रति व्यक्ति कचरे का उत्पादन भी बढ़ता जाता है। 1 लाख से कम जनसंख्या वाले शहरों में प्रति व्यक्ति 300 ग्राम कचरे की पैदावार होती है। जबकि 10 लाख से ज्यादा जनसंख्या वाले शहर में एक व्यक्ति हर रोज 550 ग्राम कचरा पैदा करता है। भारत के 7882 छोटे नगर जितना कुल कचरा (82 हजार मीट्रिक टन प्रतिदिन) पैदा करते हैं, 53 बड़े शहर उससे ज्यादा कचरा (88 हजार मीट्रिक टन प्रतिदिन) पैदा करते हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल में भारत के सर्वोच्च न्यायालय को बताया कि देश में हर रोज 9205 टन प्लास्टिक कचरा पैदा होता है। इसमें से 1952.9 (21 फीसदी) टन कचरा चार बड़े शहरों (दिल्ली, मुंबई, चेन्नई और कोलकाता) पैदा करते हैं। क्या इससे ज्यादा कोई और प्रमाण चाहिए यह समझने के लिए कि मौजूदा विकास और शहरीकरण इस समाज को नैतिक ही नहीं बल्कि भौतिक पतन की ओर ले जा रहा है।


एक बार भी हम अपने आर्थिक विकास की नीतियों पर पुनर्विचार करने को तैयार नहीं हैं, इसीलिए स्वच्छ भारत अभियान एक झूठ और धोखे से ज्यादा कुछ नहीं है। जिस आर्थिक उन्नति पर हम गर्व कर रहे हैं, उसके एक दौर में एक दिन में पैदा होने वाले कचरे की मात्रा में ढाई गुना की बढ़ोतरी हुई है। 1999-2000 में हमारे शहर एक दिन में 52125 मीट्रिक टन कचरा पैदा करते थे, जो वर्ष 2012 में बढ़कर 133760 मीट्रिक टन हो गया। विशेषज्ञों का कहना है कि अभी कोई दिक्कत नहीं है। विकसित देशों में एक व्यक्ति 01 से 2.5 किलो ठोस कचरा प्रतिदिन पैदा करता है, हम तो केवल 450 ग्राम ही करते हैं। यह सोच स्वाभाविक है क्योंकि विकास का पूरा नजरिया तो हमने वहीं से लिया है। यदि गांधी का नाम लिया है, तो अपनी बुद्धि में यह बात भी डाल लीजिए कि वे ऐसी जीवनशैली की बात कर रहे थे, जो कम से कम कचरा पैदा करे।

 

वास्तव में स्वच्छ भारत अभियान का मूलमंत्र तो कचरे के उत्पादन को सीमित करना होना चाहिए। जिस तरह की जीवनशैली हम अपना चुके हैं, उसमें साबुन के पैकेट से लेकर, दंतमंजन, ब्लेड, मोबाइल और कंप्यूटर तक, हर दैनिक उपयोग की वस्तु कचरे के उत्पादन का स्रोत है। यह वैसा सामान्य कचरा नहीं है, जिसे केवल झाड़ू से बुहारा जा सके। यह तो घातक रसायनों और रेडियो एक्टिव कचरा पैदा करते हैं।


आंकलन है कि वर्ष 2013 में कचरे का यह उत्पादन बढ़कर 160.50 करोड़ किलो और वर्ष 2050 में 430.50 करोड़ किलो हो जाएगा। आज की तरीख में शहरी भारत जितना कचरा पैदा कर रहा है उसके लिए हर रोज 3.40 लाख घनफुट गड्ढे की जरूरत है। और जिस तरह हमारा शहरीकरण और विकास कचरा पैदा कर रहा है, उसके हिसाब से 20 साल बाद इस कचरे को रखने के लिए (इसे रखने के अलावा आप कुछ नहीं कर पाएंगे) 66 हजार हेक्टेयर जमीन की जरूरत होगी, जिस पर कचरे के 10 मीटर ऊंचे ढेर सजाए जाएंगे। इस कचरे में हमें गर्मी से मुक्ति दिलाने वाले शीतल पेय के केन, आलू चिप्स के खाली पैकेट, दूध की थैलियां, पन्नियां, फैक्ट्री में शुद्ध किए गए पानी की बोतलें, दंतमजन के पैकेट, आरामदायक वाहनों के टायर, नमकीन और मिठाई के पैकेट से लेकर कई अन्य वस्तुओं की पैकिंग के लिए उपयोग में लाई गई सामग्री शामिल है। यह कचरा खत्म होने में 1 साल से लेकर 1000 साल तक का समय लेता है क्योंकि यह प्रकृति में घुलनशील नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक यह कचरा 22 तरह की बीमारियों का जनक है और प्रधानमंत्री जी ने बताया कि इसके कारण एक व्यक्ति पर सालाना 6.50 हजार रुपए आर्थिक बोझ आता है। स्वच्छ भारत अभियान का नारा गुंजाने के साथ ही हमें खुद से यह भी पूछना चाहिए कि एक शहरी नागरिक की जीवनशैली कैसी है जो हर रोज लगभग आधा किलो ऐसा कचरा पैदा करती है जो जैविकीय रूप से प्रकृति में नहीं मिल जाता है। इतना ही नहीं वह हमारे घर के भीतर और बाहर विषैली परत जमा कर रहा है।

 

विशेषज्ञ सुझाव दे रहे हैं कि इस कचरे को दो तरह से ठिकाने लगाया जा सकता है, एक जैव रासायनिक प्रकृति से और दूसरा इसे जलाकर। यह विष जमीन में जाएगा या फिर हवा में। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गंदगी का इलाज एक स्थान से कचरा इकट्ठा करके किसी दूसरे स्थान पर छोड़ दिए जाने से संभव नहीं है। वास्तव में स्वच्छ भारत अभियान का मूलमंत्र तो कचरे के उत्पादन को सीमित करना होना चाहिए। जिस तरह की जीवनशैली हम अपना चुके हैं उसमें साबुन के पैकेट से लेकर दंतमंजन, ब्लेड, मोबाइल और कंप्यूटर तक हर दैनिक उपयोग की वस्तु कचरे के उत्पादन का स्रोत है। यह वैसा सामान्य कचरा नहीं है, जिसे केवल झाड़ू से बुहारा जा सके। यह तो घातक रसायनों और रेडियोएक्टिव कचरा पैदा करते हैं। इसी शृंखला में यह भी जरूरी होगा कि कचरा बीनने वालों के जीवन में सामाजिक-आर्थिक सम्मान को लाने के परिणाम मूलक पहल हो। भोपाल को गैस त्रासदी के ग्रहण से मुक्त करते हुए यह वायदा किया जाए कि हम ऐसा औद्योगिकीकरण नहीं करेंगे जो जहरीली गैस या पदार्थों को जीवन में बसा देता है। हम निजी से ज्यादा लोक-परिवहन को महत्व देंगे और शिक्षा व्यवस्था में ऐसा बदलाव करेंगे कि जीवनशैली में बदलाव आए।

 

साभार : सोपान स्टेप

 

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