कचरा बटोरता बचपन

सय्यद मुबीन ज़ेहरा


नए वर्ष के आगमन पर सब ने थोड़ा-बहुत जश्न मनाया होगा। उसके बाद घर का कूड़ेदान कुछ अधिक भरा नजर आया होगा। हम जिन भी चीजों का उपयोग करते हैं, उससे कूड़ा जरूर पैदा होता है। जितना उपभोग उतना कूड़ा। यह कूड़ा हमारी धरती पर बोझ है। इस का निपटान आज बड़ी चुनौती है। इसी से जुड़ी उस बचपन की चिंता है, जो कचरा चुनता और उससे अपना और अपने परिवार का पेट भरता है।


जब हम नए साल का जश्न मना रहे थे। इन कचरों के ढेरों में कुछ बच्चे अपना एक वक्त का भोजन तलाश रहे थे। वे शायद बचपन में कदम रखते ही हमारी तरक्कीयाफ्ता जिंदगी का कूड़ा उठाने पर मजबूर हो गए।


मुझे इस विषय पर गंभीरता से सोचने का मौका मिला,  जब दिल्ली के साकेत स्थित एमिटी इंटरनेशनल स्कूल में कूड़ा बीनने वाले बच्चों पर हुई एक चर्चा में हिस्सा लिया। इस स्कूल के बच्चो नें अपने इलाके के कूड़ा बटोरने वाले बच्चों के समूह को गोद लिया है। उनकी कोशिश है कि इन बच्चों की साफ-सफाई और स्वास्थ्य का ध्यान रखा जाए। इनको भी हमारे बच्चों जैसी चिकित्सा सुविधा और सहारा मिल सके। इन बच्चों की पहल ने मन को छू लिया। सोचने पर मजबूर किया कि हम उस बचपन के बारे में विचार करें, जो सामानय बचपन से बिलकुल अलग है, जो खेल-कूद और शिक्षा का अधिकार के रूप में टीवी और इस्तहारों में नजर आता है। यह बचपन हर पल हमारी दुनिया का एक ऐसा चेहरा दिखाता है, जो निर्दयी है।


ये विद्यार्थी अपनी अध्यापिकाओं की मदद से उन बच्चों के जीवन में उजाला लाने की कोशिश कर रहे हैं, जो मजबूरी के चलते कूड़े के ढेर में जीवन तलाशते हैं, जबकि जीवन तो शिक्षा में है। ये विद्यार्थी उनकी सेहत और पुनर्वास को लेकर चिंतित हैं। यह सक्रियता इनके पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं है और ये विद्यार्थी अपने तईं समाज में सुधार लाने की कोशिश में इन बच्चों के साथ जुड़े हैं। इन बच्चों की लगन, जज्बा और मेहनत देखकर लगता है कि आने वाले समय में यही पीढ़ी हमारे समाज को एक सकारात्मक दिशा देगी, क्योंकि आने वाले समय में यह पीढ़ी सामाजिक रूप से जागरूक होने के साथ-साथ संवेदनशील भी होगी।

 

मगर चिंता यही है कि केवल एक-दो स्कूलों में ऐसा करके क्या हम सभी को जागरूक बना सकते हैं। अगर इस प्रकार सामाजिक कार्यों को सही रूप से पाठ्यक्रम का हिस्सा बना दिया जाए, जिसमें समाजसेवा को एक विषय के तौर पर रखा जाए तो यकीनन हमारा समाज जागरूक बनने की ओर कदम बढ़ाता दिखाई देगा।

 

बचपन जीवन की मधुर अनुभूति है। हम जिंदगी के सफर में हमेशा चाहते हैं कि काश बचपन वापस आ जाए। मगर कूड़ा बीनने वाले बच्चे क्या कभी अपना बचपन वापस चाहेंगे? जब तक हम बच्चों के हाथों में औजार और रोजगार देकर गरीबी का निदान करने का प्रयास करेंगे, तब तक ना तो गरीबी समाप्त होगी और न ही बालश्रम।


यह देख कर हैरानी होती है कि हमारे समाज के बड़े इन बच्चों को लेकर कुछ अलग सोच रखते हैं। इस कूड़ा बीनने वाले बच्चों के बारे में बात करते हुए एक पढ़े-लिखे, सभ्य और सशक्त व्यक्ति के विचार सुनने का अवसर भी कहीं मिला था। उनका मानना था कि बच्चों के काम करने में कोई हर्ज नहीं है। आखिर आर्थिक सशक्तता भी जरूरी है। हां, काम के समय इन बच्चों को नुकसान नहीं होना चाहिए। यह बात दिल की गहराई तक दुख पहुंचा गई कि हमारे समाज में ऐसे लोग भी हैं, जो मानते हैं कि बच्चे काम करें। कूड़ा बीनना भी बाल-मजदूरी का हिस्सा है, उन्हें यह बात समझ नहीं आती। इसी प्रकार का सोच और नजरिया रखने वाले लोग ही बचपन को कूड़ा उठाता देख, संकोच और शर्म नहीं महसूस करते।


भारत में कूड़ा उठाने वाले बच्चों पर बहुत कम काम हुआ है। इनकी ओर किसी की नजर ही नहीं जाती, क्योंकि ये सबसे निचले स्तर का काम करते हैं, जिसमें किसी कौशल की जरूरत नहीं पड़ती। ये लोग अधिकतर अपनी पारिवारिक कमजोरियों के चलते इस ओर आते हैं। यहीं से इनको बुरी आदतें भी लग जाती हैं। गंदगी में बिना किसी सुरक्षा के काम करने से इन्हें बीमारियां लगने का खतरा बना रहता है। इनके शोषण का रास्ता भी खुला रहता है। समाज का कूड़ा उठाते-उठाते एक दिन इनका जीवन ही कूड़ा हो जाता है। तब समाज को चिंता होती है, लेकिन यह सामाजिक योगदान देने की बजाय समाज पर बोझ बन जाते हैं। जरूरी है कि समाज के इसके बारे में सोचना शुरू करे, जैसाकि ये स्कूली बच्चे कर रहे हैं। सभी को इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है।


हम उम्र के एक पड़ाव पर आकर सोचते हैं कि अपनी जिंदगी का अहम हिस्सा जी चुके, अब हमारी जिम्मेदारी है कि अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए एक अच्छा और सवस्थ समाज छोड़ कर जाएं। लेकिन जब ऐसे विचार आपके सामने आते हैं तो यकीनन मन को इस बात से जूझना पड़ता है कि क्या आज भी हम अपने को औपनिवेशिक और सामंतवादी सोच से अलग कर पाए हैं या नहीं।


बचपन जीवन की मधुर अनुभूति है। हम जिंदगी के सफर में हमेशा चाहते हैं कि काश बचपन वापस आ जाए। मगर कूड़ा बीनने वाले बच्चे क्या कभी अपना बचपन वापस चाहेंगे? जब तक हम बच्चों के हाथों में औजार और रोजगार देकर गरीबी का निदान करने का प्रयास करेंगे, तब तक ना तो गरीबी समाप्त होगी और न ही बालश्रम। इन्हें सच्चे अर्थों में शिक्षा का अधिकार देना होगा।


कूड़ा बीनने वाले बच्चे अधिकतर ऐसी बीमारियों और संक्रमण का शिकार हो जाते हैं, जिसका इनके पास सही इलाज नहीं है। अधिकतर बच्चे या तो घर से भागे होते हैं या इनके माता-पिता के लिए इनका लालन-पालन कठिन होता है। कुछ समाज के उस सोच का भी शिकार होते हैं, जो बच्चों से कूड़ा उठवाना सही मानता है। जो भी हो, एक बात साफ है कि बालश्रम कानूनों में भी इन बच्चों का कोई चेहरा नहीं नजर आता। जब हम अपने आस-पास बच्चों को कूड़ेदान में अपना रोजगार या यों कहिए एक वक्त का भोजन ढूंढ़ता देखते हैं तो ऐसा लगता है कि तरक्की की चमक अभी हमारे समाज के एक हिस्से को छू भी नहीं सकी है।


जब तक देश का बचपन श्रम करने और उससे अपने परिवार को पालने में लगा रहेगा, तब तक बालश्रम से मुक्ति नहीं मिल सकती। अब भारत बालश्रमिकों के हित में लड़ने के लिए विश्वस्तरीय पुरस्कार का हकदार बना है। फिर भी हमारे आसपास बच्चे कूड़े में जीने का सहारा ढूंढ रहे हैं तो शायद हम सब के लिए यह बहुत शर्म की बात है। आइए, नए साल में इन बच्चों के लिए कुछ सोचें ताकि हमारा भविष्य कूड़ेदान में न जाने पाए।


ईमेल : drsyedmubinzehra@gmail.com


साभार -  जनसत्ता, 4 जनवरी 2015

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