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चिन्मय मिश्र केन्द्र की नई सरकार ने आते ही सारे देश को झकझोरना शुरू कर दिया है। जो कथित फैसले शताब्दियों से नहीं हो पा रहे थे वह उन्होंने क्षणों में ले लिए। इससे हमारी समझ में आ गया है कि अब हमारी भी खैर नहीं। वैसे नदी में कूद जाने के बाद सोचना कि तैरना आता है या नहीं अतिपराक्रमी और स्वयं ही मर मिटने वाले समुदाय की ही खुशफहमी हो सकती है। राष्ट्रीय स्तर की किसी भी योजना की घोषणा के समानांतर उसके क्रियान्वयन का ढाँचा भी तय हो जाना चाहिए। आधुनिक भाषा में संक्षिप्त में इसे डीपीआर और विस्तार में विस्तृत परियोजना रिपोर्ट कहा जाता है। लेकिन गंगा शुद्धिकरण अभियान/परियोजना की खुमारी उतरी भी नही थी कि जन-धन योजना आसमान से उतर आई। यह अभी ठीक से बैठ भी नहीं पाई थी कि मेड और मेक इन इंडिया का सिंह अपने कल पुर्जे को कड़कड़ाता हुआ हमारे घर में घुस आया। इसके रहने के लिए जल, जंगल, जमीन और पानी की व्यवस्था नहीं कर पाए थे कि झाड़ू लेकर राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान ने हमारा गिरेबान पकड़ लिया और कहा कि इस देश की सारी गन्दगी के लिए प्रत्येक आम आदमी जिम्मेदार है और जो व्यापक औद्योगिक प्रदूषण हो रहा है उसकी जिम्मेदारी भी आम आदमी पर ही है क्योंकि अडानी, अम्बानी, टाटा, बिल गेट्स, वालमार्ट, बोइंग आदि अंततः इसी आम आदमी के लिए तो उद्योग लगाते हैं। इसलिए अब उसे हर हफ्ते कम से कम 2 घंटे अपने अहाते के बाहर की सफाई करनी है। गाँधी जयंती से शुरू हुई इस मुहिम को एक हफ्ता हो गया है। वैसे भी किसी समस्या का समाधान सिर्फ नारे या वायदे और इससे भी आगे जाएं तो महज अच्छे इरादे से नहीं हो सकता। गंगा की सफाई में आ रही समस्याओं को स्वीकार कर उसकी दिशा में प्रयत्नशील होने के बजाए शहरों, कस्बों और गाँवों की सफाई की ओर ध्यान बटाना राजनीतिक तौर पर कुछ समय के लिए फायदेमंद हो सकता है, लेकिन दीर्घावधि में इसके प्रतिकूल परिणाम ही सामने आएंगे। नई सरकार ने पदग्रहण के बाद मनन, चिंतन और योजना निर्माण की ओर ध्यान न देकर पिछली सरकारों की तरह सिर्फ नारे और वायदे से उस राजनीतिक शून्य को भरने की असफल चेष्टा की है, जो कि पिछले तीस बरस से इस देश में विद्यमान है। अब नवीनतम राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान की बात करें। भारत में आबादी वाले क्षेत्रों में दो प्रकार के समुदाय गन्दगी की सफाई करते हैं। पारम्परिक रूप से सफाई करने वाले समुदाय को सामान्य तौर पर वाल्मीकि समाज कहा जाता है। इसका काम गन्दगी को बुहारना और उसे एक निश्चित स्थान पर डाल देना है। इसी के साथ इस समुदाय के तकरीबन 3 लाख लोग तमाम कानून बन जाने के बावजूद आज भी मानव मल को अपने हाथों से साफ करने का अमानवीय कार्य कर रहे हैं। हमारे अनेक नेताओं ने इस गाँधी जयंती पर प्रारंम्भ हुए स्वच्छता अभियान के अन्तर्गत इन्हीं वाल्मीकि बस्तियों में सफाई कर इस समुदाय को आईना दिखाने का “अविस्मरणीय“ कार्य किया है। इसी के समानांतर एक और समुदाय है जिसे हम कचड़ा बीनने वाला या “रेग या वेस्ट पिकर्स“ के नाम से पहचानते हैं। देश की सफाई का बोझ अपने कंधों पर डाले यह समुदाय सुबह से रात तक घूमता रहता है। कहीं इससे चोरों की तरह व्यवहार किया जाता है तो कहीं यह कचड़े के ढेर में अपने प्रतिद्वंदियों, कुत्तों और सुअरों के आक्रमण का शिकार होता है। इस समुदाय की दूसरी विशेषता यह है कि यह वाल्मीकि समुदाय की तरह न तो हमसे यानि व्यक्तिगत रूप से किसी से या पंचायत, नगर पालिका, नगर निगम, राज्य सरकार या केन्द्र सरकार से किसी भी प्रकार का कोई मानदेय प्राप्त नहीं करता है। सड़क पर पैदा होकर, सड़क पर अपनी आजीविका चलाने वाले इस समुदाय का सदस्य अक्सर लावारिस की तरह सड़क पर ही मर जाता है। यह समुदाय अपने काम से इस देश की हजारों करोड़ों रु. की बचत करता है या सरकारी खजाने में योगदान देता है। परन्तु इस पूरे स्वच्छता अभियान ने इस समुदाय का उल्लेख करना भी गवारा नहीं किया। गौरतलब है कि यह एक अत्यन्त गरीब, अशिक्षित और मुख्यतः ग्रामीण पलायनकर्ताओं का समुदाय है। इस काम की वजह से इनकी सेहत काफी खराब हो जाती है, इनमें बड़े पैमाने पर कुपोषण व्याप्त है। इस समुदाय के बच्चे नशाखोरी के शिकार हैं, लड़कियां व महिलाएं यौन शोषण की शिकार हैं और इनमें अब बड़ी संख्या में एड्स पीड़ित भी हो गए हैं। इसकी वजह नशाखोरी और यौन शोषण दोनों ही हैं। स्वच्छता अभियान के प्रवर्तकों को यह गलतफहमी है कि यह अभियान सिर्फ कचड़ा फैलाने वालों के कथित रूप से जागरूक कर देने से सफल हो जाएगा। कचड़ा बीनने वाला समुदाय ही राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान का तारणहार हो सकता है। एक मोटे अनुमान के अनुसार अकेले दिल्ली में एक लाख से ज्यादा लोग कचड़ा बीनने का काम करते हैं। दूसरा अनुमान कहता है कि दिल्ली और मुम्बई में संयुक्त रूप से तीन लाख से ज्यादा “रेग पिकर्स“ हैं और इनमें से एक लाख 20 हजार बच्चे हैं, जिनकी उम्र 14 वर्ष से कम है। दूसरी और जनसंख्या के आँकड़े बताते हैं कि देशभर में कुल 1 करोड़ 70 लाख बाल श्रमिक हैं और इनमें से करीब 12 प्रतिशत यानि 18 लाख बच्चे कचड़ा बीनने का काम करते हैं। इस संख्या को ध्यान में रखकर अनुमान लगाएं तो हमें पता लगता है कि 80 लाख से लेकर 1 करोड़ की जनसंख्या हमारे यहाँ कचड़ा बीनकर अपनी जीविका चलाती है। यानि वह हमारे फेके हुए पर जिन्दा है। इन बच्चों के बारे में अनुमान है कि वह 12 रु. से 50 रु. रोज कमाते हैं और यदि वयस्कों की बात करें तो वह 200-250 रु. तक कमा लेते होंगे। मगर ये एक करोड़ “आत्मनिर्भर“ लोग हमारे नीति-निर्माताओं के “राडार“ पर नहीं हैं, क्योंकि संभवतः वे उन मायनों में उपभोक्ता नहीं हैं, जिन मायनों में आधुनिक विकास उपभोक्ता को देखता है। वरना कोई और वजह नहीं है कि इस समुदाय के बारे में राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान मौन रहे। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि यह समुदाय “कचड़े से सोना बनाने“ वाले समूह की आँख की किरकिरी बना हुआ है। सोना बनाने वाले समूह ने शायद जान परकिन्स द्वारा लिखी पुस्तक “कंफेशन्स ऑफ एन इकॉनामिक हिट मेन“ का अत्यन्त ध्यानपूर्वक अध्ययन किया है, कि किस तरह अमेरिका ने सत्तर के दशक में सऊदी अरब में सफाई कम्पनियों को भेजकर कूड़े के प्रबन्धन के माध्यम से उस देश की पूरी अर्थव्यवस्था को कमेवेश अमेरिका के आधीन ला दिया। शायद अब हमारे यहाँ भी इनकी लॉटरी लग जाए? इसलिए इंदौर जैसे शहर कचड़ा कम्पनियों की लापरवाही के बावजूद उस पर कार्यवाही नहीं करते। पुणे नगर निगम की तारीफ की जाती है कि वह कचड़ा बीनने वालों के प्रति “संवेदनशील“ है। लेकिन वह भी अब यह पूरा कार्य निजी कम्पनी को दे देना चाहता है। इसके खिलाफ वहाँ की संस्था “स्वच्छ“ महाराष्ट्र उच्च न्यायालय गई। न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि “दीर्घकालीन अनुबन्ध हेतु कचड़ा बीनने वालों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।“ हम सब जानते हैं कि आधुनिक कचड़े का दो तिहाई वही होता है जो कि किसी वस्तु या खाद्य सामग्री की पैकिंग के रूप में प्रयोग में लाया जाता है। इसलिए महात्मा गाँधी के नाम व आदर्शों की दुहाई देकर शुरू की योजना के विचारकों को गाँधी के इस विचार पर ध्यान देना चाहिए, “सुनहरा नियम तो यह है कि जो चीज लाखों लोगों को नहीं मिल सकती, उसे लेने से हम भी दृढ़तापूर्वक इंकार कर दें। त्याग की यह शक्ति हमें एकाएक नहीं मिल जाएगी। पहले तो हमें ऐसी मन¨वृत्ति विकसित करनी चाहिए कि हमें उन सुख-सुविधाओं का उपयोग नहीं करना है जिनसे लाखों लोग वंचित हैं और उसके बाद तुरन्त ही, अपनी मनोवृत्ति के अनुसार हमें शीघ्रतापूर्वक अपना जीवन बदलने में लग जाना चाहिए।“ इसका सीधा सा अर्थ है कि आवश्यकता कचड़े का उत्पादन कम करने यानि व्यक्तिगत उपभोग कम करने की है। साभार : सर्वोदय प्रैस सर्विस 10 अक्टूबर 2014
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