अग्निकलम
स्वच्छ भारत अभियान एक जरूरी नीतिगत पहल है लेकिन इसके क्रियान्वयन के लिए सही ढांचा तैयार नहीं किया गया तो यह विफल भी हो सकता है। भारतीय मध्य वर्ग से यह उम्मीद करना एक बात है कि वे सड़को को गन्दा न करें, लेकिन असल समस्या तो कहीं और ही है। जब तक सभी भारतीय इस बात को लेकर सुनिश्चित नहीं हो जाते कि उन्हें गोपनीयता के साथ लघु या दीर्घ शंका से निवृत्त होने का अवसर मिलेगा, तब तक उनसे यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वो अपना कचरा डस्टबिन में ही फेकेंगे। इसके लिए भी यह आवश्यक है कि पहले पर्याप्त संख्या में शौचालय मुहैया कराए जाएं।
अगर हम आँकड़ों पर गौर करें तो वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक 20 फीसदी शहरी और दो तिहाई से अधिक ग्रामीण घरों में शौचालय नहीं थे और इन घरों के लोग शंका निवारण के लिए खेतों का रुख करते थे। मानव द्वारा मैला ढोना दुनिया के सबसे घृणित पेशों में से एक है। इस सिलसिले में 10 शीर्ष राज्यों की बात करें तो आश्चर्य नहीं कि उत्तर प्रदेश शीर्ष पर है। हालांकि पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों और तमिलनाडु के शहरी इलाकों में भी आश्चर्यजनक रूप से यह मौजूद नजर आता है। जम्मू कश्मीर के ग्रामीण इलाकों में भी हालात अच्छे नहीं है। वर्ष 2014 के विश्व स्वास्थ्य संगठन-यूनिसेफ के सर्वेक्षण में 10 ऐसे देशों की सूची सामने आई जिन्होंने सन 1990 के मुकाबले खुले में शौच के मामले में सबसे अधिक कमी के लक्ष्य हासिल किए थे। भारतीय उपमहाद्वीप की बात की जाए तो यहां खुले में शौच के मामलों में बांग्लादेश, पाकिस्तान और नेपाल ने सबसे अधिक सुधार किया था। भारत इस सूची में कहीं नहीं था। जबकि श्रीलंका का नाम इस सूची में इसलिए नहीं था क्योंकि वहाँ खुले में शौच के बेहद कम मामले सामने आते हैं। बांग्लादेश, पेरू और वियतनाम ने जहाँ इस क्षेत्र में काफी सुधार किया था वहीं सुधार का सबसे अप्रत्याशित आँकड़ा इथियोपिया से आया।
वर्ष 1990 से 2012 अथवा 2000 से 2012 के आँकड़ों पर गौर किया जाए तो यह साफ जाहिर होता है कि भारत को शामिल करने से दक्षिण एशिया के प्रदर्शन में गिरावट आई और ऐसा होना अब भी जारी है। एक संकेतक के रूप में देखें तो भारत को छोड़कर दक्षिण एशिया की 12 फीसदी ग्रामीण और शहरी आबादी खुले में शौच करती है। लेकिन चूंकि भारत में यह आँकड़ा 48 फीसदी है इसलिए उसे जोड़ते ही यह आँकड़ा 38 फीसदी पहुँच जाता है। वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो खुले में शौच में भारत का योगदान बढ़कर करीब 60 फीसदी हो जाता है। ऐसे में भारत में साफ-सफाई, खासतौर पर शौचालयों पर होने वाली चर्चा कम स्तब्ध करने वाली नहीं है। क्या कोई भी नीति निर्माता ऐसे लोगों से स्वच्छ भारत की उम्मीद कर सकता है जो खुद अपनी जिन्दगी में ऐसी बदनामी झेल रहे हों। जाहिर है इसका जवाब नकारात्मक ही होगा। उन लोगों के लिए तो यह एकदम सोच से बाहर की बात है जो देश के विभिन्न इलाकों में हाथ से मैला तो ढोते ही हैं, साथ ही जिनका निचली जाति से ताल्लुक रखने के लिए मजाक भी उड़ाया जाता है। इन चुनौतियों से निपटने के लिए हमें वित्तीय संसाधनों का तार्किक ढंग से आवंटन करना होगा और स्वच्छ भारत अभियान का तमाम स्तरों पर आकलन, सख्त निगरानी और मूल्यांकन भी करना होगा।
कार्यक्रम के क्रियान्वयन के अलावा हमें श्रम के सम्मान की भावना को लेकर जागरूक होना होगा और सामाजिक समता को और अधिक व्यापक बनाना होगा। नई पीढ़ी को विद्यालयीन शिक्षा के दौरान यही बताया गया था कि जब मोहनदास करमचन्द गाँधी ने कहा था की ‘करो पहले कहो पीछे’ तो उन्होंने वास्तव में मैला साफ किया था। कुल मिलाकर लब्बोलुआब यह है कि स्वच्छ भारत एक सही नीतिगत कदम है लेकिन अगर इसके क्रियान्वयन के लिए मजबूत ढांचा नहीं तैयार किया गया तो इसका विफल होना तय है। प्रधानमन्त्री को भी देश को साफ-स्वच्छ बनाने की अपनी योजना के प्रति जबरदस्त प्रतिबद्धता का प्रदर्शन करना होगा। यह अच्छी बात है कि देश में कुछ नगर निकाय ऐसे हैं जिनसे प्रेरणा लेकर यह काम शुरू किया जा सकता है। ऐसा ही एक उदाहरण है ओडिशा के गंजम जिले की बेरहामपुर नगर परिषद का वर्ष 2013-14 का बजट आवंटन।
इस आवंटन में कचरा इकट्ठा करने, ठोस कचरे के निस्तारण, नाली, सार्वजनिक शौचालय, जलापूर्ति, आवास, सड़क और पुल, स्ट्रीत लाइट, पार्क, आजीविका, बुनियादी ढांचा तथा परियोजना सहायता के लिए बजट शामिल था। नगर परिषद ने व्याख्या करते हुए कहा कि वह दस्तावेजों और आवंटन का सार्वजनिक खुलासा करना चाहती है ताकि उसमें नागरिकों की भागीदारी सुनिश्चित की जा सके। विकसित समाजों में ऐसी साझेदारी आम है।
इस साझेदारी के जरिए शहरी गरीबों, पानी, कचरा, नाली और सार्वजनिक शौचालयों आदि जैसी मूलभूत सेवाओं के लिए आवंटन बढ़ाने की बात भी शामिल है। इससे एक विकासात्मक बजट तैयार होगा और प्रभावी प्रबन्धन तथा जवाबदेही तय करने में मदद मिलेगी। अन्य स्थानीय सरकारों के लिए यह एक अनुकरणीय उदाहरण है। केन्द्र सरकार के नौकरशाहों को चाहिए कि वे निरन्तर ऐसे उदाहरणों को सामने लाएं और प्रधानमन्त्री के नजरिए को ठोस स्वरूप प्रदान करें।
साभार : प्रजातंत्र लाइव जनवरी 2015
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