जल की गुणवत्ता : शुचिता के व्यवहार का प्रभाव

ए.के.सेनगुप्ता

 

जल जीवन के लिए सर्वाधिक आवश्यक वस्तु है, लेकिन आज देश में उसके स्रोत घटते जा रहे हैं। आज देश की तात्कालिक जरूरत है सुरक्षित और ताजा जल-स्रोतों की।

अच्छे स्वास्थ्य की सुरक्षा और उसे बनाए रखने के लिए पेयजल और स्वच्छता-सुविधाएँ, मूल आवश्यकताएँ हैं। सभी लोगों के लिए जलापूर्ति और स्वच्छता उनके स्वास्थ्य और विकास-सम्बन्धी मुद्दों की दृष्टि से एक राष्ट्रीय चुनौती हैं। विभिन्न अन्तरारष्ट्रीय मंचों से समय-समय पर इसपर विचार-विमर्श हुआ है। यह सहस्राब्दी विकास-लक्ष्यों में भी शामिल किया गया है।

जल की गुणवत्ता का परिदृश्य

भूजल की गुणवत्ता में निरन्तर गिरावट आ रही है। कारण है भूवैज्ञानिक और मानवीय कार्यकलाप। कहा जाता है कि देश की 14 लाख 23 हजार बस्तियों में कुल लगभग 15 प्रतिशत कु-प्रभावित हैं रासायनिक स्रोत की विभिन्न गुणवत्ता-सम्बन्धी समस्याओं से, जैसे आरसेनिक की मात्रा की अधिकता, फ्लोराइड, नाइट्रेट और अन्य चीजों में खारापन।

मानवीय कार्यकलाप और जल की गुणवत्ता

भूजल के अनेक स्रोत, जैसे नदी और झील प्रदूषित हो रहे हैं बैक्टीरिया के कारण और रसायनों से, जिसमें ‘हेवी मेटल’ शामिल हैं और जिसने उन्हें मानवीय उपयोग के लिए असुरक्षित कर दिया है, उस समय तक जब तक उनका पर्याप्त शोधन नहीं होता, यह प्रदूषण रहता है। ज्यादातर अशोधित जलमल उद्योगों और शहरों की गन्दगी और कृषि रन ऑफ के परिणाम-स्वरूप होता है। उसकी दशा और बिगड़ी है नियम-कानून के लागू होने के अभाव में।

दिल्ली के पास से बहने वाली यमुना में 22 किलोमीटर की दूरी तक गिरता लगभग 1900 एम.एल.डी. अशोधित कचरा और 320 एम.एल.डी. औद्योगिक कचरा जल की गुणवत्ता को खराब कर देता है। यह आकलन निजामुद्दीन पुल और उससे आगे ओखला बैराज का है। नदी में पानी को शुद्ध करने की क्षमता कम है। कारण है प्रवाह की न्यून गति।

जल के प्रयोग का स्वरूप-शुचिता की परिकल्पना और स्वास्थ्य सम्बन्धी-व्यवहार

जल की खराब गुणवत्ता, निजी शुचिता के अभाव और पर्यावरण-सम्बन्धी प्रदूषण के कारण गैस-सम्बन्धी और दूसरी बीमारियाँ, शहरों और आस-पास की जगहों और ग्रामीण क्षेत्रों में होती हैं। बहरहाल, आर्थिक परिदृश्य में परिवर्तन के साथ-साथ परिस्थिति में बदलाव आ रहा है। आधारभूत स्वच्छता और जलापूर्ति से वंचित और कुछ असंगठित हिस्सों में रहने वाले लोग स्वास्थ्य-सम्बन्धी गड़बडि़यों के अधिक शिकार होते हैं।

कुछ चुने हुए राज्यों में ‘इंपैक्ट ऑफ इन्एडिक्वेट सेनिटेशन ऐंड पुअर लेवल ऑफ हाइजिन परसेप्शन ऐंड प्रैक्टिसेज ऑन कम्युनिटी हेल्थ’ पर एक अध्ययन में जो सुझाव दिए गए, वे हैं:-

1. संचालित प्रश्नों के उत्तर देने वाले शहरी लोगों को स्वास्थ्य और शुचिता-सम्बन्धी सोच के मामले में ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों की तुलना में ज्यादा अंक मिले।

2. बीमारियों के बार-बार होने पर साफ-सफाई और जानकारी का अच्छा असर पड़ा।

3. शुचिता-सम्बन्धी व्यवहार का पालन, उच्चतर और मध्यम वर्गीय आर्थिक गुटों में उच्चस्तरीय पाया गया।

4. देश में, खासकर, स्त्रियों में जन-स्वास्थ्य और शुचिता-सम्बन्धी धारणा साफ-सफाई और व्यवहार के मामले में सुधार लाने में महत्त्वपूर्ण तथ्य होती है।

5. घरेलू शौचालयों की व्यवस्था इस प्रकार की जाए ताकि मानव-मल का सुरक्षित और साफ तरीके से निस्तारण हो। संचारी बीमारियों के बारे में पर्याप्त जागरूकता हो, इसके लिए जनस्वास्थ्य और शुचिता-सम्बन्धी मुद्दों को लेकर अभियान चलाए जाएँ।

खतरे के आकलन का एक अध्ययन सन् 2006-2007 में हैदराबाद नगर में पेय जलापूर्ति के स्वास्थ्य-आधारित लक्ष्य पर किया गया था। उसमें यह पाया गया कि एक्यूट प्रकार के गैस्ट्रोइन्टेराइटिस की स्थिति प्रति एक हजार व्यक्तियांे में निम्नलिखित थी:-

 

क्षेत्र

झुग्गी-झोपड़ी

गैर-झुग्गी-झोपड़ी

कुल

आदिकमेट (24*7 जलापूर्ती)

5.58

3.31

4.15

मोइनबाग बड़ी मात्रा में जलापूर्ती

34.09

23.83

28.91

सेरिलिगमपल्ली रुक-रुक कर जलापूर्ती

33.92

15.41

21.84

कुल

25.56

13.80

18.62

 

अध्ययन के नतीजे

1. गैस्ट्रोइन्टेराइटिस की आवृत्ति कई गुना अधिक है, उन आँकड़ों की तुलना में, जो दिए गए थे जनस्वास्थ्य निगरानी से।

2. झुग्गी-झोंपड़ी वाले क्षेत्रों में, गैर-झुग्गी-झोंपड़ी इलाकों की तुलना में गैस्ट्रोइन्टेराइटिस की आवृत्ति लगभग दुगनी है।

3. स्रोत जल में प्रदूषण गैर-झुग्गी-झोंपड़ी वाले इलाकों मंे खतरे का बड़ा कारण है।

4. चौबीसों घंटे की जलापूर्ति गैस्ट्रोइन्टेराइटिस के खतरे में काफी कमी कर देती है।

पेयजल की गुणवत्ता की निगरानी

समय-समय पर पेयजल की गुणवत्ता की देखभाल एक संगठित कार्यक्रम है जनस्वास्थ्य की सुरक्षा का। कमियों की पहचान करके और समय रहते कार्यवाही करके किफायती कीमत पर स्वच्छता लाई जा सकती है।

नीरी (संस्थान) - द्वारा सन् 2005 में भारत के कुछ चुने हुए नगरों की अध्ययन रिपोर्ट सामने आई थी। उसे शहरी विकास मन्त्रालय ने कराया था। उसके अनेक नतीजे सामने आए। उनमें से कुछ नीचे दिए जा रहे हैं:

1. केन्द्रीय और प्लांट स्तर पर लगभग 56 प्रतिशत प्रयोगशाला-सुविधाएँ उपलब्ध हैं।

2. खामियों का पता लगाना और बर्बादी बचाव कार्यक्रम सिर्फ 35 प्रतिशत शहरों में चलाए जाते हैं। शेष 65 प्रतिशत में खामियों का पता लगाने का कोई कार्यक्रम नहीं है।

3. बैक्टीरिया से पैदा हुए प्रदूषण कई शहरों में किसी खास मौसम में उपभोक्ताओं में पाए गए।

4. पाँच वर्षों से 65 प्रतिशत में जलजनित बीमारियों की उपस्थिति पाई गई।

5. केवल 26 प्रतिशत शहरों में एस.डी.डब्ल्यू.क्यू. कार्यक्रम चल रहा है। कुल शहरों के शेष 74 प्रतिशत में (जिनका अध्ययन किया गया) एस.डी.डब्ल्यू.क्यू. कार्यक्रम नहीं है।

जल की गुणवत्ता को बेहतर बनाने के तरीके

आपूर्ति के स्तर को बेहतर बनाना और पेयजल की गुणवत्ता पर बराबर निगरानी रखना अत्यन्त अनिवार्य है। स्वास्थ्य मन्त्रालय इस मामले में रचनात्मक भूमिका निभा सकता है। निन्नलिखित तथ्यों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत हैः-

1. जरूरत है जल-मल शोधन को कानून की दृष्टि से अनिवार्य बनाने की। शुरू किया जा सकता है शहरी निकायों में हर महानगर, राज्यों की राजधानियों और प्रथम श्रेणी के शहरों में।

2. वर्षाजल-संरक्षण और भूजल-स्तर को बनाए रखना अनिवार्य है जल की रीचार्ज गुणवत्ता को बेहतर बनाने के लिए, विकास की प्रक्रिया उसका एक भाग होना चाहिए।

3. अपजल और भूजल के लिए पुनः प्रत्यावर्तन और पुनः प्रयोगों के लिए उत्साह-प्रोत्साहन योजनाएँ होनी चाहिए।

4. पर्यावरण-सुरक्षा से सम्बद्ध नियमों को लागू करने के स्तर को ऊँचा उठाने की जरूरत है।

5. सामुदायिक जलापूर्ति और स्वच्छता-सुविधाएँ, शुचिता व्यवहार-सम्बन्धी मुद्दे, जल की गुणवत्ता और जल के प्रयोग के लिए एकीकृत कार्यक्रम हो।

साभार : सुलभ इण्डिया दिसम्बर 2012

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