जब कम्पनियाँ तोड़ती हैं मानक और नियामक फेरते हैं मुँह

ऋचा मल्होत्रा

भारत में राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय इलेक्ट्रानिक और इलेक्ट्रिक कम्पनियाँ ई-कचरा प्रबंधन के मानकों का उल्लंघन कर रही हैं और नियामक अधिकारी उनके खिलाफ किसी प्रकार की कार्रवाई करने में नाकाम हैं। इस बारे में टाक्सिक लिंक नामक दिल्ली के एक पर्यावरणीय शोध और पैरवी समूह की 24 जून 2014 को प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है।

 

इस समय भारत में हर साल 27 लाख टन ई-कचरा पैदा होता है लेकिन इस समय पूरे देश में ई-कचरा इकट्ठा करने वाली 42 इकाइयाँ और उन्हें रिसाइकिल करने वाली 55 इकाइयाँ ही उपलब्ध हैं। उत्पादित ई-कचरे का एक बड़ा हिस्सा अनौपचारिक क्षेत्र सम्भालता है, जो कि अवैध तरीके से काम करता है और मानव जीवन और पर्यावरण को भारी जोखिम में डालता है।

इन्हीं अवैध क्रियाकलापों और सम्बन्धित जोखिम के कारण पर्यावरण और वन मन्त्रालय ने 2011 में ई-वेस्ट (मैनेजमेंट एण्ड हैंडलिंग) रुल्स अधिसूचित किया और उसे एक साल बाद यानी 2012 में लागू कर दिया। अधिसूचित करने और क्रियान्वित करने के बीच जो एक साल का समय दिया गया वह इसलिए था ताकि कम्पनियाँ उन नियामक नियमों को लागू करते हुए ई-कचरा प्रबंधन का ढाँचा स्थापित कर लें।

`टाइम टू रिबूट’ शीर्षक से प्रकाशित रिपोर्ट सन 2012-13 के बीच इकट्ठा की गई सूचनाओं के आधार पर ई-कचरा नियम (2011) के क्रियान्वयन पर नजर डालती है। टाक्सिक लिंक ने इस रपट की प्रमुख शोधकर्ता और वरिष्ठ प्रोग्राम कोआरडिनेटर प्रीति महेश बताती हैं, “हम यह देखना चाहते थे कि किस प्रकार इलेक्ट्रानिक कम्पनियाँ और राज्य प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड नियमों को लागू करने की कोशिश कर रहे हैं और वे (ई-कचरे के इंतजाम में) कितने कामयाब हैं।’’

इस रपट में टेलीकॉम, सूचना प्रौद्योगिकी और उपभोक्ता वस्तुओं के क्षेत्र की 50 प्रमुख कम्पनियों (19 राष्ट्रीय और 31 बहुराष्ट्रीय) पर गौर किया गया है। ई-कचरा नियम (2011) के तहत इलेक्ट्रानिक और इलेक्ट्रिकल उत्पादों की मैन्युफैक्चरिंग करने वाले, असेंबल करने वाले और बेचने वालों के लिए यह अनिवार्य है कि वे उत्पाद की मियाद पूरी होने के बाद उसे उपभोक्ता से वापस ले लें और उसे पर्यावरणीय लिहाज से सुरक्षित माहौल में रिसाइकिल करें।

इस रपट में कम्पनियों की रेटिंग उनकी वापस लेने की प्रणाली, वापस लेने के बारे में उपलब्ध सूचनाओँ और  देश में संग्रह केन्द्रों की संख्या के आधार पर की गई है। इसमें पाया गया है कि पचास में से 17 कम्पनियों ने “नियम के तहत अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की है।” इनमें से ज्यादातर कम्पनियाँ (11) सेलफोन कम्पनियाँ हैं। उनमें ब्लैकबेरी, एचटीसी, कार्बन, लेमन, मैक्स, माइक्रोमैक्स इंडिया, ओलिव, जोलो, जेन मोबाइल शामिल हैं। बाकी 15 कम्पनियों ने नियमों के पालन के लिए छोटा-मोटा कदम उठाया है।

सिर्फ छह कम्पनियाँ ऐसी मिली हैं- इनमें राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय दोनों हैं- जिनकी वेबसाइट पर ई-कचरा प्रबंधन के बारे में पर्याप्त सूचनाएँ हैं और उनके पास बेकार हो चुके उत्पादों को इकट्ठा करने की रणनीति और केन्द्र हैं। बाकी 11 कम्पनियों की कार्रवाई इन दोनों श्रेणियों के बीच में कहीं है। इन 50 में से कैनन इंडिया, लेनोवो, नोकिया और ओनिडा जैसी चार कम्पनियाँ ऐसी हैं जिनके पास पूरे देश में सौ संग्रह केन्द्र या ड्राप-इन केन्द्र हैं। बाकी 31 कम्पनियों के पास कुछ भी नहीं है।

बेअसर प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड

नियामक यानी राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और समितियों के पास यह अधिकार है कि वे ई-कचरे का प्रबंधन न करने के कारण कम्पनियों के प्रमाणीकरण को रद्द कर दें। लेकिन प्रीति ने इंडिया टूगेदर को बताया कि, “वे कुछ भी करने में असमर्थ रहे हैं। उल्लंघनकर्ताओं पर कोई कार्रवाई नहीं की गई है।”

प्रीति और उनके सहयोगी शोधकर्ताओं ने नियामक संस्थाओं की वेबसाइट पर जाकर देखा तो पाया कि 35 प्रदूषण बोर्ड और समितियों की साइट पर ई-कचरे के बारे में कोई सूचना नहीं है। बाकी 22 में से सिर्फ चार की साइट पर विस्तृत सूचना है जिसमें रिसाइकिल सुविधा की पूरी सूची है।

“वे बताती हैं कि हमने सूचना के अधिकार (आरटीआई) के माध्यम से यह जानने की कोशिश की कि उन्होंने किस प्रकार की प्रणाली विकसित की है और क्या उन्होंने ई-कचरे के नियमों का उल्लेख किया है। हमने उनसे पूछा कि क्या उनके राज्य में इन्वेंटरी यानी सम्पत्ति सूची (ई-कचरे की) तैयार की गई है, वहाँ कितने प्रकार की ई-कचरा इकाइयाँ लगाई गईं और उन्होंने कितने प्रकार के उत्पादकों को अधिकृत किया है।”

सात से ज्यादा राज्यों ने ई-कचरे का गहराई से विश्लेषण नहीं किया है। इनमें से 2011-2012 के दौरान पश्चिम बंगाल ने 34,124 मीट्रिक टन और आंध्र प्रदेश ने 4268.42 मीट्रिक टन ई-कचरा पैदा किया। रिपोर्ट के अनुसार सबसे ज्यादा ई-कचरा पैदा करने वाले राज्य कर्नाटक, जिसकी राजधानी बंगलुरू , सूचना प्रौद्योगिकी का केन्द्र है, के पास ई-कचरे के बारे में कोई सूचना उपलब्ध नहीं है। नियामकों की कमजोर कार्रवाई को देखते हुए प्रीति का कहना है कि ई-कचरा (मैनेजमेंट एण्ड हैंडलिंग) रूल्स 2011 कुछ बदलावों के साथ असरदार हो सकता है। कम्पनियों के लिए हर साल ई-कचरे के संग्रह का लक्ष्य निर्धारित करना अनिवार्य होना चाहिए। हर राज्य के शहरी और ग्रामीण इलाके में ई-कचरा संग्रह के केन्द्रों की संख्या को भी परिभाषित किया जाना चाहिए। प्रीति का कहना है, “हम देखते हैं कि संग्रह केन्द्र ज्यादातर बड़े शहरी क्षेत्रों में ही हैं और ग्रामीण इलाके आमतौर पर उपेक्षित हैं। हम सभी जानते हैं कि इलेक्ट्रानिक्स अब ग्रामीण इलाकों में भी जा रहे हैं।” उनका यह भी कहना है कि सभी प्रदूषण बोर्डों के पास अपने राज्य में उत्पादित होने वाले ई-कचरे की सूची होनी चाहिए।

इसके अलावा इस रपट में महज 50 राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय ब्राण्डों का आकलन किया गया लेकिन कई ऐसी स्थानीय कम्पनियाँ हैं जो इलेकट्रानिक और इलेक्ट्रिकल ब्राण्डों को बेच रही हैं लेकिन उनके नामों पर विचार नहीं किया गया है। प्रीति का कहना है कि देश में काम करने वाली ऐसी कम्पनियों की व्यापक सूची की आवश्यकता है ताकि उनकी निगरानी की जा सके।

ऋचा मल्होत्रा बंगलुरू निवासी फ्रीलांस पत्रकार हैं जो विज्ञान, प्रौद्योगिकी और पर्यावरण पर लिखती हैं।

साभार : इण्डिया टूगेदर वेबसाइट 18 जुलाई 2014

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