हमारे कचरे के लिए काफी नहीं यह झाड़ू

पूजा विजय राममूर्ति

एक भारतीय होने के नाते हम अपनी सड़कों के किनारे अक्सर कूड़े का ढेर, फुटपाथ में गहरे गड्ढे और दीवार पर पान की पीक देखते हैं। इसलिए जब प्रधानमन्त्री ने स्वच्छ भारत अभियान की घोषणा की तो हम सब खुश हो गए और लगा कि सार्वजनिक स्थलों की बुरी दशा में सुधार का यह उद्देश्य सफल होगा।

 

प्रधानमन्त्री मोदी और दूसरे लोग जिस तथ्य से नावाकिफ हैं वो यह कि मौजूदा सरकार से स्वच्छ भारत अभियान शुरू होने से पहले, तमाम नागरिकों के आन्दोलनों ने खामोशी लेकिन गम्भीरता से इस ज्वलंत मुद्दे को सम्बोधित किया। ऐसा ही एक संगठन जिसे महत्त्व मिला वह कुछ अनजान लोगों के समूह द्वारा चलाया जा रहा था। द अगली इंडियन (टीयूआई) डू इट योरसेल्फ (डीआइवाई) (स्वयं सेवा) आन्दोलन का अग्रणी बना। इसी तरह बंगलुरू में तकरीबन पाँच साल पहले शुरू हुआ- पॉजिटिव डिसरप्टिव एनार्किस्ट- आन्दोलन बहुत दूर तक भारत के तमाम शहरों में फैल गया। टीयूआई आन्दोलन के कदम चार सौ से ज्यादा जगहों पर पड़े जहाँ पर मोहल्ले के निवासियों ने कूड़े के ढेर को हटाने, उन दीवारों पर मूत्रालय बनाने जहाँ पर पुरुष पेशाब करते थे, फुटपाथ की गायब पटरियाँ लगाने और सार्वजनिक स्थलों पर कूड़ादान रखने की पहल की।

निकट अतीत में उन्होंने तूफान से तबाह हुए विशाखापत्तनम के पुनर्निर्माण में मदद की। यह अभियान पाकिस्तान के क्लीनिस्तान आन्दोलन के पीछे प्रेरक शक्ति भी थे। इस समूह के दो लाख फेसबुक समर्थक है और उनकी टेडएक्सटाक लोगों की प्रतिक्रियाओं के आधार पर सक्रिय रहती है। दरअसल टीयूआई शहरी युवाओं के बीच एक प्रकार की किवंदती बन गई। लेकिन एक बात जो उन्हें अन्य नागरिक समूहों से अलग करती है वो यह कि वे सफाई के मुद्दे के प्रबंधन में सरकार की भूमिका को कम करके आँकते हैं। यह बात एक बार और प्रकट हुई जब बहु चर्चित टूयूआई टेडएक्सटाक के दौरान वक्ता ने कहा, “सरकार से शिकायत मत करो, जाओ और उसे ठीक करो।”

हालाँकि यह अभियान एक तरफ लोगों में जोश भरता है और उन्हें बदलाव के लिए प्रेरित करता है वहीं इस प्रकार लाए गए परिवर्तन के टिकाऊपन के बारे में कई सवाल छोड़ देता है। क्या डीआइवाई (खुद करने) वाली पद्धति कूड़ा संकट का दीर्घकालिक समाधान निकाल पाएगी? क्या हम अपनी नगरपालिकाओं के प्रशासन में सुधार की गारंटी लिए बिना कूड़े की समस्या का हल निकाल सकते हैं?

डीआइवाई समाधान पूरे भारत में-

जब हम पूरे इलाके में लागू किए जा रहे डीआइवाई समाधान को देखते हैं तो पता चलता है कि इस बारे में मिली-जुली कामयाबी हासिल हुई है। फिर भी उपलब्धियों को मान्यता देनी होगी।

मैंने अपना आरम्भिक शोध बंगलुरू से शुरू किया जहाँ से टीयूआई संगठन की उत्पत्ति हुई। टीयूआई के काम को पहचान पाना आसान है क्योंकि जहाँ भी उन्होंने काम किया है वहीं दीवार को लाल कर दिया है और सीमाओं पर सफेद त्रिकोण बनाए हैं। दुखद बात यह है कि ऐसे तमाम स्थलों को कूड़ेदान बना दिया गया है। ऐसा मूलतः इसलिए है क्योंकि लैंडफिल की बाधाओं के कारण नगर पालिका के ठेकेदार इकटट्ठा किए गए कूड़े के कुछ हिस्से को शहर के खाली स्थलों पर फेंक देते हैं। अगर नागरिक इन स्थलों पर कूड़ा फेंकते हैं तो वह इसलिए क्योंकि घर-घर कूड़ा बटोरने की प्रणाली ठीक से काम नहीं कर रही है और पालिका इन स्थलों से कुछ समय के अंतराल पर कूड़ा इकटट्ठा करने के लिए राजी हुई है।

इस तरह की बदइंतजामी के कई कारण हैं और वे जटिल भी हैं। उन कारणों को हल करने के स्वतंत्र प्रयास व्यापक रूप से प्रकट हैं। हाल में शुरू हुई डेली डम्प नाम की कम्पनी लोगों को घरेलू स्तर पर ही कूड़ा साफ करने और डेली डम्प की कम्पोस्टिंग प्रणाली के इस्तेमाल करने को प्रोत्साहित करती है। कम्पनी का दावा है उसने पिछले आठ सालों से रोजाना 14 टन कचरा लैंडफिल में गिराए जाने को रोका है। हालाँकि बंगलुरू में रोजाना पैदा होने वाले 5000 टन कचरे के विशाल भण्डार में यह संख्या ऊँट के मुँह में जीरे जैसी ही है लेकिन यह स्वयं सहायता की बढ़ती संस्कृति का संकेत है।

डेली डम्प की इतिका गुप्ता का मानना है कि यह एक छोटी शुरुआत है लेकिन बंगलुरू जैसे भारतीय शहरों में कचरे की बढ़ती समस्या से निपटने के लिए नागरिकों की भागीदारी ही एक उपाय है। “जिस तरह से शहर का आधुनिकीकरण हो रहा है, नगर पालिका पैदा होने वाले कचरे को नहीं सम्भाल सकती। इसलिए कचरे को उसके स्रोत पर ही निपटाना होगा।”

सिर्फ बंगलुरू ही ऐसी जगह नहीं है जहाँ पर कचरा निस्तारण के स्वयं सेवा (डीआइवाई) मॉडल की चाहत में समूह और संगठन खड़े हुए हैं। मैकलाड गंज की दो महिलाओं ने वेस्ट वारियर के तौर पर 2009 में काम शुरू किया और वे अपना काम देहरादून, कार्बेट और धर्मशाला जैसे कई मशहूर पर्यटन स्थलों पर ले गए। इन स्थलों से साप्ताहिक कचरा इकट्ठा करने के लिए वे स्वयंसेवकों की नियुक्ति करते हैं जो कभी घर-घर जाकर तो कभी उनकी तरफ से स्थापित किए गए कूड़ेदानों से कूड़ा इकट्ठा करते हैं। उनके समाधान का प्रभावशाली पक्ष यह है कि वे एक दीर्घकालिक पद्धति अपनाते हैं जो यह सुनिश्चित करती है कि कचरा प्रबंधन का काम सिलसिलेवार चले, इस तरह प्रदूषित क्षेत्र को उनकी वास्तविक स्थिति में जाने से रोकता है। लेकिन यहाँ सावधानी वाली बात यह है कि अगर वेस्ट वारियर के पास कार्यकर्ताओं या कॉरपोरेट धन (जिस पर इस समय वे निर्भर हैं) की कमी होती है तो संगठन अपना काम नहीं कर पाएगा।

वातावरण नाम का एक दिल्ली का संगठन शहर के कचरा प्रबंधन में सक्रिय रूप से शामिल रहा है। उनका एक मुख्य कार्यक्रम स्कूलों, विश्वविद्यालयों और एनजीओ को कचरा प्रबंधन में शिक्षित करना है। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय समेत कई संस्थाओं को कचरा निस्तारण की प्रगतिशील पहल अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया है। उनके काम का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा इलाके का व्यापक अध्ययन और स्थानीय नागरिकों सहित कचरा बीनने वालों का प्रशिक्षण कार्यक्रम है। ऐसा किए जाने के बाद ही वे कचरा प्रबंधन समाधान को लागू करते हैं। इससे दिल्ली के कई इलाकों में सफाई का उच्च स्तर बना है।

वातावरण के संस्थापक डॉ. इकबाल मलिक का कहना है कि रिहायशी इलाकों में नागरिकों का विकेन्द्रित आन्दोलन टिकाऊ कचरा प्रबंधन का मार्ग प्रशस्त करेगा। वे कहती हैं, “कचरा इकट्ठा करने के लिए हमें पश्चिमी मॉडल की नकल नहीं करनी चाहिए। यह आवश्यक है कि हर परिसर अपने कचरे का स्वयं ही प्रबंधन करे। आवासीय कचरे के बारे में नगर पालिका की कोई भूमिका नहीं है। उन्हें दूसरे किस्म के कचरे जैसे कि साझा इलाका और औद्योगिक कचरे के बारे में चिन्ता करनी चाहिए। यह अकेला टिकाऊ मॉडल है जिस पर हम पिछले 15 सालों से काम कर रहे हैं।”

हालाँकि इकबाल मलिक इस बात की कट्टर समर्थक हैं कि अंतः वासी अपने कचरे का जिम्मा स्वयं सम्भालें लेकिन देखा जाना है कि क्या इसे राष्ट्रीय स्तर पर दोहराया जा सकता है।

क्या इसके लिए व्यवस्था दोषी नहीं है?

टीयूआई अपनी वेबसाइट पर कहता है- जो व्यवस्था 95 प्रतिशत कचरा ले जाती है उसे कोई श्रेय नहीं मिलता, बाकी पाँच प्रतिशत के कारण कुछ लोगों को गुस्सा आता है।‘’   

यह सही है कि व्यवस्था कचरे के बड़े हिस्से का निस्तारण करती है, लेकिन करीब से देखने पर लगता है कि वे इस काम को कुशलता पूर्वक नहीं कर रहे है। सैद्धांतिक तौर पर सिर्फ 10-20 प्रतिशत कचरा लैंडफिल में जाना चाहिए लेकिन ज्यादातर भारतीय शहरों में करीब 90 प्रतिशत कचरा लैंडफिल में जाता है। विशेषज्ञ लम्बे समय से चीख रहे हैं कि किस प्रकार छँटाई से कचरे की व्यापक समस्या का समाधान किया जा सकता है। हालाँकि आजकल ऐसे किसी भी वार्ड पर कोई कार्रवाई नहीं होती जहाँ कि अच्छी छँटाई नहीं की जाती।

हाल ही में एक लेख में पुष्पा मित्र भार्गव कहती हैं कि नगर पालिकाओं में शहर को साफ करने के लिए विशेषज्ञता की पूरी तरह कमी है। व्यवस्था भ्रष्टाचार में डूबी हुई है, जब किसी को कचरा उठाने का ठेका दिया जाता है तो उस काम की कोई निगरानी ही नहीं होती। इसके अलावा इस बात की कोई जवाबदेही नहीं है कि एक बार कचरा जमा हो जाने के बाद ठेकेदार उसे कैसे सम्भालेगा। लेकिन हमारे शहरी अधिकारियों की इस निराशाजनक स्थिति, अंतर्निहित भ्रष्टाचार और पारदर्शिता की पूरी तरह कमी के बीच निजी प्रयासों की सफलता के माध्यम से टीयूआई शहरी युवाओं को जो सन्देश दे रहा है वह आधा सच है। जहाँ स्थानीय सफाई से अस्थायी समाधान हो सकता है वहीं अगर हम अपनी नगरपालिकाओं में सुधार का प्रयास नहीं करेंगे तो हम बड़ी तस्वीर की अनदेखी करेंगे।

सार्वजनिक स्थल के बारे में लोगों के मौलिक रवैये को बदलना जरूरी है लेकिन उसी के साथ यह भी उतना ही आवश्यक है कि लोग हमारे पालिका अधिकारियों के बारे में कहीं आँख न मूंद लें और न ही उदासीन हो जाएँ।

हम सभी भारतीय विद्रूप नहीं

तमाम लोगों का मानना है कि भारतीय जहाँ भी बैठते उठते हैं वहाँ पूरी तरह गन्दा कर देते हैं, इस धारणा के विपरीत भारत के कुछ शहर उच्च स्तरीय सफाई का प्रदर्शन करते हैं। सूरत सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। इस शहर में कचरा निस्तारण के गन्दे तरीके के कारण 1994 में प्लेग फैला था। सूरत के बदलाव के पीछे दो नगरायुक्तों की प्रेरणा रही है। इनमें से एक थे सूर्यदेव रामचन्द्र राव, जिन्होंने अपने सफाई अभियान के कारण आसपास की स्थिति बदल दी।

राव जो कि एक आईएएस अधिकारी थे उन्होंने कठोर निगरानी प्रणाली विकसित की, नियम का पालन न करने वाले किसी भी व्यक्ति पर जुर्माने लगाए। आत्मगौरव की भावना जगाकर स्थानीय सफाई की संस्कृति को बदल दिया और स्थानीय नागरिकों में सफाई कर्मचारियों का आदर करना सिखाया। दूसरे नगरायुक्त थे एस. जगदीशन।

उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि राव ने जो प्रणाली बनाई है वह मजबूती पाए और पालिका के कोष की रक्षा की जाए। आज शहरी विकास मन्त्रालय के आँकड़ों के अनुसार सूरत देश का तीसरा सबसे स्वच्छ शहर है और कचरा निस्तारण का एक आदर्श नमूना है। सूरत नगर पालिका अपने खर्चे के बारे में नागरिकों को नियमित तौर पर बताती है, ताकि लोग जान सकें कि उनका कर कहाँ खर्च हो रहा है।

पुणे नगर पालिका (पीएमसी) का जीरो गार्बेज वार्ड का पायलट प्रोजेक्ट इतना सफल रहा कि वे इसे 11 अन्य वार्डों में ले जाने पर विचार कर रहे हैं। यह योजना पीएमसी, कचरा उठाने वालों की यूनियन स्वच्छ और महारट्टा चैम्बर ऑफ कामर्स एण्ड एग्रीकल्चर (एमसीसीआईए) की कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी शाखा जनवाणी के साझीदारी में है। इस परियोजना में कटराज वार्ड के 55,000 नागरिक शामिल हैं, इनमें से बहुसंख्यक झुग्गी और चाल में रहते हैं और उन्होंने कचरे के बारे में अपने नजरिए में बदलाव महसूस किया है। समाधान सरल था, स्रोत पर ही कचरे को पूरी तरह से अलग कर दो, घर-घर कचरा इकट्ठा करो और विकेन्द्रित कचरा प्रबंधन व्यवस्था लागू करो। आज कटराज से जो कचरा निकल रहा है वह पहले से 80 प्रतिशत कम है।

स्वच्छ की अपर्णा सुसरला कहती हैं , “सभी तरह के पक्षकारों के साथ काम करना बहुत महत्त्वपूर्ण है। सरकार और दूसरे एनजीओ से तालमेल बिठाना साझा उद्देश्य को पाने के लिए आवश्यक है। नीति के तौर पर हम नगरपालिका की कभी अनदेखी नहीं करते क्योंकि कचरा प्रबंधन की मूल जिम्मेदारी उन्हीं के पास है।”

सन 2012 में नागरिक समाज, एक्टिविस्ट, एनजीओ और सरोकार वाले नागरिकों ने हाई कोर्ट से बंगलुरू में `समन्वित ठोस कचरा प्रबंधन नीति’ के बारे में आदेश पारित करवा लिया। यह कानून कचरा प्रबंधन को विकेन्द्रित करने के बारे में लागू किया गया। इसके कारण 171 डीडबल्यूसीसी या शुष्क कचरा संग्रह केन्द्र कायम किए गए।

यहाँ बिना अलग किया हुआ कचरा बीबीएमपी के कर्मचारी लाते हैं और वहाँ कचरे को रिसाइक्लिंग के लिए अलग किया जाता है। हालाँकि डीडब्ल्यूसीसी की योजना स्रोत पर कचरा अलग न किए जाने के कारण बाधित होती है, लेकिन यहाँ कचरा संग्रह दिन-ब-दिन बढ़ रहा है। यह केन्द्र रोजाना पैदा होने वाले 200 टन कचरे में से पाँच फीसदी कचरा लैंडफिल तक ले जाने से रोकता है।

हसीरू डाला की नलिनी शेखर कहती हैं, कचरा प्रबंधन स्थिति को सुधारने के लिए नागरिकों की पहल पूरी तरह से महत्त्वपूर्ण है। नलिनी शेखर सरकार ने डीडब्लूसीसी को लागू करवाने में मुख्य भूमिका निभाई। आज वे बीबीएमपी के साथ एमओयू पर 34 केन्द्रों को चलाती हैं। नलिनी कहती हैं, लेकिन नगर पालिका के ढाँचे से अलग जाने का सवाल नहीं उठता। सरकार के समर्थन के बिना समस्या का समाधान दीर्घकाल में टिकाऊ नहीं होता। लेकिन वे उपयोगी होते हैं और वे दीर्घकालिक लक्ष्य वाले व्यापक नागरिक आन्दोलन बनें।

इसलिए हमें अपनी नगरपालिकाओं की भूमिका को खारिज करने से पहले सावधान होना चाहिए। आगे का रास्ता क्षमता निर्माण के साथ अपनी स्थानीय इकाइयों को मजबूती देने का है। इस पर ज्यादा निगरानी प्रणाली की भी जरूरत है ताकि हम जान सकें कि करदाताओं का धन कहाँ खर्च हो रहा है।

नगर पालिका के बोर्ड पर ऐसे विशेषज्ञों की सख्त जरूरत है, जो जानते हों कि सड़क कैसे बनती है और कचरा कैसे निपटाया जाता है। उपयुक्त नीतिगत समाधान के लिए उन संगठनों को शामिल किया जाना चाहिए जो कि नीतिगत शोध में शामिल हैं।

इसलिए सड़क पर झाड़ू लेकर निकलना आकर्षक लग सकता है और शहरी युवाओं के लिए यह लुभाना भी लग सकता है लेकिन महज इतना करने से स्वच्छ भारत नहीं बन जाएगा। कुछ छोटे कदम हैं जिन्हें नागरिकों को शुरू कर देना चाहिए जैसे कि स्रोत पर ही छँटाई, कम्पोस्टिंग और रिसाइक्लिंग। हालाँकि अगर हम वास्तव में स्वच्छ भारत चाहते हैं तो यह बहुत अहम है कि हम पूरी व्यवस्था में नीतिगत बदलाव करें और हर हिस्से को मजबूती प्रदान करें। तब तक हम चाहे जो कर लें लेकिन भारत गन्दा ही रहने वाला है।

 साभार : इंडिया टूगेदर, 11 दिसम्बर 2014

लेखिका बंगलुरू में एक नीति विश्लेषण थिंक टैंक के लिए काम करती है और कई नागरिक आन्दोलनों की सक्रिय सदस्य हैं।

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