आप की गंन्दगी साफ करने के लिए हमेशा कोई न कोई होता है। हाथ से मैला ढोने की जातिवादी और निंदनीय प्रथा के विरुद्ध कानून के बावजूद तमाम लोग उपेक्षा, वंचना और अपमान झेलते हुए अभी भी इस काम में अपने को लगाए हुए हैं। यहाँ पुष्पा अचंता मैला ढोने वालों और दूसरे सफाई कर्मचारियों के साथ होने वाले अन्याय की तरफ ध्यान खींच रही हैः-
24 जून 2014—
`` बीस दिनों तक फिल्म की शूटिंग करने से मेरी जीभ बहुत ज्यादा सूख गई। मुझे अपने स्कूली दिनों की याद आ गई जब मैं मदुराई जिले सरकारी हास्टल में रहती थी। उस समय मैं अपना प्रेशर रोक कर रखती थी क्योंकि स्कूल के शौचालय बेहद गन्दे हुआ करते थे।’’ यह बात प्रसिद्ध फिल्मकार अमुधान आरपी कहती हैं जिन्होंने `शिट’ (तमिल में पी) शीर्षक से 25 मिनट की पुरस्कार जीतने वाली डाक्यूमेंटरी बनाई।
शिट फिल्म मदुरई नगर निगम में मानव मल को उठाने के लिए नियुक्त मरियाम्माल नाम की एक सफाई कर्मचारी की दिनचर्या को बयां करती है। ऐसी महिलाओं को हाथ से मैला ढोने वाली कहाँ जाती है और वे आमतौर पर सामाजिक आर्थिक तौर पर हाशिए पर रहने वाले दलित समुदाय से जुड़े होते हैं। फिल्म में मरियम्माल की सरलता और साफगोई से लोगों को हंसी आ सकती है, लेकिन उनके जैसे लोग जीवन यापन के लिए जिस तरह का काम करते हैं वह मनोरंजक नहीं है। और हालांकि यह फिल्म 2003 में बनी थी लेकिन यह अभी भी प्रदर्शन के लिहाज से बेहद प्रासंगिक है और इसे पूरे देश में देखा जाता है और इस पर चर्चा की जाती है, भले ही सरकार ने हाथ से मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने का विधायी प्रयास किया है।
फिल्म बेहद कठोर ढंग से मरियम्माल की कहानी कहती है। उसकी दिन की शुरुआत मनुष्य और पशुओं के मल पर राख छिड़क कर उसे धातु की एक धारदार चादर से बटोरने के साथ होती है। कभी कभी मरियम्माल गन्दगी को उठाने के लिए झाड़ू, प्लास्टिक की डस्ट ट्रे या एल्यूमिनियम के बड़े बरतनों का इस्तेमाल करती है। वह अपनी नाक, आँख और पैर को ढकने के लिए दस्ताने, नकाब या एप्रेन वगैरह कुछ नहीं पहनती। ऐसा इसलिए क्योंकि नगर निगम उसे इनमें से कोई सुरक्षा उपकरण नहीं प्रदान करता।
पचास के ऊपर की मरियम्माल बताती है कि सफाई कर्मचारियों को सफाई सम्बन्धी पाउडर तभी दिया जाता है जब इलाके में किसी मन्त्री का दौरा होने वाला होता है।
वह डाक्यूमेंटरी में कहती है `` मैं यह काम 25 साल से कर रही हूँ। अपने सुपरवाइजर से बार-बार अनुरोध के बावजूद मेरा काम बदला नहीं गया , हालांकि उन्होंने इसके लिए कई बार वादा किया था। जरूरी कटौती के बावजूद मैं हर महीने 3000 रुपए घर ले जाती हूँ। इसके अलावा उसे किसी तरह की स्वास्थ्य सुविधा वगैरह नहीं मिलती।
व्यवस्था की बीमारियाँ—
क्या मरियम्माल जैसे लोग इस काम से अभी भी इसलिए जुड़े हैं क्योंकि वे निरक्षर हैं, गरीब और बूढ़े हैं और वे कोई वैकल्पिक रोजगार नहीं पा सकेंगे? या फिर ऐसा है कि वे लोग सामान्य तौर पर समाज और विशेषकर अपने नियोक्ता पर पर्याप्त दबाव नहीं डाल पाते, जो कि मानते हैं कि उनकी जाति और वर्ग की विशेषतौर पर महिलाएँ ही वो हैं जिन्हें इस तरह के अमानवीय कार्य करने चाहिए?
मरियम्माल का पति मदुरई नगर निगम में एक ड्राइवर था, जो कि शराबी होने के कारण जल्दी चल बसा। उसके छह बेटे हैं जो सभी दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम करते हैं। उनमें से दो सफाई कर्मचारी हैं, आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि उनका यह धंधा पीढ़ियों से चला आ रहा है।
गरीब महिला ने अपने दूसरे बेटे की शादी करने के लिए थेवर जाति के एक कर्जदाता से 10,000 रुपए उधार लिए थे। वहां के समाज में थेवर दबंग जाति होती है जो कि कर्द देती है और कर्जदार से ऊंचे ब्याज लेने के लिए मशहूर है। मरियम्माल भी अपना कर्ज हर महीने चुकाती थी जिसमें एक हजार रुपए महीने ब्याज होता था।
जिस वक्त यह डाक्यूमेंटरी बनाई गई थी, मदुरई नगर निगम में 2700 पूर्णकालिक सफाई कर्मचारी थे, जिनमें 90 प्रतिशत दलित और 35 प्रतिशत महिलाएं थीं। उनमें से ज्यादातर मलेरिया, अस्थमा , हैजा और कैंसर से पीड़ित रहते हैं।
लम्बे समय से मरियम्माल छोटे बच्चों से सड़क पर शौच न करने को कहती रही है। वह महसूस करती है कि परिवार के बड़ों को अपने बच्चों से कहना चाहिए कि वे वैसा न करें। कई बार तो वयस्क लोग भी सड़क पर शौच करते हैं हालांकि सार्वजनिक शौचालय उपलब्ध हैं और लोगों को उनके बारे में जानकारी होती है। लेकिन लोगों के सामने शौचालय इस्तेमाल करने के बारे में सामाजिक-सांस्कृतिक चुनौती को देखते हुए, निजी या सार्वजनिक किसी भी स्तर पर मरियम्माल की बात का ज्यादा असर नहीं पड़ा।
हालांकि यह एक मान्य तथ्य है कि घरों में शौचालयों की अनुपस्थिति लोगों के खुले में शौच करने के पीछे बड़ा कारण है। पेयजल और सफाई मंत्रालय की तरफ से चलाई जा रही निर्मल ग्रामीण योजना और ग्रामीण विकास और पंचायती राज मंत्रालय के वाश (वाटर एण्ड सैनिटेशन हाइजीन) अभियान के बावजूद सार्वजनिक शौचालय या तो नहीं हैं या अपर्याप्त हैं या खास समय में खुलते हैं या फिर इस्तेमाल करने लायक नहीं हैं। जहां पर सार्वजनिक शौचालय उपलब्ध हैं और खुले भी हैं वे हमेशा गंदे रहते हैं, बदबू करते रहते हैं और उनमें पानी, दरवाजे और लाइट ही नहीं है। इन वजहों से वे असुरक्षित हो जाते हैं, विशेषकर स्त्रियों और महिलाओं के लिए।
यह बात सामने आई है कि लड़कियाँ अपनी किशोरावस्था में शैक्षणिक संस्थाएं इसलिए छोड़ देती हैं क्योंकि उनके लिए सुरक्षित और साफ सुथरे शौचालय नहीं हैं। इस बीच किन्नरों के लिए तो बहुत ही मुश्किलें पेश आती हैं क्योंकि उन्हें न तो पुरुषों के शौचालयों में जाने की इजाजत होती है न ही स्त्रियों के। पर इनमें से कोई भी कारण खुले में या सड़क पर शौच का आधार नहीं बन सकता और न ही यह उम्मीद करना उचित है कि कोई और उनका मल उठाएगा।
कानून बनाम हकीकत-
हाथ से मैला उठाने वालों का नियोजन और शुष्क शौचालयों का निर्माण(निषेध) अधिनियम 1993 के तहत हाथ से मैला उठाने को प्रतिबंधित कर दिया गया था। हालांकि आवास और गरीबी उन्मूलन मंत्रालय के तहत आने वाले इस कानून ने हाथ से मैला साफ करने वालो के पुनर्वास को न तो अनिवार्य बनाया और न ही शुष्क शौचालयों की मौजूदगी के लिए राज्य सरकारों को जवाबदेह बनाया।
ठीक दो दशक बाद, सफाई कर्मचारी आंदोलन (एसकेए) की तरफ से तमाम जनहित याचिकाएं दायर की गईं। एसकेए हाथ से मैला उठाने की प्रथा की पूर्ण समाप्ति और सभी सफाई वाले व्यक्तियों और समूहों का सम्मानजनक तरीके से पुनर्वास करने के लिए समर्पित है। इस आंदोलन के कारण हाथ से मैला उठाने वालों के नियोजन और उनके पुनर्वास का अधिनियम 2013 पास हुआ।
जहाँ सामाजिक न्याय और सबलीकरण मंत्रालय की तरफ से बनाया गया नया अधिनियम हाथ से मैला उठाने वालों के मानवाधिकार और गरिमा पर विचार करता है वहीं यह पुनर्वास उपायों की जवाबदेही और उनके क्रियान्वयन के प्रति स्पष्ट तौर पर प्रकट नहीं है। हैरानी की बात है कि 2013 का कानून सफाई कर्मचारी को इस प्रकार संरक्षण प्रदान करता है कि वे हाथ से मैला ढोने वाली श्रेणी में दर्ज हुए बिना अपने काम को जारी रखें।
वास्तव में 1993 के कानून के तहत शुष्क शौचालयों का निर्माण या उनकी मौजूदगी अवैध है। दूसरी तरफ यह बात सर्वविदित है कि भारतीय रेलवे सफाई कर्मचारियों का सबसे बड़ा नियोक्ता है और इनमें से ज्यादातर सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर स्थित समुदाय से हैं और दलित हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि ट्रेन के डिब्बों में इस तरह के शौचालय होते हैं जो चलती या खड़ी हुई गाड़ियों में से मानवीय मल को एक छेद के माध्यम से रेल की पटरियों पर या नीचे की जमीन पर गिराते हैं। आखिर में यह क्या है, यह तो राज्य की तरफ से बनाए गए कानून को उसी की एक संस्था की तरफ से किया जा रहा खुला उल्लंघन है।
बाद की जाँच रपटों से पता चला है कि पिछले दशक में यूरेका फाब्स जैसी प्राइवेट कम्पनियों की तरफ से उनकी क्लीन ट्रेन स्कीम के तहत तमाम सफाई कर्मचारियों को ठेके पर नियुक्ति दी गई है। अक्तूबर 2012 में दिल्ली हाई कोर्ट ने रेलवे मन्त्रालय को आदेश दिया कि वह हाथ से मैला साफ करने के काम को समाप्त करने के लिए उसी साल के नवम्बर तक विस्तृत योजना बनाए लेकिन अदालत के इस हस्तक्षेप का असर क्या हुआ यह अभी स्पष्ट नहीं है।
लोग जितना सोच सकते हैं आज यह आचरण उससे कहीं ज्यादा व्यापक है। ``धार्मिक संस्थाओं के भीतर ज्यादातर लोग सद्भावना देने और दूसरे की देखभाल करने की बात करते हैं। हालांकि वास्तविकता में वे उन लोगों का समर्थन नहीं करते जो सरकारी और निजी संस्थाओं में व्यापक तौर पर प्रचलित हाथ से मैला साफ करने की प्रथा का विरोध करते हैं।’’ यह कहना है कि अनुपमा का। अनुपमा एक समुदाय की नेता हैं और कर्नाटक दलित महिला वेदिका की समर्थक हैं, यह व्यक्तियों और संगठनों का राज्यस्तरीय नेटवर्क है जो दलित महिलाओं और युवाओं के मानवाधिकार की वकालत करता है। अनुपमा ने अपने इलाके में धार्मिक संस्थाओं से जुड़े तमाम पुजारियों से इसलिए संपर्क किया कि वे हाथ से मैला उठाने की प्रथा का विरोध करें पर किसी प्रकार का सकारात्मक जवाब न मिलने से वे निराश हैं।
दिलचस्प बात यह है कि अनुपमा कर्नाटक के हुबली जिले में भारतीय रेलवे में क्लार्क के तौर पर नियुक्त हैं और कहती हैं कि उन्होंने अपने कार्यस्थल पर हिम्मत और समर्पण के साथ हाथ से मैला उठाने की प्रथा के खिलाफ सफलतापूर्वक आवाज उठाई। उसने कर्मचारी संगठन के माध्यम से हाथ से मैला उठाने की प्रथा का विरोध किया और यह सुनिश्चित किया कि रेलवे के स्थानीय दफ्तरों में हाथ से मैल उठाने की कोई जरूरत न रहे। अच्छी बात यह है कि उसे उसके नियोक्ता या तात्कालिक सुपरवाइजरों या सहयोगियों की तरफ से किसी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा।
हालांकि व्यापक और उच्च स्तर पर रेलवे की तरफ से अपने शौचालयों के बुनियादी डिजाइन को बदलने की कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखाई पड़ती। वैसे उसने 2006 से 2011 के बीच डिब्बों की गंदगी को नियंत्रित करने के लिए अलग प्रकार की प्रणाली विकसित की।
इन्सान से कमतर जिन्दगी—
मौजूदा स्थितियों में सफाई कर्मचारी पारंपरिक तौर पर वाल्मीकि, भंगी, चूड़ा, मेहतर, माडिगा और दलित समुदाय की अन्य उपजातियों से संबंधित हैं और वे अपमान और दुख की जिन्दगी जीते रहते हैं। भारत सरकार की सामाजिक न्याय और सबलीकरण मंत्रालय ने 2006 में यह घोषणा की कि देश में 7.73 लाख हाथ से मैला उठाने वाले लोग हैं, हालांकि एसकेए और दूसरे संगठनों के मुताबिक यह संख्या 13 लाख है। इनमें से प्रत्यक्षतः 3.42 लाख का पुनर्वास किया जाना है यानी उन्हें वैकल्पिक रोजगार दिया जाना है।
एसकेए के अनुसार तमाम राज्य सरकारों की तरफ से शुष्क शौचालयों के अस्तित्व और हाथ से मैला साफ करने वालों की मौजूदगी से लगातार इनकार करने के कारण इस घृणित व्यवसाय से जुड़े लोगों की वास्तविक संख्या का पता लगा पाना मुश्किल है।
विडम्बना यह है कि जहाँ समाज को इस तरह की निंदनीय प्रथा के जारी रहने पर शर्म नहीं आती वहीं वह इन लोगों को थोड़ी गरिमा प्रदान करने को तैयार नहीं है। आज भी उन लोगों को उन घरों में घुसने की इजाजत नहीं है जहाँ वे लोग काम करते हैं, वह काम जो रात या सुबह को किया जाता है और दूसरे लोगों को दिखाई नहीं पड़ता।
सीवेज ड्रेन की सफाई करने वाले और पूराकार्मिक भी सफाई कर्मचारियों की श्रेणी में आते हैं। पुनः यह लोग भी मुख्यतः उन दलित बिरादरी से सम्बन्धित हैं जो सीवेज की नालियों की सफाई में अपनी जान जोखिम में डालते रहते हैं। ऐसी तमाम घटनाएं हैं जहां ऐसे मजदूर मीथेन जैसी जहरीली गैसों की सांस लेने या दम घुटने से मर जाते हैं। पूर्व नौकरशाह हर्ष मंदर की किताब अनहर्ड वाइसेज की कहानियों पर आधारित अनसुनी नाम के बैले डांस, जिसकी नृत्यकल्पना सामाजिक कार्यकर्ता और मशहूर नर्तकी मल्लिका साराभाई ने की है और स्वयं सफाई कर्मचारी की भूमिका की है, बेहद मर्मस्पर्शी ढंग से प्रस्तुत करती है कि किस प्रकार मानव और पशुओं के मल के वितृष्णा पैदा करने वाले दृश्य और गन्ध उसे रोज तीव्र नशीली दवा लेने को मजबूर करते हैं ताकि वह सो सके।
ऊपर वाली स्थितयों से एकदम अलग पूराकार्मिक शहरी, अर्धशहरी और उपनगरीय इलाकों में सड़क साफ करता है और कूड़ा बटोर कर उसे अलग-अलग करता है। लेकिन वे भी जाति, वर्ग और लिंग आधारित अवरोधों का सामना करते हैं और अपने व्यवसाय की विचित्र चुनौती के साथ स्वास्थ्य वित्त और आजीविका के मुद्दों के लिए संघर्ष करते हैं। उदाहरण के लिए वे बैटरियों से निकलने वाले निकल, कैडमियम, सीसा, अमोनिया या दूसरी गैसों, सड़ी हुए या बासी खाद्य पदार्थों,सेनेटरी टावेल, मानव और पशुओं के बाल व गन्दे कपड़ों जैसी चीजों को छूने या उनके संपर्क में आने को मजबूर कर दिए जाते हैं।
इनमें से बहुत सारे तो कम वेतन पर ठेके पर नियुक्त होते हैं जो नियमित रूप से नहीं मिलता। हाथ से मैला उठाने वालों की तरह ही उन्हें भी अपने सुपरवाइजरों और उन लोगों से जिनके वातावरण को वे साफ करते हैं की तरफ से गरिमा और सम्मान की कमी से जूझना होता है।
बंगलुरू की एक पूराकर्मिका छाया मेरी(परिवर्तित नाम) कहती है,``अगर हम पीने के लिए पानी मांगते हैं तो हमें वह मग दिया जाता है जो कि बाथरूम में रखा होता है। हमारे लिए नित्यकर्म करने की जगह पाना आसान नहीं होता। यह सब तब होता है जब हम अच्छी तरह से कपड़े पहने होते हैं। हमारी सरकार से अपील के बावजूद हमें अभी भी कम और अनियमित वेतन मिलता है। हमारी गरीबी और कौशल की कमी हमें परिवार का पालन करने के लिए दफ्तरों में पहरेदार या घरेलू नौकर का अतिरिक्त काम करने को विवश करता है। यह नौकरियां सुरक्षित नहीं होतीं और इनमें न तो सामाजिक सुरक्षा का लाभ मिलता है और न ही पर्याप्त पेड लीव मिलती है।’’
आंध्र प्रदेश के अर्धशुष्क क्षेत्र अनंतपुर जिले से छाया नाम की एक दलित कर्मचारी ने कुछ साल पहले एक बेहतर जीवन की तलाश में अपने अस्थायी मजदूर पति और दो युवा बच्चों के साथ पलायन किया। हालांकि छाया जैसे लोगों के जीवन में सुधार तभी हो सकता है जब समाज और राज्य की संरचना में मौलिक बदलाव हो और दुखद रूप से वह अभी बहुत दूर है।
पुष्पा अचंता बंगलुरू की ब्लागर, लेखिका और विकास व मानव हित के मुद्दों की ट्रेनर हैं जिन्हें कविताएं लिखना, विरासत पर्यटन , नेचर की फोटोग्राफी और युवाओं को तैयार करने का शौक है। इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट बंगलूरू से 2013 में प्रकाशित किताब ``रिपल्सःद राइट टू वाटर एण्ड सैनिटेशन फॉर हूम’’ की प्रमुख लेखिका हैं।
साभार : इण्डिया टूगेदर वेबसाइट
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