गुरदे: मानव-शरीर का अत्यंत महत्त्वपूर्ण उत्सर्जी अंग

गुरदे मानव-शरीर के अत्यन्त महत्वपूर्ण अवयव हैं। वे शरीर के मल तथा खपत के पश्चात् अतिरिक्त जल को मूत्र-प्रणाली के द्वारा बाहर निकालते हैं। यानी वे मूत्रोत्पादक हैं। वे रक्त-निर्माण में मदद करते हैं, विशेषतः इसके महत्वपूर्ण घटक लाल रक्तकण के, एवं शरीर में यथोचित रक्त-चाप बना रहे, इसकी व्यवस्था करते हैं। ये शरीर में अस्थि-तंत्र को विटामिन ‘डी’ से सुदृढ़ रखते हैं, जो कैल्शियम को पचने में मदद करता है।

मानव-शरीर में दो गुरदे होते है, ये पीठ के मध्य में रीढ़ की दोनों ओर अवस्थित रहते हैं। दाहिने भाग का गुरदा बाएँ की अपेक्षा थोड़ा नीचे रहता है। इनका ऊपरी भाग अस्थि-पंजर के पीछे रहता है, ये पूर्णतः चर्बी की कई परतों से आच्छादित रहते हैं। प्रत्येक गुरदे की सतह नतोदर तथा उन्नतोदर होती है। उन्नतोदर भाग में गुरदे की धमनी प्रवेश करती है। तथा गुरदे की शिरा तथा मूत्रवाहिनी बाहर निकलती हैं। इनका आकार सेम के बीच की तरह होता है तथा इनका वजन लगभग 125 से 175 ग्राम के बीच होता है, स्त्रियों में वजन थोड़ा कम होता है। प्रायः बायाँ गुरदा दाहिने से आकार में थोड़ा बड़ा होता है । आकार में प्रत्येक गुरदा लगभग 12 से.मी. लम्बा, 6 से.मी. चौड़ा तथा 4 से.मी. मोटा होता है। ये प्रत्येक दिन रक्त के 200 र्क्वाट का निपटान करते हैं। ये शरीर के लगभग 2 र्क्वाट अपशिष्ट तथा अतिरेक जल का शोधन प्रतिदिन करते हैं। ये दोनों मिलकर मूत्र-निर्माण करते हैं। मूत्र, मूत्र-थैली में जमा होता है, जो गुरदे के नीचे, मध्य में अवस्थित होता है। मूत्र-थैली और गुरदे को जोड़ने वाली नली को मूत्रवाहिनी (यूरेटर) कहते हैं।

मानव-शरीर में संचालित होनेवाले तत्वों में रक्त की प्रधानता होती है। यह शरीर के अंदर विभिन्न अवयवों के खंडित द्रव्यों (क्रीटिनिन एक ऐसा ही अपशिष्ट है, जो मांस-पेशियों की कोशिकाओं के स्वाभाविक विघटन से उपजता है) और भोज्य तत्त्वों के पचने के बाद अपशेष को ग्रहण करता है। इन सभी पदार्थों के साथ यह गुरदों से होकर गुजरता है, जिनमें लाखों ‘फिल्टर’ लगे होते हैं, जिन्हें हम ‘नेफ्रोन्स’ कहते हैं। इनमें अत्यन्त पतली रक्त-नलिकाएँ तथा नन्हीं वाहिकाएँ होती हैं। पहला अवयव रक्त को छानता है, सामान्य कोशिकाओं तथा प्रोटीन को रख लेता है तथा बेकार जल और अपशिष्ट को वाहिकाओं में प्रेषित कर देता है। संचित रासायनिक द्रव्यों से, जो रक्त में वापस किए जाते हैं, प्रमुख होते हैं-पोटैशियम, फॉस्फोरस, सोडियम और ‘ऐलब्युमिन’ -जैसे प्रोटीन-युक्त द्रव्य।

जैसा कि पूर्व में बताया गया है रक्त शरीर के मुख्य संवाहकों में से एक है, जो शरीर को जीवन्त रखते हैं। इनमें एक प्रमुख तत्त्व प्रोटीन होता है। कोशिकाएँ आवश्यक मात्रा में इन्हें रखती हैं। तथा अपशिष्ट को रक्त में वापस छोड़ देती हैं। यह अपशिष्ट ही यूरिया कहलाता है। जिसमें नाइट्रोजन की प्रधानता रहती है। गुरदे इसे छानते हैं तथा मूत्र में डालते रहते हैं। सामान्य रूप से यूरिया का परिमाण रक्त के एक डेसीलीटर में 7 से 20 मिलीग्राम होता है।

गुरदे को इससे जुड़ी धमनियों से रक्त मिलता है, जो खंडीय धमनियों में बँट जाती है। हृदय से इन्हें कुल बहिर्गत रक्त का लगभग 20 प्रतिशत भाग प्राप्त होता है। छनने के बाद खंडीय धमनियों से रक्त गुरदे की शिरा में जाता है, जो गुरदे से बाहर निकलती है। मानव-शरीर के अधिकांश अवयवों की तरह ही गुरदे भी उनमें अवस्थित स्नायुओं तथा रक्त-वाहिकाओं के जटिल जाल के जरिए स्नायुतंत्र के सतत संपर्क में बने रहते हैं। अनुसंवेदी स्नायुतंत्र से प्राप्त संसूचन गुरदे में रक्त-वाहिकाओं का संकुचन उत्पन्न करता है, जिससे रक्त-प्रवाह में कमी आ जाती है। गुरदों से संसूचन मेरू-रज्जु में सीधे जाता है।

छानने, स्रावण, उत्सर्जन तथा पुनः अवशोषण की क्रियाओं के अतिरिक्त गुरदे लाल रक्तकण के निर्माण में मज्जास्थि (बोन मैरो) की सहायता करते हैं, जो एरिथ्रोपॉटिन नामक एक हार्मोन से मिलती है, जिस गुरदे छोड़ते हैं। गुरदों का एक दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य रक्त-चाप का नियन्त्रण करना है। यह रेनिन नामक हार्मोन के माध्यम से होता है। जब इसका स्तर ऊँचा होता है तो सोडियम क्लोराइड का पुनः समावेशन बढ़ जाता है, जिससे रक्त-चाप भी बढ़ता है। इसके विपरीत इसका कम स्तर रक्त-चाप घटाता है। कैल्सिट्रॉल नामक एक अन्य हार्मोन भी गुरदों से निकलता है, जो विटामिन डी का एक सक्रिय रूप है और यह रक्त में कैल्शियम के बेहतर विलयन एवं गुरदों में फॉस्फोरस के पुनर्विलयन में मदद करता है। गुरदों की बीमारी की हालत में रक्तक्षीणता (अनीमिया) होने लगती है, लाल रक्तकणों की संख्या घटने लगती है, ये कण ही शरीर में ऑक्सीजन का संचारण करते हैं।

गुरदों की बीमारी में नेफ्रन्स क्षतिग्रस्त होते हैं, जिससे अपशिष्ट को छानने का उनका सामर्थ्य घट जाता है। ऐसा देखा गया है कि सामान्यतया बीमारी दोनों गुरदों को ग्रस्त करती है। इन बीमारियों के आनुवंशिक कारण भी देखे गए हैं। इनके होने के दो मुख्य कारण मधुमेह तथा उच्च रक्त-चाप हैं। मधुमेह में ग्लूकोज, जो शर्करा का एक प्रकार है, रक्त में ही बना रहता है। जिसे स्वस्थ दशा में टूटते रहना चाहिए (ब्रेक डाउन)। ऐसा ग्लूकोज, जिसका  विलयन नहीं हो पाता, नेफ्रन्स को क्षति पहुँचाता है। रक्त में ग्लूकोज का स्तर नीचे रहने से मधुमेह के कारण होनेवाली गुरदे की बीमारी से बचाव होता है। इसी प्रकार उच्च रक्त-चाप गुरदे में अवस्थित छोटी-छोटी रक्त-वाहिकाओं को प्रतिकूल ढंग से प्रभावित करता है, जिससे अपशिष्ट को छानने की उनकी क्षमता घटती है। नेफ्रन्स का एक महत्त्वपूर्ण अंश ग्लूमेरूलस होता है, जो बहुत छोटी रक्त-वाहिका होता है। गुरदों की कुछ बीमारियों का इन वाहिकाओं पर बुरा प्रभाव पड़ता है, जिससे मूत्र में प्रोटीन की मात्रा बढ़ जाती है। इस प्रोटिन्यूरिया कहा जाता है। बीमार गुरदे अपशिष्ट से अल्बुमिन नामक एक रक्त-प्रोटीन को अलग नहीं कर पाते, जिससे मूत्र में वह जाने लगता है, इससे कभी-कभी मूत्र में रक्त दिखाई देने लगता है। जैसा पूर्व में उल्लेख किया है, क्रीटिनिन कोशिकाओं की सामान्य टूट-फूट के फलस्वरूप रक्त में विद्यमान् एक अपशिष्ट द्रव्य होता है। बीमार गुरदों के कारण रक्त में इसका परिमाण बढ़ने लगता है। इसी तरह स्वस्थ प्रोटीन के कोशिकाओं में विलयन के बाद बचा हुआ अपशिष्ट नाइट्रोजन से भरे हुए यूरिया के रूप में रक्त लौट आता है, जो मूत्र से बाहर निकल जाता है। बीमारी की स्थिति में यूरिया रक्त में ही बना रहता है। गुरदों की बीमारी के इन हालात में बायप्सी से जानकारी ली जाती हैं, इसमें गुरदों के ऊतक का अत्यंत छोटा टुकड़ा सर्जरी से काटकर बाहर निकाला जाता है, जिसकी माइक्रॉस्कोप से जाँच की जाती है। गुरदों में रसौली (सिस्ट) भी विकसित हो सकती है।

मधुमेह अथवा उच्च रक्त-चाप से प्रभावित गुरदों की बीमारी में, जिसके कारण अपशिष्ट छानने की उनकी क्षमता घट जाती है, रक्त ग्लूकोज नीचे रखने के लिए दवा दी जाती है, उच्च रक्त-चाप की हालत में एंजियोटेंसिन रूपांतरित करने वाले एन्जाइम अवरोधक अथवा एंजियोटेंसिन ग्राही ब्लॉक करने वाली दवा का उपयोग किया जाता है जिससे रक्त-चाप 130/80 के नीचे बना रहे (ऊपर वाला अंक रक्त-वाहिकाओं का सिस्टॉलिक दबाव (जब हृदय धड़कता है) तथा नीचे का अंक धड़कनों के बीच का डायस्टॉलिक दबाव कहा जाता है।)

अल्बुमिन तथा अन्य प्रोटीन-युक्त द्रव्यों एवं क्रीटिनिन के बढ़ने की स्थिति में मूत्र की जाँच की जाती है। इसके लिए एक डिपस्टिक का प्रयोग होता है, मूत्र में डुबाकर इसके रंग से वैसे द्रव्यों के होने की जानकारी मिलती है। क्रीटिनिन की सामान्य मात्रा एक डेसीलीटर खून में लगभग 1.7 मिलीग्राम होती है। रक्त-चाप तथा रक्त-शर्करा-स्तर नियंत्रित करने के साथ-साथ ज्यादा प्रोटीन तथा वसा-युक्त भोजन एवं ज्यादा नमक तथा पोटैशियम (आलू, केले, सूखे मेवे तथा गिरीदार फल या पदार्थ) से परहेज अपेक्षित होता है।

पुरानी बीमारी की हालत में सामान्यतया बार-बार पेशाब होना, थकावट, भूख की कमी, उल्टी, हाथ-पाँवों में सूजन, खुजली तथा सुस्ती, उनीदापन, चमड़ी काली होना, माँसपेंशियों की ऐंठन-जैसे लक्षण देखे जाते हैं। कभी-कभी कोई बच्चा एक ही गुरदा के साथ जन्म लेता है, परन्तु बड़ा होने पर वह स्वस्थ सामान्य जीवन जीता देखा गया है।

गुरदों के पूरी तरह तथा स्थायी रूप से निष्क्रिय हो जाने पर शरीर अतिरेक जल तथा अपशिष्ट से भरने लगता है, जिसे यूरेमिया कहते हैं। हाथ-पाँव सूज जाते हैं, थकावट और कमजोरी हो जाती है, क्योंकि शरीर के सामान्य कार्यकलाप के लिए ताजे रक्त की आवश्यकता होती है। आगे चलकर बेहोशी और मृत्यु भी हो सकती है। ऐसी हालत में डायलिसिस या गुरदों का प्रतिरोपण किया जा सकता है। डायलिसिस में एक खास तरह का फिल्टर या डायलाजर प्रयोग किया जाता है। जिससे होकर नलियों के जरएि रक्त प्रवाहित किया जाता है और जिससे अपशिष्ट अतिरेक नमक तथा जल छन जाता है। इस तरह साफ हुआ रक्त दूसरी तरफ की नलियों से शरीर में वापस किया जाता है। एक अन्य प्रकार के डायलिसिस में उदर में एक तरल घोल डाला जाता है, जिसमें रक्त के अपशिष्ट द्रव्य मिल जाते है। कुछ घंटों के बाद इसे एक कैथेटर से बाहर निकाल दिया जाता है। यह सब करने के लिए मशीन भी बनाए गए हैं। प्रतिरोपण की स्थिति में तत्काल मृत अथवा जीवित व्यक्ति गुरदा दान करता है, इसका प्राप्तिकर्ता के शरीर से पूरी तरह मेल खाना जरूरी होता है, अन्यथा शरीर की प्रतिरक्षक-व्यवस्था बेमेल गुरदे को अस्वीकार कर सकती है।

साभार : सुलभ इण्डिया, सितम्बर 2012

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