आरएस सिंह एवं वाईडी माथुर
भारत सरकार द्वारा संचालित संपूर्ण स्वच्छता कार्यक्रम के अंतर्गत अपजल का उचित निस्तारण एक प्रमुख घटक है। इस कार्यक्रम के अन्य घटक हैं-
(1) मानव-मल का निस्तारण,
(2) कचरे एवं गोबर का उचित निस्तारण,
(3) व्यक्तिगत स्वच्छता एवं शुद्ध पेयजल की उपलब्धता तथा रख-रखाव एवं
(4) खाद्य पदार्थों तथा गांव की स्वच्छता।
कार्यक्रम के प्रारंभ में मानव-मल के उचित निस्तारण हेतु स्वस्थकर शौचालय के निर्माण पर अधिक बल दिया गया था, परंतु अपेक्षित लाभ न मिलने के कारण इसके क्रियान्वयन की रणनीति में बदलाव किया गया, जिसके अनुसार-
1. गांवों में खुले में शौच की प्रथा को समाप्त करना।
2. अपजल एवं कचरे के निस्तारण को प्राथमिकता देना।
3. स्वास्थ्य के सिद्धांतों को अमल में लाना तथा उसका प्रचार-प्रसार करना।
4. उन लोगों को, जो स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित हैं, विशेष तौर पर महिलाओं, बच्चों, बुजुर्गों एवं विक्लांगों को समुचित स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराना।
5. ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों में आत्मविश्वास पैदा करना, जिससे कि योजनाओं का ग्राम स्तर पर भलीभांति क्रियान्वयन हो सके।
6. सामान्य वर्ग के जिन एजेंसियों का रुझान सार्वजनिक स्वास्थ्य तथा पर्यावरण में हो, उन्हें ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम से जोड़ने का प्रयास करना।
7. आवश्यक लक्ष्य प्राप्त करने हेतु व्यवसाय, शिक्षा एवं स्वयंसेवी संस्थाओं को कार्यक्रम से जोड़ना।
उपर्युक्त रणनीतियों को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार द्वारा संपूर्ण स्वच्छता कार्यक्रमों में तीन महत्वपूर्ण लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं-
1. वर्ष 2015 तक देश के सभी ग्रामीण क्षेत्रों में व्यक्तिगत अथवा सामुदायिक शौचालय की सुविधा उपलब्ध कराना।
2. ग्रामीण क्षेत्र के स्कूलों, कॉलेजों एवं सरकारी कार्यालयों में स्वच्छ शौचालय उपलब्ध कराया जाना।
3. वर्ष 2017 तक ग्रामीण क्षेत्रों में सभी लोगों द्वारा स्वच्छ शौचालयों का उपयोग सुनिश्चित करना।
4. बस-स्टैंड, पर्यटन एवं धार्मिक स्थलों पर स्वच्छ शौचालय उपलब्ध कराना।
5. उपलब्ध शौचालयों के उपयोग एवं रख-रखाव के साथ-साथ सेप्टिक टैंक तथा सोक-पिट की सफाई इत्यादि सुनिश्चित करना।
6. वर्ष 2020 तक सभी लोगों के लिए शौच के पश्चात् एवं खाने से पूर्व साबुन से हाथ धोना सुनिश्चित करना।
7. वर्ष 2022 तक खाद्य पदार्थों एवं पेयजल को साफ-सफाई से रखना।
8. ग्रामीण क्षेत्रों में कूड़े-करकट का उचित प्रबंधन।
9. ग्रामीण क्षेत्रों में अपजल का उचित प्रबंधन।
10. ग्रामों की साफ-सफाई।
अपजल के प्रबंधन के अंतर्गत इसे एकत्र कर गांव से दूर ले जाकर दूषित जल साफ कर पुनः प्रयोग में लाने के संबंध में कदम उठाया जाना सम्मिलित है। गांव के पर्यावरण को स्वच्छ रखने एवं बीमारियों से दूर रखने हेतु दूषित जल का उचित निस्तारण अत्यंत आवश्यक है।
भारत सरकार द्वारा उन ग्रामों को, जो खुले में शौच की प्रथा से मुक्त हो गए हैं, निर्मल-ग्राम-पुरस्कार से पुरस्कृत करना एक महत्वपूर्ण कदम है। ग्रामीण पेयजल योजना के अंतर्गत पाईप पेयजल योजना अथवा हैंडपंपों के माध्यम से अधिकतर ग्रामों में पेयजल की सुविधा प्रदान की जा चुकी है, जिसके परिणामस्वरूप गांवों में काफी मात्रा में अपजल पैदा होता है, जो गांवों की गलियों एवं सड़कों पर जहां-तहां इकट्ठा होता रहता है, जिसके कारण डायरिया, मलेरिया, डेंगू, हैजा तथा टाइफाइड जैसी बीमारियां पैदा होती रहती हैं।
गांवों में दो प्रकार के अपजल उपलब्ध होते हैं, जिन्हें क्रमशः ब्लैक वाटर और ग्रे वाटर के नाम से जाना जाता है।
गांवों में दो प्रकार के अपजल उपलब्ध होते हैं, जिन्हें क्रमशः ब्लैक वाटर और ग्रे वाटर के नाम से जाना जाता है। शौचालय से निकलने वाले अपजल को ब्लैक वाटर एवं स्नानघर तथा रसोईघर से निःसृत अपजल को ग्रे वाटर के नाम से जाना जाता है। ब्लैक वाटर में अनगिनत बैक्टीरियाध्वायरस होते हैं, जिसके कारण यह बहुत ही खतरनाक होता है, जबकि ग्रे वाटर में बैक्टीरिया या वायरस कम मात्रा में पाए जाते हैं, फलस्वरूप यह कम हानिकारक होता है। इस प्रकार ग्रे वाटर को ब्लैक वाटर की अपेक्षा कम लागत वाले तरीकों से साफ कर, पुनः प्रयोग के लायक बनाया जा सकता है। इस प्रकार से स्वच्छ पेयजल के उपयोग में कमी की जा सकती है।
शौचालय से निकलने वाले अपजल को ब्लैक वाटर एवं स्नानघर तथा रसोईघर से निःसृत अपजल को ग्रे वाटर के नाम से जाना जाता है। ब्लैक वाटर में अनगिनत बैक्टीरियाध्वायरस होते हैं, जिसके कारण यह बहुत ही खतरनाक होता है, जबकि ग्रे वाटर में बैक्टीरिया या वायरस कम मात्रा में पाए जाते हैं, फलस्वरूप यह कम हानिकारक होता है। इस प्रकार ग्रे वाटर को ब्लैक वाटर की अपेक्षा कम लागत वाले तरीकों से साफ कर, पुनः प्रयोग के लायक बनाया जा सकता है। इस प्रकार से स्वच्छ पेयजल के उपयोग में कमी की जा सकती है।
तकनीकी विकल्प अपजल को साफ-सफाई कर पुनः उपयोग में लाने योग्य बनाने हेतु कई विकल्प उपलब्ध हैं, परंतु तकनीक ऐसी होनी चाहिए, जो आम आदमी की समझ में हो तथा जिसके क्रियान्वयन में कोई कठिनाई न हो तथा बिना किसी तकनीकी विशेषज्ञ की सहायता से इसे क्रियान्वित किया जा सके।
उपर्युक्त बातों को ध्यान में रखते हुए निम्न तकनीकों के उपयोग पर विचार किया जा सकता है।
1. लीच पिट्स- यह बहुत ही सस्ती एवं अच्छी तकनीक है। लीच पिट्स के साथ कैच-पिट की भी आवश्यकता पड़ती है। कैच-पिट में घर से निकले अपजल को स्थिर कर पानी की गंदगी को कुछ हद तक दूर किया जा सकता है। साधारणतया एक लीच पिट, जिसका उपयोग 5 से 6 व्यक्ति करते हैं, का आयतन 0.75 मी. होता है। पिट का आयतन परिवार में रह रहे लोगों पर निर्भर करता है। सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए पिट के दीवार की मोटाई 100 मिमी रखी जाती है। यदि लीच पिट का आकार 1.5 मी. अथवा उससे अधिक हो तो पिट के ढक्कन का व्यास पिट के व्यास से 100 मिमी अधिक होना चाहिए। पिट का ढक्कन सामानयतया दो भागों में बनाया जाना चाहिए, जिससे सफाई हेतु पिट के ढक्कन को दो व्यक्ति आसानी से उठा सकें। कैच-पिट एवं लीच पिट की सफाई उचित समय पर होनी चाहिए। यह तकनीक गुजरात में बहुत प्रचलित है। इस प्रकार के पिट शहरों में, जहां पर सीवर प्रणाली उपलब्ध नहीं है, ज्यादातर घरों में पाया जाता है। यह विधि अन्य तकनीकों की अपेक्षा अधिक प्रचलित है। इस तकनीक का मुख्य लाभ है, सुगमता से निर्माण एवं रख-रखाव, जिसके कारण गंदे पानी से होने वाली बीमारियों से बचा जा सकता है। इस विधि से जल का संरक्षण भी होता है।
2. सोक पिट- सोक पिट भी लीच पिट की तरह काम करता है। सोक पिट लीच पिट की अपेक्षा अपजल को अधिक अच्छी तरह साफ करता है, जिससे जल-संरक्षण में बहुत अधिक लाभ होता है। सोक पिट भी लीच पिट की तरह बनाया जाता है। इसमें पिट की लाइनिंग की आवश्यकता नहीं पड़ती है, बल्कि पिट ईंटों अथवा पत्थर के बोल्डरों से भरा जाता है। बोल्डरों का आकार 50 मिमी से 150 मिमी तक होता है। बोल्डर तीन लेयर में भरे जाते हैं। सबसे नीचे 125 से 150 मिमी के बोल्डर, जिनकी मोटाई 250 मिमी होती है, रखे जाते हैं, उसके ऊपर द्वितीय लेयर (परत) में 100 मिमी से 125 मिमी आकार के पत्थर रखे जाते हैं। इस लेयर की मोटाई भी लगभग 250 मिमी होती है। अंत में सबसे ऊपर 50 मिमी से 75 मिमी साइज के बोल्डर रखे जाते हैं, जिसकी मोटाई 250 मिमी होती है। सोक पिट का रख-रखाव बहुत ही आसान होता है। इस प्रकार के पिट लगभग 6 से 7 वर्षों तक अच्छी तरह से कार्य करते हैं। इसके पश्चात इनके चोक (बंद) होने की शिकायत प्राप्त होती है। उस अवस्था में समस्त बोल्डरों को निकाल कर साफ कर लेते हैं तथा पिट की दीवार को खुरच कर साफ कर देते हैं। पिट को 2 से 3 दिनों तक खुला छोड़ देते हैं, जिससे मिट्टी के छिद्र खुल जाते हैं और पिट की सोखने की क्षमता बढ़ जाती है।
3. सामुदायिक व्यवस्था- अपजल एवं उसके निस्तार की सामुदायिक व्यवस्था के अंतर्गत सबसे अच्छा एवं सस्ता उपाय ग्राम में नालियों का निर्माण कर, उसे ऑक्सीडेशन पॉन्ड के द्वारा उपचार कर गांवों से दूर खेतों में सिंचाई हेतु उपयोग किया जा सकता है। इस प्रकार के योजनाओं के कार्यान्वयन हेतु एक विस्तृत योजना की आवश्यकता पड़ती है। गांव की गलियों एवं सड़कों के स्पॉट लेवल की आवश्यकता पड़ती है। सामुदायिक निस्तारण हेतु दो प्रकार की योजनाएं बनाई जा सकती हैं-
(क) खुली नालियां- इस प्रकार की योजना में नालियों का क्रॉस सेक्शन ट्रेपेजाइडल होता है, जिसके कारण नालियों में बहने वाले पानी को अपने आप स्वतः साफ करने की गति प्राप्त होती है।
खुली नालियों के कई लाभ हैं, जिनमें- (1) स्थानीय मिस्त्रियों द्वारा नालियों का निर्माण कराया जा सकता है, (2) खुली नालियों के रख-रखाव में आसानी होती है और (3) दिन में नालियों में अधिक जल प्रयोग के कारण पानी का बहाव अधिक होता है तथा रात को लगभग न के बराबर। इन नालियों की बनावट ऐसी होती है कि दिन एवं रात दोनों अवस्थाओं में उन्हें पानी को अपने आप स्वतः साफ करने की गति मिल जाती है। कभी-कभी स्थानीय गांव के लोग नालियों को अपनी सुविधा हेतु ढक देते हैं, जिसके कारण नालियों की सफाई ठीक तरह से नहीं हो पाती है। इस कारण नालियों में कीचड़ एवं कचरे के कारण मच्छर इत्यादि उत्पन्न होने लगते हैं। इस योजना के रख-रखाव में सबसे महत्वपूर्ण नालियों की लगातार सफाई है।
अपजल का निस्तारण छोटे साइज के सीवर-सिस्टम द्वारा भी किया जा सकता है। सीवर-पाईप जमीन की सतह से 60 सेमी नीचे डाली जाती है। पाईप साधारण कंक्रीट के बने होते हैं (बिना लोहे की सरियों के)। इस प्रकार के पाईप दो हिस्सों में बनाए जाते हैं। जब कभी भी सीवर चोक होता है, तब पाईप के ऊपर की मिट्टी हटाकर पाईप के ऊपर वाले भाग को अलग कर पाईप के कचरे एवं कीचड़ की सफाई की जाती है।
(ख) दूसरी प्रकार की योजना में खुले ड्रेन के स्थान पर कंक्रीट अथवा पीवीसी-पाईप का प्रयोग किया जाता है। वैसे पीवीसी-पाईप का प्रयोग उचित होगा, क्योंकि उसमें कम ढाल पर भी स्वयं साफ करने का वेग प्राप्त हो जाता है। योजना के रख-रखाव की लागत कंक्रीट-पाईप की अपेक्षा कम होता है।
सीवर-प्रणाली वर्ष 1971-72 में ग्राम-बंकी, ब्लॉक-जिला-बाराबंकी (उत्तर प्रदेश) में कार्यान्वित की गई थी। योजना प्रदेश सरकार की वित्तीय सहायता एवं विश्व स्वाथ्य संगठन एवं स्थानीय स्वशासन अभियंत्रण विभाग (जल-निगम) की तकनीकी सहायता के तहत थी। इस योजना के सफलीभूत होने का मुख्य कारण है कंक्रीट-पाईप का प्रयोग, जिसका निर्माण गांव में ही किया जा सकता है।
उत्तर प्रदेश के लखनऊ जिले के बंथरा ग्राम के अंबरपुर मजरे में वर्ष 1971-72 में एक और अपजल निस्तारण की योजना कार्यान्वित की गई थी, जो सफलतापूर्वक कार्य कर रही है। योजना के अंतर्गत घरों से अपजल सिल्ट कैचर के माध्यम से पीवीसी-पाईप द्वारा गांव से बाहर तालाब में ले जाया जाता है। चूंकि संपूर्ण योजना के अंतर्गत पीवीसी-पाईप ही लगाया गया है, अतः बाहरी कूड़ा-करकट पाईप में नहीं जा पाता है, जिसके फलस्वरूप योजना के रख-रखाव में काफी कमी आती है। इस योजना में भी जहां पाईप सड़क को पार करती हो, वहां पीवीसी-पाईप के स्थान पर सीमेंट-कंक्रीट के पाईप का प्रयोग किया जाना श्रेयकर होगा। दोनों प्रणालियों में ग्रामवासियों के सहयोग की बहुत आवश्यकता होती है।
अपजल का रूट जोन ट्रीटमेंट के माध्यम से उपचार
इस उपचार के माध्यम से रसोईघर एवं गुसलखाने (शौचघर) से निःसृत अपजल सेटलिंग टैंक में भेजा जाता है, जहां पर अपजल स्थिर होने के कारण कुछ हद तक साफ हो जाता है, इसके पश्चात् इस पानी को फिल्टर मीडिया, जिसमें महीन बालू, मोटा बालू, गिट्टी सम्मिलित है, से पास कराया जाता है, इसके पश्चात् यह पानी छिद्रवाले पीवीसी-पाईप के माध्यम से पेड़, पौधों और फूल की जड़ों में भेजा जाता है। इस प्रकार के उपचार में फिल्टर बेड में उपलब्ध रासायनिक एवं बायोलॉजिकल क्रिया से गंदा पानी काफी हद तक साफ हो जाता है। पौधों की जड़ से प्राप्त ऑक्सीजन से पानी में उपलब्ध ऑर्गेनिक पदार्थ, इनऑर्गेनिक पदार्थ में परिवर्तित हो जाते हैं। जब यह पानी फिल्टर माध्यम से गुजरता है तो हानिकारक जीवाणु काफी कम हो जाते हैं। जीवाणुओं की कमी फिल्टर बेड में उपलब्ध बालू के आकार एवं फिल्टर बेड की मोटाई पर निर्भर करती है।
इस प्रकार के प्लांट का रख-रखाव आम आदमी द्वारा किया जा सकता है। इसके लिए किसी विशेषज्ञ की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
1. सेटलिंग चैंबर की सफाई हफ्ते में एक बार होती है।
2. फिल्टर की सफाई प्रायः महीने में एक बार होती है।
3. पीवीसी-पाईप की सफाई साल में एक बार की जाती है।
इस प्रकार के ट्रीटमेंट से 60 प्रतिशत पानी की बचत फूल एवं पौधों की सिंचाई के उपयोग में लाकर कर ली जाती है।
साभार : सुलभ इंडिया
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