गांवों की स्वच्छता का सवाल

सरकार चूंकि अपने विकास की प्राथमिकतायें खुद तय नहीं कर रही है, अब उसका पूरा ध्यान बाजार के लिए सुविधाएं विकसित करने पर है इसीलिए जमीनी समस्याओं और सरकार के प्रयासों के बीच मेल नहीं बैठ पा रही है। यह भी एक ऐसा मुद्दा है जिस पर अधिकारी योजनाएं तो बना रहे हैं किंतु राजनैतिक प्रतिबद्धता का कहीं नामो-निशान नजर नहीं आता है और जहां तक स्वैच्छिक संस्थाओं की भूमिका की बात है, तो अफसोस इसका है कि उन्होंने निगरानी करने और सरकार को जवाबदेह बनाने की बजाए स्वयं ही शौचालय बनाने वाले ठेकेदारों की भूमिका निभाना शुरू कर दिया।

एक प्रयोग ने बदल दिया जीवन

शिवपुरी के गुगवारा गांव में सफाई-स्वच्छतापूर्ण व्यवहार शामिल करने के उद्देश्य से जागरूकता के प्रयास किए गए। एक मर्तबा ऐसे ही एक जागरूकता कार्यक्रम के दौरान सामाजिक कार्यकर्ताओं ने गांव के आदिवासियों के सामने एक बालक को मानव मल से स्पर्श करा कर पीने के पानी के एक गिलास में डुबो दिया। कोई भी व्यक्ति उस पानी को पीने के लिए तैयार नहीं हुआ। होता भी कैसे? फिर यह चर्चा हुई कि जब यह पानी नहीं पिया जा सकता है तो फिर जब मक्खी मानव मल पर बैठ कर हमारी खाने की वस्तुओं और पानी को दूषित कर देती है तो वह पानी कैसे पिया जा सकता है? इस चर्चा ने गुगवारा के सबसे पिछड़े हुए आदिवासी माने जाने वाले सहरिया परिवारों को जीवन व्यवहार बदलने के लिए मजबूर कर दिया। मल-निपटान के लिए सभी 48 परिवारों ने बेहतर व्यवस्था बनाने के उद्देश्य से गड्डे खोदे। यहां प्रशासन ने उन्हें यह आश्वासन दिया था कि कुछ दिन स्व-प्रेरणा और श्रमदान से यह व्यवस्था बनाएं फिर समग्र स्वच्छता अभियान के अंतर्गत उन्हें पक्के शौचालय बनाने के लिए शासकीय अनुदान दिया जायेगा।

सरकारी लापरवाही से उत्साह ठंडा पड़ता है

चार माह गुजर गए और आदिवासियों द्वारा खोदे गए गड्डे भी भर गए पर सरकार इस निर्मल ग्राम की तरफ रूख करना भूल गई। अब यह मान लेना जरूरी है कि स्वच्छता से ही स्वास्थ्य का अधिकार भी जुड़ा हुआ है। यदि यह विचार लागू नहीं हो पाया तो इसका दूसरा अर्थ यह है कि वंचित परिवारों के स्वास्थ्य के बुनियादी अधिकार का हनन हुआ है।

खुले में शौच से मप्र में सालाना 11 हजार लोग मरते हैं

उल्लेखनीय है कि अस्वच्छता और खुले में शौच व्यवस्था से मध्यप्रदेश में हर वर्ष 11 हजार मौतों का कारण बनती है। 11 लाख प्रकरण मलेरिया और 30 लाख प्रकरण डायरिया जैसी बीमारी के सामने आते हैं। बीमारियों के कारण सामाजिक अर्थव्यवस्था पर जबरदस्त बोझ पड़ता है। जब किसी गरीब परिवार के व्यक्ति पर इस तरह की बीमारी का आक्रमण होता है तो न केवल उस पर इलाज का बोझ पड़ता है बल्कि रोज कमाकर पेट भरने की जद्दोजहद करने वाले ऐसे परिवारों को भूखे भी रह जाना पड़ता है। और बीमारी की पीड़ा से शुरू हुई प्रक्रिया गरीबी के मकड़जाल को और ज्यादा महीन बना देती है।

भरोसे की दीवार दरक रही है

गुगवारा में भी पिछले साल मलेरिया, डेंगू, डायरिया के कारण लगभग हर आदिवासी परिवार बीमार पड़ा था इसलिए स्वच्छता का उपाय उन्हें बेहद रास आया पर गरीबी के कारण वे इस उपाय को अपने संसाधनों से लागू नहीं कर सकते हैं। ऐसे में उन्हें सरकारी सहायता की दरकार तो होती है परंतु अब विश्वास टूटने जैसी स्थिति है। मसला केवल एक परिवार का नहीं है शिवपुरी में हुई गरीबी की रेखा जनगणना के आंकड़ों से पता चलता है कि जिले के 238493 परिवारों में से 228839 परिवार तो खुले में ही शौच जाते हैं जबकि दूसरी ओर गंभीर खाद्य असुरक्षा के बीच जीवनयापन करने वाले ये आदिवासी एक वर्ष में 1903 रूपए स्वास्थ्य की समस्याओं पर खर्च करने के लिए मजबूर होते हैं। सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था तो लगभग ध्वस्त हो चुकी है। वहां चिकित्सक ज्यादा से ज्यादा नब्ज देख, धड़कने गिन कर पर्चे पर दवाइयाँ तो लिख देता है पर जांच और दवाइयों के लिए तो दुकानदारों के पास ही जाना पड़ता है।

स्वास्थ्य, स्वच्छता सरकार की प्राथमिकता में नहीं है

मध्यप्रदेश के संदर्भ में स्वास्थ्य और स्वच्छता के सवालों को विकास के लिए सबसे बड़ी चुनौती माना जाना चाहिए क्योंकि कमजोर और बीमार शरीर विकास की प्रक्रिया में बहुत उत्पादक भूमिका नहीं निभा सकता है। पर अफसोस तो यह है कि सरकार के लिए स्वास्थ्य और स्वच्छता प्राथमिकता के मुद्दे नहीं हैं और इनके प्रति कोई राजनैतिक प्रतिबद्धता भी नजर नहीं आती है। समग्र स्वच्छता अभियान के खराब हश्र के लिए कोई मुहावरा या मिसाल भी अब नहीं मिल पा रही है। शिवपुरी जिले मे पिछले वर्ष (वर्ष 2006-07 में) मे यह लक्ष्य तय किया गया था कि गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले 28653 परिवारों को व्यक्तिगत स्वच्छ शौचालय बनाने के लिए आर्थिक मदद दी जाएगी किंतु वर्ष बीत गया और केवल 3405 (11.88 प्रतिशत) परिवार ही सरकारी प्रक्रिया से गुजर कर लाभ हासिल कर पाए। सामान्य परिवारों की स्थिति तो और भी बुरी है। केवल 4.01 प्रतिशत सामान्य परिवारों को ही अभियान में मदद मिल पाई।

वास्तव में निर्णय लेकर सोच को क्रियान्वित करने की प्रक्रिया अब भी बहुत जटिल है। पंचायतों को गांव के जरूरतमंद परिवारों की सूची बनाने का ही अधिकार है। आर्थिक संदर्भों में अंतिम निर्णय तो लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी और जिला प्रशासन के नौकरशाह ही लेते हैं। आज की स्थिति में भी, जबकि जवाबदेह शासन व्यवस्था बनाने की पुरजोर कोशिशें चल रही हैं, बिना 20 प्रतिशत राशि का कमीशन चुकाए विकास की प्रक्रिया टस से मस नहीं होती है। और चूंकि पंचायत प्रतिनिधियों को कागजी अधिकार तो मिले हैं किंतु सामाजिक-राजनैतिक ताकत अब भी उन्हें नहीं सौंपी गई है, तो ऐसे में वे अफसरशाहों के सामने सिर झुकाए खड़े गुलाम से ज्यादा कुछ नहीं हैं।
आंकड़े बुरे हैं, पर सरकार को इससे क्या?

आज का समय सूचना के अधिकार और पारदर्शिता का समय है। माना यह जाता था कि जब सूचनाएं सरकारी नकाब से बाहर आएंगी तो व्यवस्था का असली चेहरा सामने आएगा और प्रशासन या क्रियान्वयन एजेंसिया चाक-चैबंद होंगी, परन्तु लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग को यह बताने में कोई हिचक नहीं हो रही है कि हाल ही में समाप्त हुए 2006-07 के वित्तीय वर्ष में जहां 3311313 शौचालय (गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले परिवार) बनाने के लिए सहयोग देने का लक्ष्य तय किया गया था उसमें से केवल 20.21 फीसदी यानी 669320 व्यक्तिगत शौचालय बनाने का ही लक्ष्य पूरा किया जा सका। यह भी सरकारी आंकड़ा है यदि इनका कभी सामाजिक अंकेक्षण कराया जाए तो पता चलेगा कि भ्रष्टाचार की दर के अनुरूप आधे शौचालय तो अफसरों और भ्रष्ट प्रतिनिधियों की जेब में पहुंचे हैं।

भारतीय शासन व्यवस्था में बच्चे तो आज भी कतार में सबसे पीछे खड़े हुए हैं। वर्ष 2005 में लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग ने यह दावा किया था कि 31 मार्च 2006 तक प्रदेश के हर स्कूल में स्वच्छ शौचालय की व्यवस्था होगी तब मध्यप्रदेश के 56583 स्कूलों में शौचालय ही नहीं थे।

एक जागरूकता कार्यक्रम के दौरान सामाजिक कार्यकर्ताओं ने गांव के आदिवासियों के सामने एक बालक को मानव मल से स्पर्श करा कर पीने के पानी के एक गिलास में डुबो दिया। कोई भी व्यक्ति उस पानी को पीने के लिए तैयार नहीं हुआ। होता भी कैसे? फिर यह चर्चा हुई कि जब यह पानी नहीं पिया जा सकता है तो फिर जब मक्खी मानव मल पर बैठ कर हमारी खाने की वस्तुओं और पानी को दूषित कर देती है तो वह पानी कैसे पिया जा सकता है? इस चर्चा ने गुगवारा के सबसे पिछड़े हुए आदिवासी माने जाने वाले सहरिया परिवारों को जीवन व्यवहार बदलने के लिए मजबूर कर दिया। मल-निपटान के लिए सभी 48 परिवारों ने बेहतर व्यवस्था बनाने के उद्देश्य से गड्डे खोदे

परन्तु 31 मार्च 2007 भी बीत चुका है और 20974 स्कूलों में अब तक शौचालय नहीं बन पाए हैं। इतना ही नहीं 9343 स्कूलों के शौचालय जर्जर और अस्वच्छ स्थिति में हैं। स्कूलों की जब कल्पना की जाती है तब यह माना जाता है कि वहां एक शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ नागरिक का निर्माण होता है किंतु मध्यप्रदेश के 21 हजार स्कूलों के 36 लाख बच्चों को तो शौचालय की सुविधा ही नसीब नहीं हो रही है।

 

आंगनबाड़ी केंद्रों में भी नहीं हैं शौचालय

आंगनबाड़ी कार्यक्रम (एकीकृत बाल विकास सेवायें) छह वर्ष की उम्र तक के बच्चों के विकास और संरक्षण के लिए चलाई जाने वाली एकमात्र योजना है और बच्चों को स्वच्छ रखना और स्वच्छता का व्यवहार सिखाना इसका बुनियादी उद्देश्य है किंतु राज्य की 49787 आंगनबाडि़यों में से 37457 आंगनबाडि़यों (यानी 75.3 फीसदी) में भी बच्चों के लिये स्वच्छ शौचालयों की व्यवस्था नहीं है। बीते वर्ष में सरकार ने इनमें से 6923 आंगनबाडि़यों में स्वच्छ शौचालय बनाने का लक्ष्य किया था, पर बने कुल 2309 । वास्तव में लक्ष्य तय करने के मामले में तो राज्य बहुत सम्पन्न है किंतु लक्ष्य पूरे करने के मामले में सबसे गरीब। सरकार चूंकि अपने विकास की प्राथमिकतायें खुद तय नहीं कर रही है, अब उसका पूरा ध्यान बाजार के लिए सुविधाएं विकसित करने पर इसीलिए जमीनी समस्याओं और सरकार के प्रयासों के बीच मेल नहीं बैठ पा रहा है। यह भी एक ऐसा मुद्दा है जिस पर अफसर योजनाएं तो बना रहे हैं किंतु राजनैतिक प्रतिबद्धता का कहीं नामो-निशान नजर नहीं आता है और जहां तक स्वैच्छिक संस्थाओं की भूमिका की बात है, तो अफसोस कि उन्होंने निगरानी करने और सरकार को जवाबदेय बनाने की बजाए स्वयं ही शौचालय बनाने वाले ठेकेदारों की भूमिका निभाना शुरू कर दिया।

साभार : विकास संवाद मीडिया
 

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