एशिया में सबसे ज्यादा ई-कचरा

बिजली से चलने वाली चीजें जब बहुत पुरानी या खराब हो जाती हैं और उन्हें बेकार समझकर फेंक दिया जाता है तो उन्हें ई-वेस्ट कहा जाता है। घर और ऑफिस में डेटा प्रोसेसिंग, टेलिकम्युनिकेशन, कूलिंग या एंटरटेनमेंट के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले आइटम इस कैटेगरी में आते हैं, जैसे कि कम्प्यूटर, एसी, फ्रिज, सीडी, मोबाइल, सीडी, टीवी, अवन आदि। ई-वेस्ट से निकलने वाले जहरीले तत्व और गैसें मिट्टी व पानी में मिलकर उन्हें बंजर और जहरीला बना देते हैं। फसलों और पानी के जरिए ये तत्व हमारे शरीर में पहुँचकर बीमारियों को जन्म देते हैं। सेंटर फॉर साइंस एण्ड एन्वाइरनमेंट (सीएसई) ने कुछ साल पहले जब सर्किट बोर्ड जलाने वाले इलाके के आसपास शोध कराया तो पूरे इलाके में बड़ी तादाद में जहरीले तत्व मिले थे, जिनसे वहाँ काम करने वाले लोगों को कैंसर होने की आशंका जताई गई, जबकि आसपास के लोग भी फसलों के जरिए इससे प्रभावित हो रहे थे।

 

पिछले साल दुनिया में सबसे ज्यादा 1.6 करोड़ टन ई-कचरा एशिया में पैदा हुआ। चीन में 60 लाख टन, जापान में 22 लाख टन और भारत में 17 लाख टन ई-कचरा पैदा हुआ। वहीं यूरोप में सबसे ज्यादा ई-कचरा करने वाले देशों में नॉर्वे पहले, स्विट्ज़रलैंड दूसरे, आइसलैंड तीसरे, डेनमार्क चौथे और ब्रिटेन पाँचवें पायदान पर रहा। वहीं सबसे कम 19 लाख टन ई-कचरा अफ्रीका में पैदा हुआ। रिपोर्ट के मुताबिक, 2018 में ई-कचरे की मात्रा 21 फीसदी तक बढ़कर 5 करोड़ टन पहुँचने की सम्भावना है।

 

भारत में यह समस्या 1990 के दशक से उभरने लगी थी। उसी दशक को सूचना प्रौद्योगिकी की क्रान्ति का दशक भी माना जाता है। पर्यावरण विशेषज्ञ के अनुसार, ई-कचरे का उत्पादन इसी रफ्तार से होता रहा तो अगले कुछ सालों में भारत 8 लाख टन ई-कचरा हर वर्ष उत्पादित करेगा। पौधों में प्रकाश संशलेषण कि प्रक्रिया नहीं हो पाती है जिसका सीधा असर वायुमण्डल में ऑक्सीजन के प्रतिशत पर पड़ रहा है। इतना ही नहीं, कुछ खतरनाक रासायनिक तत्त्व जैसे पारा, क्रोमियम, कैडमियम, सीसा, सिलिकॉन, निकल, जिंक, मैंगनीज, कॉपर, भूजल पर भी असर डालते हैं।

 

जिन इलाकों में अवैध रूप से रीसाइक्लिंग का काम होता है उन इलाकों का पानी पीने लायक नहीं रह जाता। असल समस्या ई-वेस्ट की रीसाइक्लिंग और उसे सही तरीके से नष्ट (डिस्पोज) करने की है। घरों और यहाँ तक कि बड़ी कम्पनियों से निकलने वाला ई-वेस्ट ज्यादातर कबाड़ी उठाते हैं। वे इसे या तो किसी लैंडफिल में डाल देते हैं या फिर कीमती मेटल निकालने के लिए इसे जला देते हैं, जोकि और भी नुकसानदेह है। कायदे से इसके लिए अलग से पूरा सिस्टम तैयार होना चाहिए, क्योंकि भारत में न सिर्फ अपने मुल्क का ई-वेस्ट जमा हो रहा है, बल्कि विकसित देश भी अपना कचरा यहीं जमा कर रहे हैं।

 

सीएसई में एन्वाइरनमेंट प्रोग्राम के कोऑर्डिनेटर कुशल पाल यादव के मुताबिक, विकसित देश इण्डिया को डम्पिंग ग्राउंड की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं क्योंकि उनके यहाँ रीसाइक्लिंग काफी महँगी है। हमारे यहाँ ई-वेस्ट की रीसाइक्लिंग और डिस्पोजल, दोनों ही सही तरीके से नहीं हो रहे हैं। इसे लेकर जारी की गई गाइडलाइंस कहीं भी फॉलो नहीं हो रही। कुल ई-वेस्ट का 99 फीसदी हिस्सा न तो सही तरीके से इकट्ठा किया जा रहा है, न ही उसकी रीसाइक्लिंग ढंग से की जाती है।

 

कुल ई-वेस्ट का 99 फीसदी हिस्सा न तो सही तरीके से इकट्ठा किया जा रहा है, न ही उसकी रीसाइक्लिंग ढंग से की जाती है। आमतौर पर सामान्य कूड़े-कचरे के साथ ही इसे जमा किया जाता है और अक्सर उसके साथ ही डम्प भी कर दिया जाता है। ऐसे में इनसे निकलने वाले रेडियो एक्टिव और दूसरे हानिकारक तत्व भूजल और जमीन को प्रदूषित कर रहे हैं।

 

आमतौर पर सामान्य कूड़े-कचरे के साथ ही इसे जमा किया जाता है और अक्सर उसके साथ ही डम्प भी कर दिया जाता है। ऐसे में इनसे निकलने वाले रेडियोएक्टिव और दूसरे हानिकारक तत्व भूजल और जमीन को प्रदूषित कर रहे हैं। ऐसे में सरकार को ई-वेस्ट रीसाइक्लिंग के लिए कानून बनाना होगा, क्योंकि आने वाले दिनों में खतरा और बढ़ेगा। कबाड़ी ई-वेस्ट को मेटल गलाने वालों को बेचते हैं, जो कॉपर और सिल्वर जैसे महँगे मेटल निकालने के लिए इन्हें जलाते हैं या एसिड में उबालते हैं। एसिड का बचा पानी या तो मिट्टी में डाल दिया जाता है या फिर खुले में फेंक दिया जाता है। यह सेहत के लिए काफी नुकसानदेह है। ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि भारत में रीसाइकल करने के लिए न कोई साफ कानून है और न ही गाइडलाइंस को फॉलो करना अनिवार्य है।

 

ई-कचरे के दुष्परिणाम से कोई भी अंजान नहीं है। मगर अभी तक इसे रोकने के लिए अपने देश में न तो कोई कानून है और न ही विदेश से आने वाले ई - कचरे को रोकने के लिए कोई कानून है। अगर सरकारें तेजी से बढ़ रही इस समस्या का निदान जल्द से जल्द नहीं निकालेंगी तो प्रकृति के साथ हो रहे खिलवाड़ का परिणाम हम सबको उठाना पड़ सकता है। सबसे पहले जरुरत है सख्त कानून बनाने और उतनी ही सख्ती से पालन कराने की ताकि ई-कचरे की अवैध रीसाइक्लिंग पर पूर्णविराम लग सके।

 

मोबाइल से कम होता है कचरा

 

पिछले साल पैदा हुए ई-कचरे में महज सात फीसदी मोबाइल फोन, कैलकुलेटर, पीसी, प्रिंटर और छोटे आईटी उपकरण रहे, वहीं करीब 60 फीसदी हिस्सा घरों और कारोबार में इस्तेमाल होने वाले वैक्यूम क्लीनर, टोस्टर्स, इलेक्ट्रिक रेजर्स, वीडियो कैमरा, वॉशिंग मशीन और इलेक्ट्रिक स्टोव जैसे उपकरणों का था।

 

साभार : एब्सल्यूट इण्डिया 19 जुलाई 2015

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