सात्विक मुद्गल
भारत अपने कूड़ा प्रबन्धन के तरीके में सुधार ला रहा है। इसके लिए शहरी विकास मन्त्रालय ने एक नियमावली तैयार की है। इससे कूड़ा बीनने वालों और कबाड़ व्यापारियों को कानूनी मान्यता मिल जाएगी लेकिन इसमें कई जमीनी हकीकतों को नजरअन्दाज किया गया है।
राष्ट्रीय राजमार्ग-एक से दिल्ली आते समय 5 किलोमीटर की दूरी से ही भलस्वा कचरे के ढेर को देखा जा सकता है। अपने अस्तित्व के 22 सालों में यह कचरा भराव क्षेत्र जिसका माप चार अन्तरराष्ट्रीय खेल स्टेडियम के बराबर है अब 15 मंजिला इमारत जितना ऊँचा बन चुका है। दिल्ली नगर निगम के वरिष्ठ अभियंता ने नाम न बताने की शर्त पर बताया कि “हम अपना ज्यादातर समय इस कूड़े के ढेर से निकलने वाली गैस को आग से बचाने में लगाते हैं। और जब बरसात होती है तब ये पहाड़ फिसल जाते हैं।’’ वे कहते हैं “कोई भी इस विभाग को सम्भालना नहीं चाहता है।’’
दिल्ली प्रतिदिन 4,000 ट्रक कचरे का उत्पादन करती है। भलस्वा सहित दिल्ली के तीन भराव क्षेत्र सात साल पहले ही भर चुके हैं लेकिन कूड़ा डालने के लिए शहर के पास और कोई जगह नहीं है। नगर निगम दिल्ली विकास प्राधिकरण से 250 हेक्टेयर की नई लैंडफिल साइट माँगने के लिए न्यायालय गया है।
“हम अपना ज्यादातर समय इस कूड़े के ढेर से निकलने वाली गैस को आग से बचाने में लगाते हैं। और जब बरसात होती है तब ये पहाड़ फिसल जाते हैं।’’ वे कहते हैं “कोई भी इस विभाग को सम्भालना नहीं चाहता है।’’
भारत के लगभग हर शहर में ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के लिए भूमि अधिकारियों, स्थानीय निकायों और समुदाय में तनातनी है। जैसे-जैसे देश की आर्थिक स्थिति गति पकड़ रही है, वैसे-वैसे उपभोग भी ज्यादा हो रहा है जिससे ज्यादा मात्रा में कचरा उत्पन्न हो रहा है। अधिकारिक आँकड़ों के अनुसार 2011-12 में भारत ने हर रोज 12.7 करोड़ ठोस अपशिष्ट उत्पन्न किया। यह दिल्ली से 12 गुना अधिक है। कचरे की वास्तविक मात्रा इससे भी ज्यादा हो सकती है। विश्व बैंक के अनुसार 2012 से 2025 के बीच भारत में 243 प्रतिशत की दर से ठोस अपशिष्ट में इजाफा होगा। काफी सालों के कुप्रबंधन की वजह से अब सरकार अपने नियमों में फेरबदल करके ठोस कचरे से निपटने के लिए कूड़ा बीनने वालों और कबाड़ व्यापारियों को कानूनी मान्यता देने की तैयारी कर रही है।
सालों की निष्क्रियता
वन एवं पर्यावरण मन्त्रालय ने शहरी ठोस अपशिष्ट नियमावली 2000 में तैयार की। इसी के साथ शहरी विकास मन्त्रालय नए नियमों की व्याख्या और क्रियान्वयन के लिए नया मैनुअल भी तैयार किया।लेकिन नियम लागू ही नहीं हो पाते। 14 सालों के बाद वन एवं पर्यावरण मन्त्रालय शहरी ठोस अपशिष्ट के नियमों में संशोधन कर रहा है। शहरी विकास मन्त्रालय और एक आधारभूत संरचना और पर्यावरण फर्म ड्यूटसे गेसेलशाफ्टफुर इंटरनेशनल जुसम्मेनारबेल्ट के प्रतिनिधियों से बनी विशेषज्ञ समिति ने नए कानून के मसौदे को तैयार किया है।
लेकिन बिना अधिसूचना के मसौदा तैयार करने की वजह से इसे आलोचना का शिकार होना पड़ा। कार्यकर्ता-वकील हर्शद बरदे जो कि अपशिष्ट प्रबंधन पर कार्य करते हैं, ने कहा कि बिना अधिसूचना के हम मसौदे के विषय में कैसे कुछ भी बोल सकते हैं? पहले हमें नियम बताइए फिर हम जवाब देंगे।
शहरी विकास मन्त्रालय और एक आधारभूत संरचना और पर्यावरण फर्म ड्यूटसे गेसेलशाफ्टफुर इंटरनेशनल जुसम्मेनारबेल्ट के प्रतिनिधियों से बनी विशेषज्ञ समिति ने नए कानून के मसौदे को तैयार किया है।
इस साल जुलाई में शहरी विकास मन्त्रालय ने दिल्ली में मसौदे को अन्तिम रूप देने के लिए एक वर्कशॉप का आयोजन किया था। पूरे भारत से वन एवं विकास मन्त्री, केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड, शहरी निकाय और निजी क्षेत्र के करीब 250 व्यावसायियों ने इसमें हिस्सा लेकर मसौदे पर अपने विचार व्यक्त किए। इससे अपशिष्ट प्रबंधन के लिए एक विस्तृत मार्गदर्शन, आर्थिक मदद और संस्थाओं की जिम्मेदारियों के विषय में जानकारी मिली। लेकिन कूड़ा बीनने वालों के लिए, समुदायों के लैंडफिल और कूड़े और ग्रामीण भारत को कचरा प्रबंधन के विषय में बताने के किसी व्यावहारिक रास्ते का अभाव दिखा।
कूड़ा बीनने वालों की गिनती
कूड़ा बीनने वाले और कबाड़ का व्यवसाय करने वालों की क्षमता का बेहतर उपयोग करने के लिए नया मसौदा उन्हें कानूनी मान्यता और रक्षात्मक जूते और दस्ताने देने की बात करता है। भलस्वा भराव क्षेत्र में इन कूड़ा बीनने वालों को देखा जा सकता है। जैसे ही ट्रक यहाँ कूड़ा फेंकता है ये उसमें कूदकर कचरा बीनने लगते हैं। कुछ ही मिनटों में बेचा न जा सकने वाला कूड़ा ही लैंडफिल में रह जाता है। 12 साल के बिट्टू ने बताया कि हमारा रोज खून निकलता है और हम संक्रमण की चपेट में आ जाते हैं। कुछ भाग्यशाली दिनों में मुझे 300 रुपए तक मिल जाते हैं, लेकिन कभी कुछ भी नहीं मिलता। अपने काम पर ध्यान लगाते हुए उसने बताया कई बार हमें इस पहाड़ पर चढ़ने की वजह से पीटा जाता है लेकिन हम तो उनका (नगर निगम) ही काम कर रहे हैं।
दिल्ली आधारित पर्यावरण विज्ञान शोध संस्थान के अध्यक्ष राकेश सोलंकी ने कहा सिर्फ रक्षात्मक कपड़े देना काफी नहीं है। अब समय आ गया है कि सरकार कूड़ा बीनने वालों को उनका कार्य करने की छूट प्रदान करे। वे किसी के दिशा-निर्देश या सान्निध्य में काम नहीं कर सकते।
12 साल के बिट्टू ने बताया कि हमारा रोज खून निकलता है और हम संक्रमण की चपेट में आ जाते हैं। कुछ भाग्यशाली दिनों में मुझे 300 रुपए तक मिल जाते हैं, लेकिन कभी कुछ भी नहीं मिलता। अपने काम पर ध्यान लगाते हुए उसने बताया कई बार हमें इस पहाड़ पर चढ़ने की वजह से पीटा जाता है लेकिन हम तो उनका (नगर निगम) ही काम कर रहे हैं।
लेकिन उन्हें कितने विस्तार की आवश्यकता है? दिल्ली की ग्रीन प्लानेट वेस्ट मैनेजमेंट कम्पनी के निदेशक राजेश मित्तल के अनुसार 15 किलो तक के अलग-अलग कचरे को प्रोसेस करने के लिए एक स्क्वेयर मीटर जगह की जरूरत पड़ती है। दिल्ली में इतनी जमीन की कीमत एक लाख रुपए है। मित्तल ने बताया कि 87 प्रतिशत घरों से निकलने वाला कचरा रिसाइकिल वाला होता है, जिसे कि अनौपचारिक क्षेत्र रिसाइकिल करते हैं। सोलंकी ने कहा, “कहने का तात्पर्य यह है कि अनौपचारिक क्षेत्र सिर्फ उस कचरे को रिसाइकिल करते हैं जो व्यावसायिक रूप से व्यवहार्य हों। हम लोग इस क्षेत्र को व्यावसायिक रूप से अव्यवहार्य रिसाइकिल कचरे के लिए किसी भी प्रकार की मदद देने से चूक गए हैं।’’
थोड़े और विस्तार की जरूरत
केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के मुताबिक केवल 70 प्रतिशत ठोस कचरे को एकत्रित किया जाता है जिसमें से कुल 12 फीसदी का ही संसोधन हो पाता है। कचरे को स्रोत पर ही अलग-अलग करके इकट्ठा करना, उसका संशोधन और वैज्ञानिक तरीके से निस्तारण अभी भी ठीक से नहीं हो पा रहा है। कचरा जमा करने की परेशानी को देखते हुए नियमावली पड़ोस के कूड़ाघरों को धातु के डिब्बों में बदलने की वकालत करता है ताकि स्वच्छता बनी रहे। लेकिन वह यह नहीं बताता कि इसे कहाँ रखना चाहिए। शहरी विकास मन्त्रालय के वरिष्ठ नगर योजनाकार श्रीनिवासन कहते हैं कि कुछ स्थानीय आवश्यकताओं को मैनुअल में जगह देनी चाहिए थी। उनकी उपस्थिति के कारण गन्दगी या अस्वच्छता, भीड़ और यातायात जाम जैसी समस्याएँ नहीं होनी चाहिए।
शहरी विकास मन्त्रालय के सचिव शंकर अग्रवाल ने कहा यह मसौदा लैंडफिल के कारण धीरे-धीरे पर्यावरण को होने वाले नुकसान पर खामोश है। ये स्थान दशकों से भू-जल को प्रदूषित कर रहे हैं और अब ये ज्वलनशील भी बन चुके हैं। भारत को पर्यावरण की वजह से काफी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ रहा है। 20 फीसदी लोगों को स्वास्थ्य से सम्बन्धित बीमारी खराब कचरा प्रबंधन की वजह से होती है।
तकनीकी विशेषज्ञता को सुधारे
यह नियमावली चरणबद्ध तरीके से शहरी निकायों की जिम्मेदारियाँ तय करता है, उसमें विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार करने और प्रगतिशील सूचना प्रोद्योगिकी साधन एवं भौगोलिक और प्रबंधन सूचना प्रणाली का प्रयोग करना। लेकिन यह सब किसी मतलब के नहीं रहेंगे यदि शहरी निकायों की विशेषज्ञता को परिष्कृत नहीं किया जाएगा।
केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के मुताबिक केवल 70 प्रतिशत ठोस कचरे को एकत्रित किया जाता है जिसमें से कुल 12 फीसदी का ही संसोधन हो पाता है। कचरे को स्रोत पर ही अलग-अलग करके इकट्ठा करना, उसका संशोधन और वैज्ञानिक तरीके से निस्तारण अभी भी ठीक से नहीं हो पा रहा है।
यह नियमावली कचरा प्रबंधन के लिए पब्लिक- प्राइवेट पार्टनरशिप का प्रस्ताव भी देता है। वर्कशाप में हिस्सा लेने वाले प्रतिनिधियों ने स्पष्ट कहा पब्लिक- प्राइवेट पार्टनरशिप पिछली बार तकनीकी, आर्थिक और कानूनी अड़चनों के कारण रियायत की पूरी अवधि तक नहीं चल पाई। इसलिए नए पीपीपी प्रोजेक्ट के बजाय उसे अतीत से सबक लेने चाहिए। श्रीनिवास को यह विश्वास है कि शहरी निकायों को पीपीपी लागू करने की समझ होनी चाहिए। शहरी विकास मन्त्रालय की विशेषज्ञ समिति के सदस्य के अनुसार हर विस्तृत जानकारी नियमावली में शामिल नहीं की जा सकती है।
ग्रामीण भारत की अनदेखी
नियमावली में ग्रामीण भारत या बिना शहरी निकाय के 3,892 शहरों में कचरा प्रबंधन के विषय में कोई बात नहीं करता है। इस प्रकार यह देश के 70 फीसदी आबादी को छोड़ देता है। यह नगर निगम प्राधिकरण की परिभाषा पर निर्भर करता है कि किन क्षेत्रों को नियमावली में सम्मिलित करना है। मसौदे के नियम जिनसे कि परिभाषा निकलेगी उन्हें अभी अधिसूचित किया जाना बाकी है।
सोलंकी ने कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों में जैविक कचरे का निस्तारण ज्यादा दक्षता के साथ होता है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में इलैक्ट्रॉनिक कचरा और प्लास्टिक कचरा एक बड़ी समस्या है। यह अभी साफ नहीं है कि क्या सरकार ग्रामीण कचरे के लिए अलग से कोई मसौदा तैयार करेगी या नहीं।
विशेष कचरा
नियमावली में कुछ कचरों को विशेष कहा गया है इनमें शामिल है- प्लास्टिक कचरा, बायोमेडिकल कचरा और बूचड़खानों से निकलने वाला कचरा। पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए इन्हें विशेष तरीके की निगरानी और निपटान की आवश्यकता होती है। हालाँकि नियमावली इन अपशिष्टों के उचित निपटान पर बात नहीं करती है। इन अपशिष्टों को भी लैंडफिल में ही जाना होगा।
सोलंकी ने कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों में जैविक कचरे का निस्तारण ज्यादा दक्षता के साथ होता है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में इलैक्ट्रॉनिक कचरा और प्लास्टिक कचरा एक बड़ी समस्या है
यह मसौदा मौसमी कचरे को मान्यता देने में असफल है। इस प्रकार का कचरा एक निश्चित समय मे उत्पन्न होता है जैसे कि- दिवाली जब कचरे की संख्या दुगुनी हो जाती है, इलाहाबाद का कुम्भ का मेला जब 3.0 करोड़ लोग शहर में एकत्रित होकर उम्मीद से दुगना कचरा फैलाते है। दूसरे प्रकार के हानिकारक कचरे जैसे कि मर्करी थर्मामीटर, फ्लोरेसेंट लैम्प, बागवानी कचरा और औषधीय कचरा।
इन कचरों को भी आखिरकार लैंडफिल में ही जाना होता है। यह नियमावली उचित तरीके से इन कचरों के निपटान के लिए कोई दिशा-निर्देश नहीं देती न ही सफाई करने वाले कामगारों को ठोस अपशिष्ट और अन्य अपशिष्टों की निगरानी के लिए जागरूक करती है। आजकल सामान पैक करने का कार्य अल्युमिनियम, टीन और प्लास्टिक की कई परतों द्वारा किया जाता है जिनका कि शोधन असम्भव है।
भारत के कचरा प्रबंधन करने के तरीके को शोचनीय कहा जा सकता है। नगर निगम के ठोस अपशिष्ट के प्रबंधन के लिए बनाया गया मसौदा कई तकनीकी समस्याओं से ग्रस्त है। भारत को एक सशक्त मसौदे की आवश्यकता है जिसे कि लागू किया जा सके।
साभार : डाउन टू अर्थ 1-15 सितम्बर 2014
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