अन्जु यादव
प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के 68वें स्वतन्त्रता दिवस भाषण के वर्षों पूर्व महिलाओं हेतु मूलभूत सुविधाओं की फिक्र हमारे नाटककारों और कहानीकारों ने की थी। महिला व्यथा की गाथाओं में उल्लेखनीय नाम 'नाच्यो बहुत गोपाल' है, जिसके रचयिता अमृतलाल नागर ने एक ऐसी ब्राह्मण महिला की कहानी को वर्णित किया है, जो न केवल दलित जीवन जीने, बल्कि दलित आचार (सर पर मैला ढोना) निभाने को मजबूर हो जाती है। नागर की यह रचना महज एक महिला की कहानी नहीं, बल्कि एक जटिल सामाजिक समस्या का चित्रण थी। उनकी यह रचना आज भी उतनी प्रासंगिक है, जितनी दशकों पहले थी। तो क्या महिलाओं की दशा में कुछ भी बदलाव नहीं आया है? जी हाँ, वह अंतरिक्ष तक पहुँच गई हैं और पुरुष के साथ कन्धा मिलाकर हर कार्यक्षेत्र में अग्रसर हैं। पर क्या उसके लिए पर्याप्त सामाजिक सुविधाएँ मुहैया हैं? नहीं, यहाँ हमारे नीति-निर्माता और सरकारी तन्त्र चूक गए।
आज भी महिला घर से निकलने से पहले ख्याल रखती है की ज्यादा पानी न पीएं, क्योंकि पानी पीने के बाद उसे शौचालय जाना पड़ सकता है। पर वह ढूँढने से भी नहीं मिलेगा और खुशकिस्मती से मिल भी गया तो इतना गन्दा, बदबूदार और असुरक्षित होगा की वहाँ से साँस रोककर दूर भागना ही उचित होगा।
वर्षों पहले जब भी घर से दिल्ली और दिल्ली से घर जाना होता, तो सबसे पहले दिमाग में शौचालय की समस्या सामने आ जाती। मैं जानती थी कि 250 किलोमीटर के सफर में सार्वजनिक शौचालय की व्यवस्था कहीं नहीं है। उत्तर प्रदेश परिवहन निगम की बसें भी ऐसे ढाबे पर रुकतीं जहाँ शौचालय के नाम पर अध-खुला, गन्दा, दुर्गन्धयुक्त कमरा ही होता जो ज्यादातर ढाबे के पीछे खेतों के पास होता। इन तमाम मुसीबतों से छुटकारा पाने का सबसे अच्छा उपाय यही होता की छह-सात घंटे सफर में कुछ खाया-पीया न जाए।
कुछ सालों बाद पहले यात्रा के दौरान राजमार्ग पर 'मैकडोनाल्ड' खुला देखकर राहत की साँस ली। अब बर्गर-फ्रेंच फ्राई का शौक न होते हुए भी कमोबेश हर बार यहाँ खाना हो ही जाता है। हालांकि यहाँ रुकने का कारण भोजन-नाश्ता नहीं, बल्कि किसी और मूलभूत समस्या का निवारण होता है।
जब प्रधानमन्त्री मोदी ने लालकिले से सार्वजनिक शौचालय को लेकर ग्रामीण महिलाओं की समस्याओं का जिक्र किया तो लगा की किसी ने दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। ग्रामीण महिलाओं की समस्या तो जटिल है ही और उसका निवारण भी उतना ही आवश्यक है। लेकिन क्या बड़े और आधुनिक शहरों में इस समस्या का निदान हो गया है?
पूर्व मन्त्री जयराम रमेश ने जसलीन कौर से बातचीत करते हुए कहा था की मैं तो कहूँगा की भारत को मन्दिरों की बजाए शौचालयों की जरूरत है। (निजी तौर पर मेरा ख्याल है कि अस्पताल ज्यादा चाहिए, किन्तु प्राथमिकता के चलते मैं उनसे सहमत हूँ)। जसलीन को दिल्ली के एक वीआईपी इलाके में जो अनुभव हुआ वह गौरतलब है, क्योंकि उस दौरान दिल्ली की सत्ता एक महिला के हाथों में ही थी।
जब प्रधानमन्त्री मोदी ने लालकिले से सार्वजनिक शौचालय को लेकर ग्रामीण महिलाओं का जिक्र किया तो लगा की किसी ने दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। ग्रामीण महिलाओं की समस्या तो जटिल है ही और उसका निवारण भी उतना ही आवश्यक है। लेकिन क्या बड़े और आधुनिक शहरों में इस समस्या का निदान हो गया है?
हमारे देश की महिला शासक भी इस समस्या से अनजान ही नहीं, उदासीन भी रहीं। इन्दिरा गाँधी ने बतौर प्रधानमन्त्री लम्बे वक्त तक देश पर शासन किया। शीला दीक्षित ने 15 साल तक दिल्ली पर शासन किया। पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल देश के सर्वोच्च पद पर आसीन रहीं। और तो और मनमोहन सरकार की रीढ़ कहलाने वाली सोनिया गाँधी भी यूपीए चेयरपर्सन होने के नाते वर्षों तक सरकारी नीतियाँ तय करती रहीं। पर महिलाओं के लिए शौचालय की समस्या पर इन सभी ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया। शायद इसकी वजह यह होगी की इनका इस समस्या की जटिलता से साक्षात्कार ही नहीं हुआ।
प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी से मेरा अनुरोध है की वे अपने संसदीय बहुमत का उपयोग करते हुए बरिस्ता, कैफे कॉफी डे और मैकडोनाल्ड को अपने 'रेस्ट रूम' उन परेशान महिलाओं के लिए खुले रखने का आदेश दें। भले ही वे कॉफी न पीएँ और बर्गर न खाएँ। ऐसा करने से वे अपना कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी भी निभा सकेंगे। बहरहाल, मैं उनकी सुविधाओं का उपयोग कर रही हूँ, दूसरी लडकियाँ भी ऐसा कर ही रहीं हैं। इस समस्या की जटिलता और तमाम आयाम चौकाने वाले हैं।
साभार : गवर्नेंस नाउ 1-15 सितम्बर 2014
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