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आदिकाल में लोग शौचादि से स्वयं को मुक्त करने के लिए किसी भी स्थान का प्रयोग कर लेते थे, चाहे वह जंगल हो, मैदान हो या फिर बहती नदी की धार ही क्यों न हो।
आज इस युग में, पश्चिम के विकसित देश सीवर-व्यवस्था, सेप्टिक टैंक इत्यादि का प्रयोग कर अपशिष्ट-जल और मानव-मल का निपटान करते हैं।
विकासशील देशों में स्थिति अलग है। इन देशों में पूर्ण रूप से महंगी सीवर-व्यवस्था को लगाने या फिर उसे सुचारु रूप से चलाने का खर्च न तो सरकार और न ही उससे लाभ पाने वाले नागरिक ही उठा सकते हैं। इसके अलावा इस व्यवस्था के संचालन के लिए कुशल कारीगरों की आवश्यकता होती है। इस व्यवस्था के अंतर्गत मानव-मल को धोकर बहाने में 12-14 लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि क्या बड़े-बड़े बांध (डैम) और सिंचाई-व्यवस्था हम इसलिए बनाते हैं कि इनकी मदद से जो बहुमूल्य पानी हमने एकत्र किया है, उसे मानव-मल को धोने में बहा दें? हमें इस पर सोचना होगा।
सेप्टिक टैंक व्यवस्था बहुत महंगी पड़ती है
सेप्टिक टैंक-व्यवस्था भी एक महंगी व्यवस्था है। नियमित सफाई भी इसकी एक समस्या है। यदि सेप्टिक टैंक की सफाई ठीक से नहीं होती है तो वातावरण में बदबू फैल जाती है, मच्छर पैदा होते हैं, जिसके फलस्वरूप बीमारी फैलती है। अतः अपशिष्ट-निष्पादन के लिए एक ऐसी व्यवस्था की आवश्यकता थी, जो महंगी भी न हो, जन-स्वीकृत भी हो और जिसमें पानी की आवश्यकता भी कम होती हो।
भारत में मोहनजोदड़ो और हड़प्पा सभ्यताओं के विघटन के बाद, जिन्होंने मानव-मल-निष्पादन की उचित तकनीक खोज ली थी लेकिन बाद में फिर से खुले में शौच की प्रथा पुनः चालू हो गई।
कम खर्च वाली शौच निष्पादन व्यवस्थाएं
सन् 1930 के दशक में और फिर उसके बाद के समय में ऐसे शौच-निष्पादन की व्यवस्था की खोज आरंभ हो गई, जो कम लागत के साथ ही समाज में सांस्कृतिक तौर पर भी स्वीकार-योग्य हो। कम लागत वाली कई व्यवस्थाएं समाज के सामने आईं, जिनमें बोर-होल लैट्रीन, ओवर-हंग लैट्रीन, ड्रॉप-प्रिवि, एक्वा-प्रिवि, ऑफसेट-कंपोस्ट लैट्रीन इत्यादि थीं, किंतु ये सभी सफल नहीं हो सकीं, क्योंकि ये भारतीय वातावरण अथवा संस्कृति के अनुकूल नहीं थीं। इसलिए लोगों ने इन सभी व्यवस्थाओं को नापसंद कर दिया।
शौचालय को लेकर अनेक प्रयोग हुए
कोलकाता की ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ हाइजीन ऐंड पब्लिक हेल्थ के द्वारा बोर-होल लैट्रीन का विकास किया गया।
महंगी सीवर-व्यवस्था को लगाने या फिर उसे सुचारु रूप से चलाने का खर्च न तो सरकार और न ही उससे लाभ पाने वाले नागरिक ही उठा सकते हैं। इसके अलावा इस व्यवस्था के संचालन के लिए कुशल कारीगरों की आवश्यकता होती है। इस व्यवस्था के अंतर्गत मानव-मल को धोकर बहाने में 12-14 लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि क्या बड़े-बड़े बांध (डैम) और सिंचाई-व्यवस्था हम इसलिए बनाते हैं कि इनकी मदद से जो बहुमूल्य पानी हमने एकत्र किया है, उसे मानव-मल को धोने में बहा दें?
उस समय में यह व्यवस्था बहुत ही कम खर्च वाली थी, जिसमें स्थल पर ही मानव-मल के निष्पादन की व्यवस्था थी। यह व्यवस्था सन् 1940 में भारत में आई। लखनऊ की संस्था द प्लानिंग रिसर्च ऐंड एक्शन इंस्टिट्यूट द्वारा कंक्रीट का एक पैन विकसित किया गया, जिसमें ट्रैप को पैन के साथ जोड़ा जाता था। इस व्यवस्था को पीआरएआई प्रकार की लैट्रीन का नाम दिया गया, जिसका उपयोग गांवों के लिए उपयुक्त माना गया। सन् 1955 में पर्यावरण-स्वच्छता पर शोध तथा कार्यक्रम की शुरुआत तमिलनाडु के पूनामली, पश्चिम बंगाल के सिंगूर और दिल्ली के नजफगढ़ में की गई। पूनामली योजना का मुख्य उद्देश्य था, पर्यावरण-स्वच्छता के लिए नई विधियों की खोज करना, जिनके केंद्र में गांवों की स्वच्छता हो। नेशनल इन्वॉयरन्मेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टिट्यूट (नीरी, जिसका पूर्व का नाम सीफेरी था), नागपुर द्वारा गांवों में प्रयोग के लिए एक गड्ढेवाले पोर-फ्लश वाटरसील लैट्रीन का विकास किया गया।
सरकारी प्रयास के अलावा भी कई गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा इस विषय पर शोध होते रहे और ऐसी विधियों की खोज होती रही, जो मौके पर ही अपशिष्ट-निष्पादन करें और साथ ही कम खर्चवाली भी हों। इनमें से प्रमुख हैं, गांधी ग्राम इंस्टिट्यूट, तमिलनाडु, गांधी स्मारक निधि, हरिजन-सेवक-संघ (सफाई-विद्यालय), अहमदाबाद इत्यादि। उनके द्वारा विकसित की गई तकनीकों की शहरों या गांवों में व्यापक स्वीकृति नहीं मिली। इस वजह से यह विधि गांवों और शहरों में नहीं फैल सकी।
सन् 1958 में प्रकाशित लेनोइक्स और श्री ईजी वैग्नर की पुस्तक ‘एक्स्क्रीटा डिस्पोजल फॉर रूरल एरियाज ऐंड स्मॉल कम्यूनिटीज’ (म्Ûबतमजं क्पेचवेंस वित त्नतंस ।तमंे ंदक ेउंसस बवउउनदपजपमे) को पढ़कर हमें शौचालय की नई तकनीक विकसित करने में सहायता मिली।
यह पुस्तक गांवों में मानव-मल-निष्पादन के विषय पर थी। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद हमने विचार किया कि यदि गांवों और शहरों में मिट्टी की स्थिति एक-सी हो तो ऐसा कैसे संभव है कि जो तकनीक गांवों में कामयाब है, वह शहरों में न हो।
पर्यावरण-हितैषी टू-पिट पोर-फ्लश कंपोस्ट टॉयलेट (जो ‘सुलभ शौचालय’ के नाम से मशहूर है) अल्प लागत के साथ-साथ सांस्कृतिक और तकनीकी रूप से स्वीकार्य है। इस प्रकार जल तथा स्वच्छता के सहस्त्राब्दि-विकास-लक्ष्यों की प्राप्ति में सुलभ-तकनीक सहायक हो रही है।
डब्ल्यूएचओ का सहयोग महत्वपूर्ण
इसमें संदेह नहीं कि विश्व-स्वास्थ्य-संगठन द्वारा विशेष सहयोग तथा तकनीकी समर्थन से सुलभ-स्वच्छता आंदोलन को आगे बढ़ने में मदद मिली है, जिसके कारण सुलभ आज स्वच्छ पर्यावरण एवं स्वस्थ जीवन के पर्याय के रूप में जाना जाता है।
साभार : सुलभ इंडिया, मई 2011
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