भारत की सार्वजनिक सफाई व्यवस्था बदलता ई-टॉयलेट

श्रेया पारीक

सिविल इंजीनियर और मैनेजमेंट ग्रेजुएट बिन्सी बेबी हमेशा यह सोचा करती थीं कि भारत में सार्वजनिक सफाई प्रणाली की खराब स्थिति के बारे कुछ क्यों नहीं किया जा सकता। वे हमेशा इस विडम्बना से परेशान रहती थीं कि 1.2 अरब की आबादी वाले भारत जैसे देश में 55 प्रतिशत लोग यानी (60 करोड़) के पास शौचालय नहीं है। स्थिति उन किशोरियों और स्कूल जाने वाली लड़कियों के लिए और भी खराब है जिन्हें यह बुनियादी सुविधा मुहैया नहीं है। हर महीने 12 से 18 साल की उम्र की लड़कियाँ मासिक धर्म के दौरान कम से कम पाँच दिन स्कूल से छुट्टी करती हैं क्योंकि स्कूल में साफ शौचालय की कोई सुविधा नहीं है।

बिन्सी बेबी कहती हैं, “उसके बाद मैंने रोजमर्रा की समस्याओं के हल के लिए आईटी के महत्त्व के बारे में सोचा। मेरा मानना है कि अगर समझदारी से प्रौद्योगिकी के बारे में सोचा जाए तो इससे सैकड़ों लोगों के जीवन पर असर पड़ सकता है।”

बिन्सी ने इराम साइन्टिफिक सोल्यूशन्स  प्राइवेट लिमिटेड ज्वाइन किया जो कि देश की सार्वजनिक स्वच्छता के बारे में नए किस्म के समाधान पर काम कर रहा था। वे इस बुनियादी सोच को मानते थे कि पिछली सदी में अमूमन जीवन के हर क्षेत्र पर आविष्कार हुए लेकिन सफाई और विशेष तौर पर सार्वजनिक सफाई का क्षेत्र अछूता ही रहा। हालांकि दुनिया में तमाम क्षेत्रों में क्रान्तियाँ हो रही हैं लेकिन हमारे लिए सफाई का क्षेत्र अभी भी एक टैबू बना हुआ है।

बच्चों के अधिकारों के संगठन क्राइ के अनुसार 11 प्रतिशत स्कूलों के पास सफाई की बुनियादी सुविधा नहीं है और उनमें से 18 प्रतिशत के पास लड़कियों के शौचालय हैं और स्कूलों के 34 प्रतिशत शौचालय इस्तेमाल के लायक नहीं हैं।

इतना ही नहीं क्या आप जानते हैं कि दुनिया के सबसे ज्यादा लोग यानी 62.6 करोड़ लोग भारत में खुले में शौच करते हैं क्योंकि उनके पास शौचालय नहीं है। यह चिन्ताजनक स्थिति तत्काल समाधान की माँग करती है और केरल का इराम इस बारे में ई-टॉयलट के माध्यम से समझदारी भरा समाधान दे रहा है।

ई-टॉयलट भारत का पहला ऐसा शौचालय है जिसे किसी कर्मचारी की जरूरत नहीं है और जो किसी दूसरी जगह ले जाया जा सकता है। इसका स्वास्थ्य के लिहाज से रखरखाव किया जा सकता है और यह पर्यावरण अनुकूल भी है।

शौचालय की कार्यप्रणाली

ई-टॉयलट को किसी कर्मचारी की जरूरत नहीं है क्योंकि यह सेंसर आधारित प्रौद्योगिकी पर काम करता है, यह अपनी सफाई खुद करता है और इसकी जल संरक्षण की तकनीक इसे विशिष्ट बनाती है। प्रयोग करने वाला एक सिक्के के माध्यम से दरवाजे को खोलता है और जैसे ही वह भीतर घुसता है लाइट तुरन्त जल जाती है उसके बाद वह ध्वनि संकेतों के माध्यम से उसे खुद ही प्रयोग के तरीके बताता है।

पानी बचाने के लिए इस शौचालय में व्यवस्था है कि तीन मिनट के प्रयोग के बाद 1.5 लीटर पानी फ्लश करे और अगर प्रयोग उससे लम्बा है तो 4.5 लीटर पानी फ्लश करे। यह निर्देशात्मक टिप्पणी शौचालय के बाहर लिखी रहती है जिससे प्रयोग करने वाला इससे वाकिफ हो सके।

बिन्सी बताती हैं, “हालांकि ई-टॉयलट अपने आप सफाई करने वाला और स्वचालित है लेकिन कभी-कभी लोग उसमें कचरा फेंक देते हैं और इसका गलत तरीके से प्रयोग करते हैं। इस तरह की स्थितियों से निपटने के लिए हमारे पास एक सर्विस टीम होती है जो कि समय-समय पर रखरखाव और मरम्मत के लिए शौचालयों का दौरा करती है। सभी ई-टॉयलट जीपीआरएस नेटवर्क से जुड़े होते हैं। हमारे नियन्त्रण केन्द्र पर लगी वेब प्रणाली ई-टॉयलट के काम पर निगाह रखती है और उसके प्रयोग, बन्द रहने के समय, वसूली गई फीस वगैरह का हिसाब रखती है। इससे यह सार्वजनिक संरचना के प्रति जवाबदेही बनती है। सम्बन्धित नगरपालिकाएँ वास्तविक समय में प्रयोग की पद्धति को देख सकती हैं और यह बेहद नई किस्म की अवधारणा है जिसे हमने सभी ई-शौचालयों में लगा रखा है।”

यह शौचालय आम तौर पर सांसद और विधायक निधि और पंचायत जैसे स्थानीय निकायों की मदद से बनाए जाते हैं और इनके बुनियादी मॉडल पर दो लाख रुपए और स्टीनलेस स्टील से बने एडवांस मॉडल पर 4-5 लाख का खर्च आता है। शौचालय बन जाने के बाद उनके संचालन का व्यय छोटे से उपयोग शुल्क और उसके बाहर लगे विज्ञापनों से निकल जाता है। इस प्रकार यह मॉडल टिकाऊ बनता है।

बिन्सी बताती हैं, “ई टॉयलट के महत्त्व के बारे में लोगों को सहमत करना हमारे लिए मुश्किल था। वे पोछा और सफाई वाली महिला की आदत से इतने अभ्यस्त हैं कि उन्हें यकीन ही नहीं होता था कि यह विचार काम कर सकता है।”

दूसरी चुनौती उसके लिए उपयुक्त जगह की तलाश भी थी। शौचालय आसानी से उपलब्ध होना चाहिए लेकिन उसी के साथ भीड़भाड़ वाले इलाके के ज्यादा करीब भी नहीं होना चाहिए। ई-टॉयलट के साथ सौर ऊर्जा के प्रयोग का विकल्प भी है, कम पानी के प्रयोग का विकल्प भी है और पानी व बिजली के प्रयोग को संरक्षित करने के लिए सेंसर वाली प्रणाली भी है। इन सबके बावजूद पानी और बिजली की सप्लाई में रुकावट आने से उसके निर्बाध कार्य करने पर असर पड़ता है।

मददगार हाथ

इराम का विचार तो अच्छा था लेकिन उसे बाजार के लायक बनाने के लिए नियमित शोध और विकास की जरूरत थी। ऐसे समय में मैरिको इन्नोवेशन फाउण्डेशन के सोशल इन्नोवेशन एक्सीलरेशन प्रोग्राम (एमआइएफ-एसआइएपी) ने चमत्कारिक तौर पर बिना माँगे मुराद पूरी कर दी।

बिन्सी बताती हैं, “हमारे सामने ऊपर उठने और निजी बाजार पर पकड़ बनाने की चुनौती थी। एमआइएफ ने हमें वह रोचक विचार दिया और उसे लागू करने में मदद दी।”

विभिन्न बिजनेस स्कूलों की साझेदारी में एमआइएफ को विभिन्न सामाजिक क्षेत्र की परियोजनाओं में काम करने के लिए छात्र मिलते हैं। उन्होंने एक्सएलआरआइ जमशेदपुर के छात्रों को सफाई परियोजना पर दस्तावेज तैयार करने और वह कैसे लागू हो सकता है इस बारे में मंथन करने को आमन्त्रित किया। एमआइएफ ने जो सबसे महत्तवपूर्ण भूमिका निभाई वह थी वैल्यू इंजीनियरिंग प्रदान करने और इराम को ई-टॉयलट के बेहतर संस्करण बनाने में मदद करने की। इराम के मामले में एमआइएफ के हस्तक्षेप से प्रौद्योगिकी के विपणन में मदद मिली बल्कि उत्पाद को प्रयोक्ता की जरूरत के लिहाज से विकसित करने में भी सहायता मिली। इसके अलावा उनका बड़ा योगदान लक्ष्य के पुनर्मूल्यांकन का था। एमआइएफ के हस्तक्षेप से पहले इराम को महज 400 ई-टॉयलट स्थापित करने की उम्मीद थी लेकिन उन्होंने इस लक्ष्य पर फिर से काम किया और अगले दो साल में 18,200 शौचालय बनाने का लक्ष्य रखा।

असर

इराम की टीम ने देश के दस राज्यों में अब तक 500 टॉयलट बनाए हैं जिनमें विभिन्न स्कूलों में 150 ई टॉयलट बने हैं। उन्होंने अब तक 200 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाए हैं और वैश्विक स्तर पर 30 पुरस्कारों के लिए चिह्नित किए गए हैं।

बिन्सी बताती हैं, “स्कूलों के शौचालय लड़कियों के लिहाज से बनाए गए हैं। उनमें नैपकिन को नष्ट करने वाली और उसे देने वाली वेंडिंग मशीनें भी हैं। इन शौचालयों को स्कूलों में खोलने का फायदा यह भी है कि बच्चे नई प्रौद्योगिकी इस्तेमाल करने और उनके साथ प्रयोग करने के ज्यादा अभ्यस्त होते हैं। जबकि बूढ़े लोगों को इनके साथ तालमेल बिठाना मुश्किल होता है।”

जब ज्यादातर लोग बुरी स्थितियों के  कारण सार्वजनिक शौचालयों के प्रयोग से बचते हैं ऐसे में यह प्रौद्योगिकी धीरे-धीरे देश में सार्वजनिक स्वच्छता के परिदृश्य को बदल रही है।

भविष्य

बिन्सी कहती हैं, “अकेले ई-टॉयलट से देश भर की सफाई की समस्या दूर नहीं हो सकती। पर हम लोगों तक यह बात पहुँचा सकते हैं कि किस प्रकार पिछले कुछ सालों से सफाई स्त्री और विशेषकर लड़कियों के जीवन को प्रभावित कर रही है। इस महत्वपूर्ण चुनौती का मुकाबला करने के लिए सरकार, निजी क्षेत्र, सीएसआर, सिविल सोसायटी को एक लक्ष्य के लिए साथ मिलकर काम करना होगा।”

इस तरह यह टीम इस मॉडल को अपने आप टिकाऊ बनाने के लिए सीवेज ट्रीटमेंट प्रौद्योगिकी में भी प्रयोग कर रही है। इराम साइंटिफिक बिल एण्ड मिलिण्डा गेट्स फाउण्डेशन के अन्य अनुदान कर्ताओं से मिलकर ऐसे शौचालयों का निर्माण कर रहा है जो सीवेज वेस्ट से ऊर्जा और पानी पैदा कर सकें। अहमदाबाद और चेन्नई में कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नालाजी और ड्यूक यूनिवर्सिटी के साथ मिलकर दो फील्ड ट्रायल पहले से चल रहे हैं। लोगों तक प्रौद्योगिकी की पहुँच बढ़ाने के लिए इराम चाहता है कि इन शौचालयों का सस्ता संस्करण चलाया जाए जिनकी लागत एक लाख तक आए। इतने सस्ते में गुणवत्ता दे पाना बहुत कठिन है लेकिन टीम इस सपने को अन्जाम देने में लगी है।

इस परियोजना को देश के दूसरे राज्यों तक ले जाना उनके एजेंडा की सूची का एक और विषय है। बिल एण्ड मिलिण्डा गेट्स फाउण्डेशन ने `रीइन्वेंट द टॉयलट चैलेंज ’ के लिए तीन करोड़ रुपए दिए हैं जो कि इराम साइंटिफिक सोल्यूशन्स के लिए परियोजना में आगे शोध और क्रियान्वयन के काम के विकास में इस्तेमाल किया जाएगा।

दो कौड़ी का काम

बिन्सी कहती हैं, “कोई भी अपना हाथ गन्दा नहीं करना चाहता। इस काम के प्रति हर कोई खराब नजरिए से देखता है और कोई भी इस क्षेत्र में व्यापक काम नहीं करना चाहता। जिसे भी इस तरह का काम करना है उसे अपने काम के लिए एक जज्बा रखना चाहिए।” बिन्सी का मानना है कि पानी और सफाई की चुनौतियों को व्यापक तरीके से सम्बोधित करना होगा और इस दिशा में हाल की जागृति सही कदम है। भविष्य में प्रौद्योगिकी वाले शौचालय ही टिकेंगे। इस प्रकार टीम के सामने चुनौती यह है कि कि प्रकार वह लाखों वंचित प्रयोक्ताओं के लिए ऐसा शौचालय बनाए जिसमें श्रेष्ठ किस्म की सफाई और स्वास्थ्य अनूकूलता हो और बिजली कनेक्शन के बिना वह अपने में सम्पूर्ण हो।

सफाई के इस क्षेत्र में इराम का काम प्रशंसनीय रहा है। वे न सिर्फ टॉयलट बना रहे हैं बल्कि लोगों को स्वास्थ्य अनुकूलता और सफाई का महत्त्व भी समझा रहे हैं। जो कि सार्वजनिक शौचालयों के लिहाज से अपने आप में बड़ी चुनौती है।

साभार : बेटर इण्डिया वेबसाइट

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Post By: iwpsuperadmin
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