उमेश चतुर्वेदी
इसे संयोग कहें या फिर प्रकृति का संकेत… डॉक्टर बिन्देश्वर पाठक की जिन्दगी में साल 2012 में जो घटा और उसके बाद उन्हें अनायास जो जिम्मेदारी मिली, उसकी इन दोनों ही आधारों पर व्याख्या की जा सकती है। वही बिन्देश्वर पाठक, जिन्हें दुनिया स्वच्छता अभियान, शौचालय क्रान्ति और ऐसी ही भूमिकाओं के लिए जानती है। शौचालय और स्वच्छता क्रान्ति के जरिए अपनी क्षमता भर मानवता के कल्याण का काम तो वे कर ही रहे हैं। खुद डॉक्टर पाठक बताते हैं कि साल 2012 में वे अरब सागर के किनारे भगवान कृष्ण की नगरी द्वारका गए थे। द्वारकापुरी के मन्दिर में उन्होंने आरती में भाग लिया। आरती के बाद मन्दिर के मुख्य पुजारी बाँसुरी लेकर आए और कुछ चुने हुए श्रद्धालुओं को बाँसुरी को बतौर प्रसाद देने लगे। एक बाँसुरी बिन्देश्वर पाठक को भी मिली। पता नहीं पुजारी डॉक्टर पाठक की हैसियत को जानते थे या नहीं, लेकिन कृष्ण का प्रतीक, उनकी प्रिय बाँसुरी को बतौर प्रसाद जिन्हें-जिन्हें भी पुजारी ने दी, उनमें से एक बिन्देश्वर पाठक भी थे। हैसियत का सवाल इसलिए कि भारतीय मन्दिरों में पुजारी या पण्डा आम श्रद्धालुओं से अलग व्यवहार करते हैं और हैसियत वालों से कुछ और… बहरहाल डॉक्टर पाठक बताते हैं कि बाँसुरी मिली तो उन्हें उन्हें लगा कि भगवान कृष्ण उनसे कुछ कराना चाहते हैं। लेकिन वह काम क्या होगा, इसका आभास उन्हें नहीं था। बहरहाल यही सोचते हुए डॉक्टर पाठक द्वारका से दिल्ली लौट आए और पहले की तरह अपने सुलभ अभियान में जुट गए।
भगवान कृष्ण के बचपन की अठखेलियों का गवाह रहा वृंदावन कृष्ण की भक्ति में अपनी जिन्दगी के आखिरी दिन गुजारने वाली विधवाओं की भीड़ के लिए जाना जाता है। इन विधवाओं में ज्यादातर पश्चिम बंगाल की हैं। पश्चिम बंगाल में विधवाओं की हालत मध्यकाल से ही खराब रही है। विधवाओं की बुरी हालत को देखकर कृष्ण भक्त मध्यकालीन कवि चैतन्य महाप्रभु ने विधवाओं को जीवन के आखिरी पल वृंदावन में कृष्ण भक्ति करते हुए गुजारने की परम्परा डाली और विधवाओं को लेकर वृंदावन आ गए। तब मकसद यह था कि अपने परिवारों की उपेक्षा झेल रही विधवाओं को मन्दिर और आश्रम आसरा देंगे और उनकी जिन्दगी गुजर जाएगी। लेकिन कालांतर में हालात सामान्य नहीं रहे। परिवारों ने अपनी ही अजीज रही विधवाओं को खुद पर बोझ मानना शुरू किया और वृंदावन लाकर उन्हें अपने हाल पर जीने के लिए छोड़ने लगे। कुछ साल पहले तक वृंदावन में विधवाएँ सड़कों पर भीख माँगते दिख जाती थीं। इन विधवाओं की हालत इतनी खराब थी कि अगर उनकी मौत हो जाए तो उन्हें सामान्य और सहज अन्तिम संस्कार भी नसीब नहीं होता था। उनके शव को टुकड़ों में काटकर बोरी में बाँधकर यमुना में बहा दिया जाता था। यह खबर एक स्वयंसेवी संगठन को पता चली तो उसने सुप्रीम कोर्ट में विधवाओं की हालत सुधारने के लिए जनहित याचिका दायर कर दी। इसी जनहित याचिका पर सुनवाई करते वक्त जब विधवाओं की बदहाली की जानकारी हुई तो सुप्रीम कोर्ट ने साल 2012 में राष्ट्रीय महिला आयोग, उत्तर प्रदेश महिला आयोग, उत्तर प्रदेश सरकार, मथुरा जिला प्रशासन और सम्बन्धित विभागों को जबर्दस्त लताड़ लगाई थी। इसी सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर और यूयू ललित की सामाजिक पीठ ने कोर्ट के एमिकस क्यूरी से पूछा कि क्या विधवाओं को राहत दिलाने के लिए सुलभ इंटरनेशनल से बात की जा सकती है। जब इस पर सहमति बनी तो डॉक्टर पाठक के पास वृंदावन की विधवाओं की मदद के लिए अगस्त 2012 में चिट्ठी आई। तब डॉक्टर पाठक को द्वारका में प्रसाद मिली कृष्ण की बाँसुरी की याद आई और उन्होंने अपने सुलभ होप फाउण्डेशन के जरिए वृंदावन की विधवाओं को पहले एक हजार रुपए महीना और बाद में दो हजार रुपए महीने की सहायता देनी शुरू की। इससे वृंदावन की विधवाओं की हालत सुधर गई है। अब उन्हें भोजन के लिए भीख माँगने की जरूरत नहीं पड़ती। वृंदावन में उदासीन बाबा का आश्रम अब सुबह-शाम सुलभ की सहायता से चलने वाले भजन कार्यक्रमों से गूंजता रहता है। इतना ही नहीं इनमें जो जवान और काम करने लायक हालत में विधवाएँ हैं, उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए सिलाई-कढ़ाई जैसे कामों की ट्रेनिंग दी जा रही है। इसके अलावा अशिक्षित विधवाओं को पढ़ाने का काम भी किया जा रहा है।
सुलभ इंटरनेशनल आसानी से सहजता से उपलब्ध होने के लिए जाना जाता है। शहरों में स्वच्छता की मुहिम सहजता से मुहैया करा चुका सुलभ इंटरनेशनल अपने नाम को सार्थक करते हुए अब लगातार समाज के दूसरे क्षेत्रों में मदद के लिए हाथ बढ़ा रहा है। कमाल यह है कि यह सहज क्रान्ति सुलभ इंटरनेशनल बिना किसी शोर-शराबे के कर रहा है।
वृंदावन की तरह काशी भी विधवाओं के लिए मशहूर रहा है। हालाँकि यहाँ विधवाओं की संख्या वृंदावन की तुलना में कम है। काशी के बारे में एक कहावत भी मशहूर है- रांड़, सांड़, सीढ़ी, सन्यासी / इनते बचैं तो सेवैं काशी… लेकिन यह भी सच है कि यहाँ की विधवाओं की हालत वृंदावन की विधवाओं जितनी खराब नहीं है और ना ही वृंदावन जितनी विधवाएँ यहाँ हैं भी। फिर भी सुलभ होप फाउण्डेशन वाराणसी की भी विधवाओं को मासिक सहायता देता है। जून 2013 में जब केदारनाथ में भयानक बारिश हुई और चट्टानें खिसकीं तो केदारनाथ के पुजारियों और यहाँ फूल-प्रसाद की दुकानें लगाने वालों का कोई पता ही नहीं चला। गुप्त काशी से करीब 12 किलोमीटर दूर पुजारियों का गाँव लमगौंडी तो तकरीबन खाली हो गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो करीब पूरा गाँव ही पुरुषविहीन हो गया है। डॉक्टर पाठक ने आपदा से प्रभावित इस गाँव की विधवाओं को भी सहारा दिया। उनके लिए भी मासिक पेंशन और बच्चों के लिए स्कूल के साथ विधवाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए सेंटर चलाया जा रहा है। सुलभ के आँकड़ों के मुताबिक यह संस्था इन दिनों करीब 1500 विधवाओं को मासिक पेंशन और जरूरी ट्रेनिंग मुहैया करा रही है। आमतौर पर विधवाओं की जिन्दगी नीरस रही है। लेकिन सुलभ बंगाल की चुनी हुई विधवाओं को हर साल दुर्गापूजा के मौके पर कोलकाता ले जाता है और उन्हें दुर्गा पूजा दिखाता है। दो साल से होली के मौके पर वाराणसी और वृंदावन में खासतौर पर विधवाओं के लिए फूलों की होली का भी इंतजाम किया जा रहा है।
डॉक्टर पाठक की यह सोच ही है कि सुलभ शौचालय संस्थान की स्थापना के 33 साल बाद 2003 में उन्होंने सुलभ होप फाउण्डेशन की स्थापना की। इसके जरिए उन्होंने स्कैवेंजर मुक्ति की दिशा में राजस्थान के टोंक जिला मुख्यालय के हुजूरीगेट इलाके से शुरू किया। यहाँ की सैकड़ों महिलाओं को सिर पर ना सिर्फ मैला ढोने की कुप्रथा से मुक्त कराया जा चुका है, बल्कि समाजिक मुख्यधारा में शामिल करने के लिए सिलाई-कढ़ाई से लेकर अचार-पापड़ बनाने आदि के कामों से भी जोड़ा गया है। जिसके जरिए उन्हें अब रोजगार भी हासिल है। अब टोंक के सम्भ्रांत परिवारों में उनके बनाए अचार और पापड़ बिकते हैं। उनके सिले कपड़े उच्च वर्गीय परिवारों के लोग भी पहनते है। इस कार्यक्रम की प्रेरक सुलभ ने उषा चौमड़ को बनाया है। उषा चौमड़ अब सुलभ के स्कैवेंजर मुक्ति अभियान का प्रतीक बन चुकी हैं। वे संयुक्त राष्ट्रसंघ में भाषण दे चुकी हैं। हाल ही में उन्होंने लंदन में बुद्धिजीवियों के बीच भारतीय नारी और स्कैवेंजर मुक्ति पर भाषण दिया है। रैम्प पर चल चुकी हैं। पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर प्रतिभा पाटिल उन्हें राष्ट्रपति भवन बुलाकर सम्मानित कर चुकी हैं। डॉक्टर पाठक 2008 में भी तब चर्चा में आए थे, जब उन्होंने महाराष्ट्र के विदर्भ के यवतमाल जिले के एक छोटे से गाँव की विधवा कलावती को तीस लाख रुपए की मदद की थी। 22 जुलाई, 2008 को मनमोहन सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान राहुल गाँधी ने इस कलावती की गरीबी का जिक्र किया था। बिन्देश्वर पाठक इन दिनों उन लड़कियों को भी प्रोत्साहित कर रहे हैं, जिन्होंने शादी के बाद अपने ससुराल में शौचालय नहीं होने के बाद विद्रोह कर दिया और ससुराल जाने से मना कर दिया। उन्हें डॉक्टर पाठक दो लाख रुपए की मदद देते हैं। ऐसी मदद मध्य प्रदेश, गोरखपुर और दरभंगा जैसी जगहों पर दी जा चुकी है।
स्वच्छता अभियान से शुरुआत करने वाले सुलभ आन्दोलन का विस्तार पानी की स्वच्छता तक जा पहुँचा है। पश्चिम बंगाल के चौबीस परगना, मुर्शिदाबाद और नदिया जिलों में आर्सेनिक से भूजल खासा प्रदूषित है। इससे उन इलाके के लोगों की सेहत पर बुरा असर पड़ रहा है। इसका ध्यान जब डॉक्टर पाठक को दिलाया गया तो उन्होंने इसी साल फरवरी में यहाँ सुलभ नीर आन्दोलन की नींव डाली। इसेक तहत यहाँ के चार केन्द्रों पर पानी की सफाई के छोटे-छोटे प्लांट चल रहे हैं। इनके जरिए रोजाना तीनों जगह दस-दस हजार लीटर साफ पेयजल तैयार किया जा रहा है। सुलभ नीर के नाम से तैयार किए जा रहे इस जल को आर्सेनिक मुक्त बनाने औऱ शुद्ध करने का खर्च हैरतनाक तौर पर सिर्फ दस पैसे प्रतिलीटर है औऱ उसे पचास पैसे प्रति लीटर की दर से स्थानीय लोगों को मुहैया कराया जा रहा है। इससे स्थानीय लोगों को सेहतमंद पानी उपलब्ध कराने की दिशा में खासी मदद मिल रही है। डॉक्टर पाठक कहते हैं कि आर्सेनिक मुक्त पानी मुहैया कराने की उनके इस प्रकल्प का और विस्तार होगा। अगर सुलभ उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के गंगा किनारे स्थित इलाकों को भी आर्सेनिक मुक्त पानी मुहैया कराने की दिशा में पहल करती है तो यह एक सराहनीय कदम हो सकता है। क्योंकि यहाँ भी आर्सेनिक युक्त पानी से लोग खासे परेशान हैं। सुलभ ब्राण्ड का यह पानी सिर्फ पचास पैसे प्रति लीटर की दर पर अब वाराणसी में उपलब्ध होगा। इसका ऐलान खुद डॉक्टर पाठक ने पिछले 7 अप्रैल को वाराणसी में किया। डॉक्टर पाठक के मुताबिक स्वच्छ पानी तैयार करने वाला यह प्लांट वाराणसी के ऐतिहासिक अस्सी घाट पर लगाया जाएगा। गौरतलब है कि वाराणसी में गंगा के पानी को ही साफ करके यहाँ के लोगों को सस्ती दर पर मुहैया कराया जाएगा। प्रस्तावित प्लांट से वाराणसी में रोजाना 8,000 लीटर पानी साफ करने की योजना है। डॉक्टर पाठक के मुताबिक यह प्लांट अगले तीन महीने में स्थापित हो जाएगा। डॉक्टर पाठक के मुताबिक यह प्लांट पश्चिम बंगाल के प्लांटों की तरह पूरी तरह अव्यवसायिक होगा। इस सिलसिले में डॉक्टर पाठक ने वाराणसी को 20 लाख रुपए की मदद देने का ऐलान भी किया है।
प्रस्तावित प्लांट से वाराणसी में रोजाना 8,000 लीटर पानी साफ करने की योजना है। डॉक्टर पाठक के मुताबिक यह प्लांट अगले तीन महीने में स्थापित हो जाएगा। डॉक्टर पाठक के मुताबिक यह प्लांट पश्चिम बंगाल के प्लांटों की तरह पूरी तरह अव्यवसायिक होगा। इस सिलसिले में डॉक्टर पाठक ने वाराणसी को 20 लाख रुपए की मदद देने का ऐलान भी किया।
गौरतलब है कि इतनी ही रकम में ये प्लांट स्थापित किया जाएगा। सुलभ पेयजल योजना के तहत तालाब के पानी को भी साफ करके पीने योग्य बनाने की भी तैयारी है। पानी शोधन का यह प्लांट सुलभ इंटरनेशनल और फ्रांसीसी संस्था 1001 फोंटेन्स के संयुक्त उपक्रम के तहत स्थापित किया जा रहा है और पश्चिम बंगाल में भी। जिसके तहत पानी को कई चरणों में साफ किया जाता है। अस्सी घाट पर डॉक्टर पाठक ने कहा कि पानी साफ करने की सबसे सस्ती तकनीक से लोगों को सीधे फायदा होगा। सुलभ अब सम्भावनाओं का ऐसा वटवृक्ष बन गया है। सुलभ स्कैवेंजर वाले इलाकों में ‘नई दिशा’ नाम से अलग से शिक्षा-ट्रेनिंग के कार्यक्रम चला रहा है। जो राजस्थान के टोंक और अलवर में, उत्तर प्रदेश के नेकपुर और गाजियाबाद में ट्रेनिंग संस्थान और स्कूल चला रहा है। सुलभ के दिल्ली मुख्यालय के नजदीक सुलभ पब्लिक स्कूल और सुलभ वोकेशनल ट्रेनिंग सेंटर भी चल रहा है। सुलभ ने दलितों और कमजोर लोगों को साक्षर बनाने के लिए सुलभ साक्षरता मिशन भी चला रहा है। इसके साथ ही सुलभ साहित्य अकादमी भी काम कर रही है। जिसमें मैथिली साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर और साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता गंगेश गुंजन और डॉक्टर निशांत केतु का सहयोग मिल रहा है। सुलभ का मतलब है आसानी से सहजता से उपलब्ध होना। शहरों में स्वच्छता की मुहिम सहजता से मुहैया करा चुका सुलभ इंटरनेशनल अपने नाम को सार्थक करते हुए अब लगातार समाज के दूसरे क्षेत्रों में भी मदद के लिए हाथ बढ़ा रहा है।
एक बड़ी क्रान्ति की शुरुआत- डॉक्टर पाठक
प्रधानमन्त्री की स्वच्छ भारत अभियान और सबके लिए शौचालय की योजना को आप किस तरह देखते हैं?
शौचालय की क्रान्ति की दिशा में इस देश में अब तक महात्मा गाँधी और मैंने ही काम किया है। इसके बाद मोदी जी पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने इतनी संजीदगी से इस मसले को नहीं उठाया है। ऐसा नहीं कि बाकी लोगों ने इस मसले को उठाया। लेकिन बड़े पैमाने पर हम ही लोगों ने इस मसले को उठाया है। गाँधीजी तो इस मसले को इतना अधिक महत्व देते थे कि उन्होंने कहा कि हमें आजादी से पहले देश की सफाई चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यवश इस मसले की तरफ बाद में किसी ने संजीदगी से ध्यान नहीं दिया। देश में अंग्रेजों के आने से पहले आमतौर पर खुले में ही शौच की परम्परा थी। वह आज भी है। लेकिन अगर शौच का इंतजाम था भी तो वह इंसानों के जरिए सफाई वाली व्यवस्था पर था। गाँधी जी ने सबसे पहले उनकी मुक्ति की दिशा में काम किया। हाँ, अंग्रेजों ने यह किया कि उन्होंने सीवर व्यवस्था पर आधारित शौचालय व्यवस्था का इंतजाम शुरू किया और कलकत्ता में सबसे पहले 1870 में सीवर शुरू किया। लेकिन दुर्भाग्यवश तब से लेकर अब तक के 144 साल में सिर्फ 160 शहरों में ही सीवर व्यवस्था शुरू हो पाई है। जबकि इस देश में 7935 शहर हैं। जाहिर है कि अब भी तमाम उपायों के बावजूद इंसानों के जरिए साफ किए जाने वाले शौचालय या खुले में शौच करने का इंतजाम ही ज्यादा है। इस हालत में मोदी जी की लाल किले से अपील का बड़ा असर होना है। हमारी आवाज को लोग उतनी गहराई से नहीं सुनते थे। लेकिन अब लोग इसके प्रति जागरूक होंगे और इस तरफ अब सबका ध्यान गया है। इसलिए मेरा तो मानना है कि देश को स्वच्छ और मैला ढोने वाले लोगों की जिन्दगी सुधारने की दिशा में मोदी जी की यह अपील युगांतकारी साबित होने वाली है।
आपने शौचालयों पर बड़ा काम किया है। इस सिलसिले में देश की परम्पराओं- कुपरम्पराओं दोनों को देखा है। आपने कहा कि गाँधी जी ने इसकी तरफ पहली बार ध्यान दिलाया.. आखिर उनका सुझाव क्या था और क्यों नहीं उनकी बताई राह लागू हो पाई?
गाँधी जी ने अपने डरबन के आश्रम में सबसे पहले फैंस लैट्रीन यानी चारदीवारी के भीतर शौच का इंतजाम शुरू किया। उनकी व्यवस्था में हर व्यक्ति को अपना शौचालय साफ करना होता था। आज भी पुराने गाँधीवादियों में आप यह चलन देख सकते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के लिए उनका सुझाव था कि झाड़ी में जाइए और शौच कीजिए। शौच के बाद उस पर मिट्टी डालिए। शौचालय की सफाई के जरिए वे दरअसल मैला साफ करनेवाले लोगों को समाज में बेहतर स्थान दिलाना चाहते थे। हमारे यहाँ परम्परा रही है कि घर के नजदीक शौच ना करें। गाँधी जी ने उसमें बदलाव का इंतजाम किया और चारदीवारी के भीतर शौच व्यवस्था की शुरुआत की। उनकी कोशिश इन लोगों को शौच सफाई के घिनौने काम से मुक्ति दिलानी थी। वे शौचालय को सामाजिक बदलाव के औजार को तौर पर देखते थे। गाँधी शताब्दी के दौरान 1969 में मुझे लगा कि इस दिशा में काम किया जाना चाहिए। इसलिए मैंने सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना की और इसकी तरफ काम शुरू किया।
अब मोदी जी ने लालकिले से लड़कियों के लिए शौचालय का इंतजाम करने के लिए कॉरपोरेट से आगे आने की अपील की। इसका क्या असर दिख रहा है।
आप बता रहे थे कि मोदी जी की अपील के बाद सबसे पहले टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज ने 100 करोड़ रुपए से देश के दस हजार स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय बनाने का ऐलान किया है। भारती-एयरटेल कम्पनी ने भी 100 करोड़ से पंजाब के स्कूलों में शौचालय बनाने का फैसला किया है। ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स भी दो करोड़ की लागत से शौचालय बनाने जा रहा है। कहने का मतलब है कि देश में सफाई की दिशा में मोदी जी की अपील के बाद एक बड़ी क्रान्ति की शुरुआत हो चुकी है। सबसे बड़ी बात यह है कि अब सांसदों और कम्पनियों को अपने कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉसबिलिटी फण्ड से शौचालय बनाना होगा। इससे देश की सफाई के प्रति लोगों का नजरिया जहाँ सकारात्मक होगा, वहीं हमारी माताओं, बहनों और बेटियों को खुले में जाने की शर्मिंदगी से मुक्ति मिलेगी। इससे बड़ा सामाजिक बदलाव होगा।
साभार : यथावत 16-31 मई 2015
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