डॉ. इकबाल मलिक
दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के दिल्ली नगर निगम और नई दिल्ली नगरपालिका क्षेत्र में हर रोज 5500 टन कूड़ा-करकट निकलता है। यह कूड़ा-करकट आवासीय क्षेत्रों, सामुदायिक केन्द्रों, बाजारों और होटलों से निकलता है। अस्पतालों से हर रोज 70 टन अतिरिक्त कूड़ा-कचरा निकलता है।
यद्यपि हमारे चारों ओर कूड़ा-घर बने हैं, इनमें से कुछ दूसरों की अपेक्षा अधिक खतरनाक हैं। अस्पतालों के कूड़ा-घर इसी वर्ग में आते हैं। अस्पतालों से निकलने वाला अधिकांश कचरा अस्पताल में भर्ती किए गए मरीज फैलाते हैं। बहिरंग रोगी अस्पताल में अधिक गन्दगी नहीं फैलाते। अस्पताल में भर्ती हर रोगी से प्रतिदिन औसतन डेढ़ किलोग्राम कचरा निकलता है। अस्पताल से निकलने वाले कुल कचरे में से 47 प्रतिशत जीव-चिकित्सा सम्बन्धी होता है। यह खतरनाक होता है क्योंकि इसमें रोग फैलाने वाले कीटाणु होते हैं। मनुष्यों और पशुओं के अवशेष, खून और मानव शरीर के द्रव से तर-बतर अन्य सामग्री, रद्दी चिकित्सा उपकरण, दूषित रुई, प्लास्टर, ड्रेसिंग एवं शल्य-चिकित्सा और शव परीक्षा का कचरा स्वास्थ्य के लिए गम्भीर खतरा हो सकता है क्योंकि ये वस्तुएँ जीवाणु, वायरस और अन्य सूक्ष्म जीवों के विकास के लिए अनुकूल वातावरण पेश करती हैं। रोगों को जन्म देने वाले एसचेरीचिया, सेलमोनीला, विबरियो हेपेटाइटिस के कीटाणु तब तक सक्रिय रहते हैं जब तक उन्हें जलाकर नष्ट नहीं कर दिया जाता। इन रोगों के कीटाणु विभिन्न एजेंटों के जरिए दूर-दूर तक ले जाए जा सकते हैं। शल्य चिकित्सा और शव परीक्षा का कचरा, अगर वह अनुपचारित है तो बहुत संक्रामक होता है।
अस्पतालों के कूड़े-करकट को सही तरीके से ठिकाने न लगाने के कारण अनेक बीमारियाँ हो सकती हैं। इनमें से अधिकांश घातक है जैसे कि एड्स, वायरल हेपेटाइटिस, क्षय रोग, श्वासनली शोथ (ब्रांकाइटिस), आमाशय और आँतों की सूजन और त्वचा और आँखों से सम्बन्धित रोग।
दिल्ली में 27 बड़े अस्पताल हैं। नगर की विभिन्न आवासीय कालोनियों में सैकड़ों नर्सिंग होम स्थापित हो गए हैं। इनके अलावा सी.जी.एच.एस. के औषधालय, स्थानीय चिकित्सकों की दुकानें और पशु चिकित्सालय भी हैं। इन दुकानों, अस्पतालों और आरोग्याश्रमों में इलाज के लिए हर रोज लाखओं लोग जाते हैं। इनमें बच्चों से लेकर दुर्घटनाओं के शिकार व्यक्ति सभी होते हैं। लेकिन इनमें से किसी को इस बात का पता नहीं होता कि जिस ‘सिरींज’ से उन्हें सुई लगाई जा रही हैं वह अस्पताल के पीछे पड़े कूड़े-करकट के ढेर से उठाई गई हो सकती है अथवा जीवन रक्षक द्रव जो उनकी शिराओं में पहुँचाया जा रहा है, उस बोतल में भरा हो सकता है जिसे कूड़े-करकट के ढेर से उठाकर पुनः इस्तेमाल में लाया गया है।
यही नहीं घरों या फ्लैटों के कुछ भाग में डाक्टरों द्वारा शल्य चिकित्सा की जाती है। इन घरों और फ्लैटों का सारा कचरा (जीवचिकित्सा, शल्यचिकित्सा सम्बन्धी अथवा संक्रामक जिसके पुनरुपयोग की सम्भावना है), समीप के कूड़ा घर में या नगरपालिका के कूड़ेदान में फेंक दिया जाता है।
अस्पतालों से निकलने वाला कचरा अधिक खतरनाक होता है। इसमें रोग फैलाने वाले कीटाणु होते हैं। दिल्ली के अस्पतालों से निकलने वाले कचरे और कूड़े-करकट को ठिकाने लगाने की व्यवस्था का अध्ययन करने के बाद लेखक का मत है कि कूड़ा-करकट हटाने और उसे उपयुक्त स्थान पर डालने की पक्की और कारगर व्यवस्था होनी चाहिए और उसे कठोरता से लागू किया जाना चाहिए। साथ ही सभी लोगों में इस बात की चेतना जागृत की जानी चाहिए कि कूड़ा-करकट का निपटारा पूरी जिम्मेदारी के साथ किया जाए। लेखक का मानना है कि कचरा और कूड़ा-करकट हटाने और उसे उपयुक्त स्थान पर फेंकने के काम में समाज के सभी वर्गों को शामिल किया जाना चाहिए।
छह प्रतिशत अच्छे सरकारी अस्पतालों की तुलना में आठ प्रतिशत निजी अस्पताल रोगियों को बेहतर सुविधाएँ उपलब्ध कराते हैं। जहाँ तक अस्पतालों से निकलने वाले कचरे का प्रश्न है, दोनों में कोई अन्तर नहीं है। अधिकांश औषधालय अपना कचरा जिसमें दूषित पट्टियाँ और प्लास्टर शामिल हैं, अपनी दीवाल के बाहर फेंक देते हैं। लगभग सभी छोटे डाक्टर ‘डिसपोजेबल सिरिंज’ या तो कूड़ेदान में या अपनी दुकान के बाहर फेंक देते हैं। केवल 0.0001 प्रतिशत निजी अस्पताल स्वास्थ्य मन्त्रालय द्वारा निर्धारित नियमों का पालन करते हैं।
भारत में अस्पतालों के कचरे के निपटान में तीन प्रमुख समस्याएँ हैं। देश के अधिकांश अस्पतालों में मानव शरीर का कचरा, प्रयोगशालाओं से निकला रक्त, शरीर द्रव कचरा अथवा संक्रामक या छूत के रोगामूलक कीटाणुओं को आवश्यक तापमान पर नष्ट नहीं किया जा रहा है। दूसरी समस्या यह है कि इस्तेमाल के बाद फेंक दिया गया अधिकांश सामान-सिरिंज, केथेटर्स (शरीर में डाली गई नलियाँ) आइवी बोतलें, ब्लड बैग आदि या तो धोकर और अक्सर बिना धोए फिर से चलन में आ जाते हैं। तीसरी समस्या है कि दूषित रुई और पट्टियों का इस्तेमाल रजाइयाँ और दरियाँ बनाने में किया जाता है।
यद्यपि कचरे को स्रोत पर अलग-अलग नहीं किया जाता कबाड़ी या थोक विक्रेता के स्तर पर ऐसा किया जाता है। सामान को अलग करने का यह कार्य केवल उसे अलग-अलग स्रोतों को बेचने के लिए किया जाता है। भारत में 98 प्रतिशत पीवीसी की वस्तुएँ भस्मीकरण यन्त्र तक नहीं पहुँचती। अतः यहाँ मुख्य समस्या अस्पतालों के कचरे के पुनरुपयोग से घातक बीमारियों के फैलने की है।
प्रभावी प्रबंध
आइए देखें कि भारत की परिस्थितियों में किस तरह अस्पताल के कचरे की कुशलता और कारगर तरीके से ठिकाने लगाया जा सकता है। देश के अधिकांश अच्छे अस्पतालों में भस्मीकरण यन्त्र है। सबसे पहले उनका आधुनिकीकरण करने की जरुरत है। यह सबसे किफायती विकल्प होगा और इसका सबसे कम विरोध किया जाएगा। छोटे नर्सिंग होम और औषधालयों के लिए कुछ अतिरिक्त भस्मीकरण यन्त्र लगाए जा सकते हैं।
यह महत्वपूर्ण है कि सरकार पुरानी टेक्नोलाजी का प्रयोग रोके और नगर में भस्मीकरण यन्त्रों की भरमार न होने दे। इसका आसान तरीका यह होगा कि पहले यह पता लगाया जाए कि कितना कचरा जलाया जाना है। फिर उसी हिसाब से भस्मीकरण यन्त्रों की संख्या निर्धारित की जाए। अस्पतालों से जो कुल कचरा निकलता है उसके 25 प्रतिशत को ही जलाना आवश्यक होता है। उदाहरण के लिए दिल्ली के सभी अस्पतालों से निकले कचरे में से प्रतिदिन लगभग 2000-3000 किलोग्राम कचरा जलाना आवश्यक होता है। इस तरह 200 किलोग्राम क्षमता के 10-15 भस्मीकरण यन्त्र न लगाए जाएँ क्योंकि उनका प्रबंध अपेक्षाकृत कठिन होगा।
भारतीय अस्पताल में इस्तेमाल के बाद फेंक दिए जाने वाले उपकरणों के प्रयोग से चिकित्सा का खर्च बहुत बढ़ गया है। अगर अस्पताल प्लास्टिक उपकरणों का प्रयोग शुरू कर दें तो न केवल इस्तेमाल की हुई वस्तुओं के पुनरुपयोग की समस्या हल हो जाएगी बल्कि चिकित्सा लागत में भी कमी आएगी, जिसकी आवश्यकता भी है। इस प्रकार सभी अस्पतालों में ‘स्टीम स्टेरिलिजेशन’ (वाष्प विसंक्रमण) अथवा आटो क्लीनिंग (स्वतः सफाई) की सुविधाएँ उपलब्ध कराने की आवश्यकता है। इस समय इनका लगभग अभाव है। अगर कोई अस्पताल फिर भी फेंकने योग्य उपकरणों के प्रयोग पर जोर देता है तो उस पर इस तरह के उपकरणों को कचरे में डालने के स्थान पर उन्हें पूरी तरह नष्ट करने की जिम्मेदारी डाली जानी चाहिए ताकि कचरा बीनने वाले उन्हें बटोर नहीं सकें या अस्पताल के कर्मचारी उन्हें चुरा न सकें।
रोकथाम के उपाय
1. अस्पताल के निचले स्तर के कर्मचारियों को अस्पताली कचरे के दुरुपयोग से उत्पन्न खतरों से परिचित कराने के लिए नवीकरण कार्यक्रम शुरू किया जाए।
2. अस्पतालों में कचरा इकट्ठा करने की व्यवस्था कड़ी की जाए।
3. वर्तमान भस्मीकरण संयंत्रों की क्षमता और कुशलता बढ़ाई जाए। इसके लिए आधुनिकतम टेक्नोलाजी इस्तेमाल की जाए।
4. सभी अस्पतालों में अस्पताली कचरे का दुरुपयोग रोकने का कार्यक्रम लागू करने और उसकी जाँच के लिए निगरानी शाखा/ अधिकारियों की नियुक्ति की जाए।
(क) स्रोत पर ही कचरे को अलग-अलग किया जाए।
(ख) अलग-अलग किस्म के कचरे को अलग-अलग रखा जाए और उसे अलग-अलग ढंग से ठिकाने लगाया जाए।
(ग) संक्रामक कचरे की वार्ड/ डिपार्टमेंट स्तर पर विसंक्रमित कर दिया जाए।
(घ) सड़-गल जाने वाले असंक्रामक कचरे से कम्पोस्ट (खाद) का निर्माण किया जाए।
(ड़) इस बात की जाँच हो कि केवल रोगजनित कचरा जलाया जाए और इस दौरान सही ईंधन, तापमान और समय का ख्याल रखा जाए।
5. भस्मीकरण संयंत्रों में केवल वे पेट्रो-रसायन इस्तेमाल किए जाएँ जो 900-1200 सेल्सियस तापमान पर जलें।
6. इस्तेमाल के बाद फेंके जा सकने वाले पीवीसी चिकित्सा उपकरण जैसे कि बोतल, ब्लड बैग और सिरिंज के स्थान पर फिर से प्रयुक्त हो सकने वाले काँच के उपकरणों का इस्तेमाल किया जाए। पीवीसी उपकरण संक्रमण के प्रमुख स्रोत होते हैं।
7. सभी अस्पतालों में आटोक्लेविंग (उच्च दाब के भाप से विसंक्रमण करने वाला यन्त्र) की सुविधा होनी चाहिए।
8. संक्रमित पट्टियों को विसंक्रमित करने के बाद उसके टुकड़े-टुकड़े कर देने चाहिए ताकि उनका फिर से इस्तेमाल न हो सके।
9. अगर छोटे नर्सिंग होम के मालिक अपना कचरा सामुदायिक कूड़ाघर में फेंके तो उन्हें कठोर दण्ड दिया जाए।
10. केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड को विभिन्न अस्पतालों के भस्मीकरण यन्त्रों से निकलने वाले धुएँ और राख की जाँच की व्यवस्था करनी चाहिए।
11. चिकित्सा, नर्सिंग और प्रशासकीय कर्मचारियों के लिए एकीकृत कचरा प्रबंध पाठ्यक्रम शुरू किया जाना चाहिए।
अब मैं दिल्ली वासियों द्वारा पैदा किए जा रहे कचरे की खासतौर पर चर्चा करूँगा। हमारे नगरों और कस्बों में जो कूड़ा-करकट दिखाई देता है उससे स्पष्ट हो जाता है कि हम ठोस कूड़े-करकट को ठीक से ठिकाने नहीं लगाते। ठोस कूड़ा-करकट महाविपत्ति बन रहा है। कानूनन स्थापित कूड़ा-घर कूड़े से भर गए हैं और गलियों, पार्कों और सड़कों के किनारे पर गैर कानूनी कूड़ा-घर बढ़ते जा रहे हैं। ये कूड़ा-घर आसपास की धरती को बेकार बना रहे हैं।
एक अनुमान के अनुसार देश की कम-से-कम 8 प्रतिशत धरती कूड़े के कारण बंजर हो गई है। इस धरती पर न तो कुछ उगाया जा सकता है और न ही कोई और उपयोगी कार्य किया जा सकता है। साथ ही ये कूड़ा-घर प्लेग, हैजा, क्षय रोग, पीलिया और अनेक किस्म के त्वचा रोगों को जन्म देने वाले संक्रामक कीटाणुओं को जन्म देते हैं। इस अनियंत्रित कूड़े-करकट के कारण नागरिकों को अनेक तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है जैसे कि जल-मल प्रणाली का बन्द हो जाना और जहरीली गैसों में वृद्धि। भारतीय जलवायु में अगर कूड़ा-करकट 8 से 12 घंटे तक भी वैसा पड़ा रहता है तो उसमें इतने जीवाणु पैदा हो जाते हैं जो नागरिकों के स्वास्थ्य को प्रभावित करने के लिए काफी हैं। अगर कूड़ा-करकट को समुचित उपाय किए बिना किसी गड्ढे में दबा दिया जाए तो उससे मिथेन जैसी जहरीली गैस निकल सकती है जो अत्यधिक खतरनाक होती है।
उदाहरण के लिए दिल्ली को लें। दिल्ली की धरती घरों से निकले कूड़े-करकट से पट गई है। अंधाधुंध कूड़ा-करकट गिराने के कारण जमीन की कमी की समस्या से ग्रस्त दिल्ली में जमीन का बहुत बड़ा हिस्सा बंजर हो गया है। पर्यावरण सम्बन्धी जोखिम के अलावा इसके कारण उपजाऊ जमीन बेकार हो रही है। दिल्ली में लगभग 5000 कूड़ा-घर हैं। इनका आकार-प्रकार और कूड़ा हर रोज बढ़ता जाता है। अनुमान है कि दिल्ली की पाँच प्रतिशत जमीन कूड़े के कारण बंजर हो गई है।
दिल्ली में कूड़ा-करकट हटाने और उसे दूर फेंकने की जिम्मेदारी दिल्ली नगर निगम की है। नगर निगम ने विभिन्न बस्तियों की सफाई, कूड़ा एकत्र करने और उसे फेंकने के लिए तीन हजार कर्मचारियों की नियुक्ति की हुई है। हर महीने उनके वेतन-भत्तों पर लाखों रुपये खर्च किए जाते हैं और लाखों रुपये कूड़े के स्थानान्तरण पर खर्च किए जाते हैं। 431 कूड़ा ले जाने वाले ट्रक, 66 बड़े एवं 70 छोटे कूड़ा एकत्रक वाहन, 59 डम्पर प्लेसर, 5 सड़क साफ करने वाले यांत्रिक वाहन और 95 फ्रंट एण्ड लोडर्स वाली इस सम्पूर्ण व्यवस्था के लिए हर महीने हजारों रुपये और चाहिए। इस तरह की अवैज्ञानिक, पर्यावरण रक्षा और दिल्ली को साफ-सुथरा रखने में विफल योजना पर इतनी बड़ी धनराशि खर्च करने के बावजूद कोई नतीजे प्राप्त नहीं होते। दिल्ली नगर निगम का अधिकांश पैसा कूड़े-करकट को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाने में ही खर्च हो जाता है।
सफाई ब्रिगेड
आइए अब इसकी तुलना एक देसी, जनता के लिए उपयोगी, वैज्ञानिक और पर्यावरण की रक्षा के प्रति सजग, विकेन्द्रित कूड़ा-करकट हटाने की योजना ‘सफाई ब्रिगेड’ से करें। सफाई ब्रिगेड गैर-सरकारी संगठन ‘वातावरण’ का एक कार्य दल है।
ऐसा पहला सफाई सफाई ब्रिगेड साढ़े तीन वर्ष पूर्व शुरू किया गया था। तब से इसका लगातार विस्तार हुआ है। हाल ही में इसने वसन्त कुंज और नोएडा के अनेक क्षेत्रों में अपना काम शुरू किया है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय परिसर में 950 घरों, आठ छात्रावासों, अनेक शैक्षिक और प्रशासकीय विभागों, बाजार समूह, स्वास्थ्य केन्द्र, ढाबा, कैन्टीन, पशु-आवास और अतिथिगृहों से निकले कूड़ा-करकट का प्रबंध सफाई ब्रिगेड कर रही है।
देश की कम-से-कम 8 प्रतिशत धरती कूड़े के कारण बंजर हो गई है। इस धरती पर न तो कुछ उगाया जा सकता है और न ही कोई और उपयोगी कार्य किया जा सकता है। साथ ही ये कूड़ा-घर प्लेग, हैजा, क्षय रोग, पीलिया और अनेक किस्म के त्वचा रोगों को जन्म देने वाले संक्रामक कीटाणुओं को जन्म देते हैं। इस अनियंत्रित कूड़े-करकट के कारण नागरिकों को अनेक तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है जैसे कि जल-मल प्रणाली का बन्द हो जाना और जहरीली गैसों में वृद्धि। भारतीय जलवायु में अगर कूड़ा-करकट 8 से 12 घंटे तक भी वैसा पड़ा रहता है तो उसमें इतने जीवाणु पैदा हो जाते हैं जो नागरिकों के स्वास्थ्य को प्रभावित करने के लिए काफी हैं।
यह योजना बड़े सरल ढंग से चलती है। जब कभी किसी बस्ती के निवासी अपने बिखरे कूड़े-करकट से परेशान हो जाते हैं और सरकारी एजेंसियाँ भी उनकी बात नहीं सुनतीं, तब वे ‘वातावरण’ से सम्पर्क करते हैं। इस संगठन के क्षेत्र कार्यकर्ताओं (फील्ड वर्कर्स) का एक दल बस्ती के कूड़े-करकट की किस्म और मात्रा का अध्ययन करता है और इस बात का फैसला करता है कि बस्ती के प्रत्येक घर को हर माह कितना (30 रु. से 35 रु. तक) अंशदान करना होगा। दल के लोग बस्ती के भीतर कम्पोस्ट बनाने के लिए बंजर धरती का एक टुकड़ा तलाश करते हैं। वे कूड़े से उपयोगी सामान बीनने वाले स्थानीय लड़कों और बेरोजगार युवकों से सम्पर्क करते हैं और उन्हें व्यवस्थित रूप से कूड़ा एकत्र करने, कूड़ा ले जाने और उसे अलग-अलग करने का प्रशिक्षण प्रदान करते हैं। रेजीडेंट एसोसिएशन सभी निवासियों को योजना में भाग लेने का परिपत्र भेजता है, दल के सदस्यों के लिए तिपहिया खरीदता है। जनता को कूड़े-करकट के प्रति अधिक उत्तरदायी बनाने का प्रयास किया जाता है। उन्हें अपनी-अपनी कूड़े की बाल्टी या कूड़े-पात्र में अस्तर लगाने और कूड़ा अलग रखने के लिए दो कूड़ा-पात्र इस्तेमाल करने की भी सलाह दी जाती है। उनसे कहा जाता है कि वे सफाई ब्रिगेड के लड़कों को अपने परिवार का सदस्य समझें और उनके साथ लाड़ प्यार से व्यवहार करें। एक महीने तक यह सब तैयारी करने के बाद योजना शुरू कर दी जाती है।
खाद या कम्पोस्ट बनाने लायक कूड़े-करकट से खाद बना ली जाती है। फिर से इस्तेमाल हो सकने वाली सामग्री को बेच दिया जाता है। इस प्रकार अर्जित आय और बस्ती के निवासियों से एकत्र की गई राशि वेतन के रूप में सफाई ब्रिगेड के लड़कों में वितरित कर दी जाती है। प्रत्येक योजना में एक सुपरवाइजर, डिप्टी सुपर-वाइजर और कुछ कूड़ा एकत्र करने वाले लड़के शामिल होते हैं।
सफाई ब्रिगेड एक श्रम-बहुल और रोजगार पैदा करने वाली योजना है। इसे कूड़ा आदि एकत्र करने के लिए भारी-भरकम उपकरणों या कूड़ा डालने के लिए किसी गड्ढे आदि की जरुरत नहीं पड़ती। इसमें पूँजी बिल्कुल नहीं लगानी पड़ती, उल्टे इससे कुछ लोग आजीविका कमाते हैं।
सफाई ब्रिगेड एक श्रम-बहुल और रोजगार पैदा करने वाली योजना है। इसे कूड़ा आदि एकत्र करने के लिए भारी-भरकम उपकरणों या कूड़ा डालने के लिए किसी गड्ढे आदि की जरुरत नहीं पड़ती। इसमें पूँजी बिल्कुल नहीं लगानी पड़ती, उल्टे इससे कुछ लोग आजीविका कमाते हैं।
सफाई ब्रिगेड को निरंतर प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके लड़कों में अपने कार्य के प्रति निष्ठा है। उन्हें इस बात का गर्व है कि किसी बस्ती में योजना शुरू करने के बाद वे एक पखवाड़े के भीतर अच्छे नतीजे दिखा सकते हैं।
पीतमपुरा से पारिजात एपार्टमेंट्स में ‘वातावरण’ ने वहाँ की सफाई करने वाली औरतों को भी सफाई ब्रिगेड में शामिल कर लिया है। ये औरतें वर्षों से घर-घर से कूड़ा इकट्ठा करती रही हैं। लेकिन वे इसे परिसर के एक कोने में फेंक देती थीं। प्रशिक्षण लेने के बाद और सफाई ब्रिगेड के लड़कों की सहायता से अब वे इस कूड़े से कम्पोस्ट बना रही हैं।
यद्यपि कूड़े-करकट से खाद या कम्पोस्ट कई तरह से बनाई जा सकती है। वायु के दबाव से बात निरपेक्ष तरीके से एवं कीड़ों या जीवाणुओं की सहायता से परन्तु आवासीय बस्तियों में बात-निरपेक्ष तरीके से सफाई ब्रिगेड खाद तैयार करती है। इसका कारण है कि इसमें शुरू में धन नहीं लगाना पड़ता, कूड़े के ढेर दिखाई नहीं देते, खाद बनने के दौरान दुर्गन्ध नहीं आती और साग-सब्जी और माँस दोनों के कचरों से खाद बनाई जा सकती है। इसके अलावा दिल्ली की अधिकांश बस्तियों में पानी की तंगी रहती है और वात-निरपेक्ष तरीके से कम्पोस्ट तैयार करने में पानी की जरुरत नहीं पड़ती।
सफाई ब्रिगेड के काम का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू यह है कि कूड़ा-करकट कभी जमीन को छूता नहीं। उसे कूड़ा एकत्र करने वालों को दिया जाता है, रिक्शा में अलग-अलग डाला जाता है और कम्पोस्ट बनाने लायक कचरा सीधा खाद के गड्ढे में डाल दिया जाता है।
कूड़ा-करकट एकत्र करने, उससे खाद बनाने और शेष कूड़े को कबाड़ी को बेच देने के इस सरल तरीके को 20 बस्तियों में 20 बार दोहरा कर ‘वातावरण’ ने कूड़ा प्रबंध की अपनी गतिविधियों को स्कूलों, कालेजों, होटलों, छात्रावासों, सेना के मेस और छावनी क्षेत्र में बढ़ा दिया है। इन स्थानों में कीड़ों या जीवाणुओं के जरिए कम्पोस्ट बनाने की विधि अपनाई गई है।
कूड़े-करकट को विकेन्द्रित तरीके से ठिकाने लगाने के ‘वातावरण’ के प्रयास में सेना भी शामिल हो गई है। जवान अपने ‘मेस’ में एक वार्मपिट का प्रबंध करते हैं और सैनिक अधिकारियों की पत्नियाँ अपनी आवासीय बस्तियों में ‘वातावरण’ की सहायता से सफाई ब्रिगेड शुरू करने वाली हैं। वर्षों से छावनी बोर्ड, जो छावनी क्षेत्र का कूड़ा-करकट ठिकाने लगाने के लिए जिम्मेदार है, इस क्षेत्र का कूड़ा-करकट निकलसन रेंज में फेंकता रहा है। वहाँ यह कूड़ा इधर-उधर बिखरा रहता था। ‘वातावरण’ ने उस समूचे कूड़े को ढेरों में इकट्ठा किया। इसके लिए सेना के बुलडोजरों का इस्तेमाल किया गया। जीवाणुओं की सहायता से 800 टन मिले-जुले कूड़े को 500 टन अच्छी खाद में बदल दिया गया। कूड़े से प्लास्टिक हटाने में सेना के जवानों ने सहायता की। इस व्यापक अभियान के दौरान जवानों ने कड़ी मेहनत की और अफसरों ने पूरा सहयोग दिया। इस काम के लिए किसी किस्म के भारी-भरकम यन्त्रों/ उपकरणों की जरुरत नहीं पड़ी। ‘वातावरण’ के दल ने इस कार्यविधि को इतना सरल बना दिया है कि शुरू में बिना अधिक पैसा खर्च किए इसे आसानी से लागू किया जा सकता है।
कूड़े-करकट की व्यवस्था करना एक संगठित कार्य है। इस कार्य को दैनिक आधार पर करना पड़ता है। यह एक समर्पित काम है। ‘वातावरण’ बिना भारी गाड़ियों ‘लोडरों’, भारी मशीनों या संयंत्रों की सहायता से कूड़े के निपटान की व्यवस्था करता है। यह एक गाँधीवादी योजना है जिसमें श्रम शक्ति को सर्वोच्च महत्व दिया जाता है। यद्यपि सभी सफाई ब्रिगेड आत्मनिर्भर होती है, ‘वातावरण’ ने कूड़ा उठाने को व्यवसाय नहीं बनाया है।
यह एक स्वैच्छिक कार्य है। इससे कोई आर्थिक लाभ तो नहीं होता लेकिन सैकड़ों कूड़ा बीनने वालों की सद्भावना प्राप्त होती है जिनका जीवन इसके कारण बदल गया है। ये सब ‘वातावरण’ की सफाई ब्रिगेड के सदस्य हैं। मेरे लिए इस कार्य में समाज की भागीदारी प्राप्त करना और सफाई ब्रिगेड के काम में सभी ‘रेजीडेंट’ एसोसिएशनों का सक्रिय सहयोग प्राप्त करना एक फलदायक अनुभव रहा है। दिल्ली के 18 से 20 लाख गृहस्थ जिनका कूड़ा-करकट ‘वातावरण’ परिवार के सदस्य हो गए हैं। इनमें से प्रत्येक अपने कूड़े के लिए जिम्मेदारी अनुभव करता है और उसे इस तरह ठिकाने लगाता है कि वह मनुष्य और प्रकृति के लिए संकट का कारण न बने।
लेखक पर्यावरण सुधार के क्षेत्र में कार्यरत स्वयंसेवी संगठन ‘वातावरण’ के निदेशक हैं।
साभार : योजना अगस्त 1997
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