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ऐसा नहीं कि जैविक खेती में कोई परेशानियां नहीं होतीं। इनसे बचने के जैविक खेती के अपने तरीके हैं, जो आश्चर्यकारक ढंग से कारगर हैं। उनमें भी अहिंसा भाव है। नहीं तो क्या यह संभव है कि जहां सामान्य खेती में कीट-खरपतवारनाशक हैं, जैविक खेती में यही काम करने वाले पदार्थ को जीवामृत कहा जाए?
अब उनके हाथ-पैर में खेत की मिट्टी लगी रहती है। अभी कुछ ही बरस पहले तक वे अमेरिका की कंप्यूटर कंपनियों में तरह-तरह के यंत्रों से घिरे रहते थे। नाम है इनका टी.एस. अनंतू। देश के सबसे ऊंचे माने गए तकनीक संस्थान आई.आई.टी. से कंप्यूटर का पूरा व्यवहार और दर्शन पढ़कर वे निकले थे। कोई 30 बरस पुरानी बात होगी यह। उन दिनों देश में कंप्यूटर की कोई खास जगह थी नहीं। इक्के-दुक्के कंप्यूटर एक अजूबे की तरह कुछ गिनी-चुनी जगहों पर रहे होंगे। ऐसे में अनंतूजी यहांअपनी जड़ों से कट कर सब चेतन-अचेतन मुरझा जाते हैं। मूल से कट कर मूल्य भी कहां बचाए जा सके हैं। सभ्यताएं, समाज भी हरे-भरे पेड़ों की तरह ही होते हैं। उन्हें भी अच्छे विचारों की खाद, मन-जल की नमी, ममता की आंच, प्रेम सी सरलता और प्रकृति के उपकारों के प्रति आजीवन मन में रहने वाला कारसेवक-सा भाव ही टिका के रख सकता है। इन सब तत्वों के बगैर समाज के भीतर उदासी घर करने लगती है।
बीते सभी जमाने इस बात की गवाही देते रहे हैं कि अपनी जड़ों से कट कर सब चेतन-अचेतन मुरझा जाते हैं। मूल से कट कर मूल्य भी कहां बचाए जा सके हैं। सभ्यताएं, समाज भी हरे-भरे पेड़ों की तरह ही होते हैं। उन्हें भी अच्छे विचारों की खाद, मन-जल की नमी, ममता की आंच, प्रेम-सी सरलता और प्रकृति के उपकारों के प्रति आजीवन मन में रहने वाला कारसेवक-सा भाव ही टिका के रख सकता है। इन सब तत्वों के बगैर समाज के भीतर उदासी घर करने लगती है। जब भी कोई समाज अपने इतिहास-पुराण से कट कर अपना भविष्य संवारने निकलता है तो उसमें अपनेपन की बजाय परायापन झांकने लगता है और फिर पराएपन को बनावटीपन में बदलते देर भी नहीं लगती। परायापन एक बेहद गंभीर समस्या होती है। फिर परायापन घर को हो या समाज का, उससे सबकी कमर झुकने लगती है।