सफलता की कहानियां और केस स्टडी

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शौच के पानी को बना रहे हैं उपयोग लायक
Posted on 17 Nov, 2015 03:54 PM

विश्व शौचालय दिवस, 19 नवम्बर 2015 पर विशेष

 

बस्तर के एक गाँव में चल रहे इस विद्यालय ने करीब 15 हजार की लागत से बस्तर का पहला ‘वेस्ट वाटर रिसाइकल प्लांट’ यहाँ बनाया गया है। इस प्लांट में उपयोग हो चुके पानी को फिर से भूमि के अन्दर इस्तेमाल करने लायक बनाया जाता है। इससे आश्रम में कभी पानी की कमी नहीं होती। प्लांट में शुद्ध हुए पानी को फिर दैनिक कर्मों में इस्तेमाल किया जाता है।

बस्तर के अत्यधिक नक्सल प्रभावित इलाकों से गुजरते वक्त क्या ये कल्पना सम्भव है कि यहाँ कुछ सुखद, दिल को आनन्द देने वाला और सन्तोषजनक भी मिल सकता है। इसका जवाब है हाँ। बस्तर में भी ऐसा बहुत कुछ हो रहा है, जो हमें सुकून दे सकता है।

फिलवक्त तो हम बात कर रहे हैं लंजोडा नामक गाँव में बनाए गए “वेस्ट वाटर रिसाइकल प्लांट” की, जो शौचालय में इस्तेमाल होने वाले पानी को न केवल दोबारा उपयोग के लायक बना रहा है, बल्कि कुछ लोग इसका लाभ भी उठा रहे हैं।

जब कांकेर और कोंडागाँव जैसे आदिवासी जिलों में पानी का संकट गहराने लगता है तो इन दोनों जिलों के मध्य स्थित लंजोड़ा गाँव का सदा हराभरा रहने वाले एक कोना सहज ही राष्ट्रीय राजमार्ग 30 पर से गुजरने वाले यात्रियों का ध्यान खींच लेता है।

water treatment plant
स्वच्छता अभियान के सपने को साकार करते हरदा के गाँव
Posted on 01 Oct, 2015 02:42 PM 1. गहने–कपड़े नहीं भाइयों ने दिया शौचालय का उपहार
2. गाँव–गाँव हो रही मुनादी
3. हरदा में प्रशासन कर रहा मल युद्ध


स्वच्छता दिवस, 02 अक्टूबर 2015 पर विशेष

toilet
आज भी प्रासंगिक हैं परम्परागत खाल
Posted on 01 Sep, 2015 03:50 PM

खेतों में भू-आर्द्रता बनी रहने के कारण गाँव के किसान अपनी परम्परागत फसलों के साथ-साथ सब्जी उत्पादन करके अपनी आजीविका चलाते हैं। गाँव को ऊपरी तौर पर देख कर आश्चर्य होता है कि जो गाँव पेयजल के संकट से जूझ रहा हो वह गर्मियों में सब्जी उत्पादन कर रहा है। इस गाँव में गर्मी के मौसम में किसान 2-5 नाली भूमि में मिर्च, फूलगोभी, टमाटर आदि की खेती करते हैं तथा प्रति परिवार औसतन 5 से 6 हजार की सब्जियाँ प्रतिवर्ष बेचते हैं।

नैनीताल जिले के रामगढ़ ब्लॉक में समुद्र तल से 1600-1700 मीटर ऊँचाई पर बसा है-कफलाड़ गाँव। गाँव के पहाड़ की चोटी पर स्थित होने के कारण इस गाँव में जल स्रोतों की कमी है जिससे वर्ष भर जल संकट बना रहता है।

इस गांव के ऊपर की भूमि में अनेक परम्परागत खाल विद्यमान हैं। इन खालों का निर्माण पीढ़ियों पूर्व गाँव के पूर्वजों ने किया था जिनका रख-रखाव आज भी ग्रामवासी करते आ रहे हैं।

इन खालों की नियमित सफाई व रख-रखाव के कारण इनमें वर्ष भर पानी रहता है। गाँव में इन खालों को लेकर यह कहावत प्रचलित है कि इन खालों में पानी कभी नहीं सूखता क्योंकि खालों का पानी सूखने से पहले ही वर्षा हो जाती है।
सब्जी की खेती से मालामाल हो रहे विनाश के गर्त से निकले लोग
Posted on 23 Aug, 2015 04:22 PM

भूगर्भ से जरूरत से अधिक पानी निकलने की सम्भावना अत्यल्प होती है। अभी इन 18 गाँवों के 123 किसान 64 एकड़ ज़मीन में सब्जी की खेती कर रहे हैं। 18 गाँवों के बीच यह कोई बड़ा आँकड़ा नहीं है। पर समेकित जल प्रबन्धन कार्यक्रम सब्जी की खेती तक सीमित नहीं है। उसने इलाके के लिये उपयुक्त फसलों और उपयुक्त विधियों के चयन किया। धान व गेहूँ की खेती के लिये श्रीविधि, एसवीआई और एसडब्ल्यूआई विधि में प्रशिक्षण की व्यवस्था की।

कोसी तटबन्धों के बीच फँसे बिहार के सर्वाधिक बाढ़ग्रस्त और भयंकर सुखाड़ से पीड़ित गाँवों में गोभी, प्याज और मिर्च की लहलहाती फसल देखना जितना सुखद था, उतना ही आश्चर्यजनक भी। सुपौल जिले के मैनही गाँव में यह नजारा परम्परागत जलस्रोतों के समन्वित प्रबन्धन के साथ विभिन्न नवाचारों को अपनाने की वजह से दिख रहा है। यशस्वी इंजीनियर दिनेश कुमार मिश्र की पुस्तक ‘दुई पाटन के बीच’ के माध्यम से कोसी तटबन्धों के बीच फँसे 380 गाँवों और उनमें रहने वाली करीब 10 लाख लोगों की व्यथा-कथा उजागर होने पर मातमपूर्सी तो काफी हुई, पर संकटग्रस्त लोगों के कष्टों का टिकाऊ समाधान खोजने के प्रयास कम ही हुए।

इस तरह की कोशिश में जर्मनी की संस्था के सहयोग से जीपीएसवीएस, जगतपुर घोघरडीहा ने समेकित जल प्रबन्धन कार्यक्रम के माध्यम से टिकाऊ खेती और स्वस्थ्य जीवन का प्रयोग आरम्भ किया। इसके लिये ग्रामीण समुदाय को प्रेरित और संगठित किया गया।
vegetable farming
पानी से बदलती कहानी
Posted on 02 Aug, 2015 04:42 PM

अपना तालाब अभियान की पहल पर ‘इत सूखत जल सोत सब, बूँद चली पाताल। पानी मोले आबरू, उठो बुन्देली लाल’ का नारा लगाते हुए लगभग 4 हजार लोग फावड़ों और कुदालों के साथ खुद ही तालाब की सफाई के लिये कूद पड़े। लोगों ने महज दो घंटे में ही तालाब की अच्छी खासी खुदाई कर डाली। पूरे 46 दिन तक काम चला और 21 हजार लोगों ने मिलकर सैकड़ों एकड़ में फैले जय सागर तालाब को नया जीवन दे दिया। खर्च आया महज 35 हजार रुपए। सरकारी आकलन से पता चला कि लोगों ने करीब 80 लाख रुपए का काम कर डाला था।

अच्छे-अच्छे काम करते जाना। राजा ने कूड़न किसान से कहा था। कूड़न अपने भाइयों के साथ रोज खेतों पर काम करने जाता दोपहर को कूड़न की बेटी आती, खाना लेकर। एक दिन घर वापस जाते समय एक नुकीले पत्थर से उसे ठोकर लग गई। मारे गुस्से के उसने दरांती से पत्थर उखाड़ने की कोशिश की। लेकिन यह क्या? उसकी दरांती तो सोने में बदल गई। पत्थर उठाकर वह भागी-भागी खेत पर आती है और एक साँस में पूरी बात बताती है। एक पल को उनकी आँखे चमक उठती हैं, बेटी के हाथ पारस पत्थर लगा है। लेकिन चमक ज्यादा देर नहीं टिक पाती। लगता है देरसबेर कोई-न-कोई राजा को बता ही देगा। तो क्यों न खुद राजा के पास चला जाए। राजा न पारस लेता है न सोना। बस कहता है,‘इससे अच्छे-अच्छे काम करते जाना। तालाब बनाते जाना।’

Apna talab abhiyan
बारिश हुई कम, पर पानी का नहीं गम
Posted on 13 Jul, 2015 11:51 AM

जल प्रबंधन से दूर हो गयी गंगानगर कन्या आश्रम की पानी की परेशानी

मध्य प्रदेश का मालवा क्षेत्र गंभीर पेयजल संकट वाला क्षेत्र है, इसी क्षेत्र में धार जिले के गंगानगर गांव के बालिका आश्रम में ऐसा प्रयोग किया गया कि बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहे इस आश्रम में झुलसती गर्मी में भी पानी की कमी नहीं होती। राजु कुमार की रिपोर्ट

गंगानगर आश्रम में कुशल जल प्रबंधन के तहत सबसे पहले वर्षा जल संग्रहण टैंक का निर्माण किया गया, इसमें एक 50,000 लीटर, दो 4,000 लीटर एवं एक 2,000 लीटर का फेरोसिमेंट टैंक बनाया गया। वर्षा का जल संचित करने के लिये छतों को पाइप के जरिये चारों तरफ से टंकियों से जोड़ा गया है। इसमें वर्षा जल संग्रहित होने लगा। गंगानगर आश्रम में रीयूज वाटर सिस्टम को बनाया गया है। इस सिस्टम से आश्रम के आठ स्नानघरों को जोड़ा गया।

मध्य प्रदेश में इस बार औसत से कम बारिश हुई है। पिछले कुछ सालों से पानी की गंभीर संकट झेल रहे मध्यप्रदेश के लिए यह साल कुछ अच्छा नहीं रहा। पिछले कुछ सालों से पानी को लेकर दर्जन से भी ज्यादा जानें जा चुकी हैं। गांव हो या शहर, सभी जगह पानी की किल्लत बरकरार है। प्रदेश के मालवा एवं बुंदेलखंड क्षेत्र में पानी की सबसे ज्यादा कमी होती है। लेकिन मालवा में एक ऐसी जगह भी है, जहां कम बारिश के बावजूद लोगों में पानी को लेकर चिंता नहीं है। वह जगह है - धार जिले के तिरला विकासखंड के गंगानगर कन्या आश्रम।

पांच साल पहले तक गंगानगर कन्या आश्रम में पानी बड़ी किल्लत थी। डेढ़ किलोमीटर दूर स्थित एक हैंडपंप से लड़कियां सुबह-शाम पानी लाने जाती थी, जिसमें उन्हें प्रतिदिन चार घंटे समय गंवाना पड़ता था। इसके साथ ही ग्रामीणों से बकझक और कुछ दूर स्थित बालक आश्रम के बालकों से झूमाझटकी भी करनी पड़ती थी।
पानी का चौका
Posted on 02 Jul, 2015 12:13 PM एक अकेला इन्सान चाहे तो पूरे समाज और व्यवस्था को बदल सकता है। बदलाव की यह कहानी चरितार्थ हो रही है राजस्थान के लापोड़िया गाँव में। सूखाग्रस्त इस गाँव में इन दिनों हर तरफ पानी ही पानी नजर आता है। भरपूर पेयजल एवं सिंचाई के साधन होने की वजह से चारों तरफ हरियाली छायी हुई है। लापोड़िया के आस-पास के गाँवों की भी तस्वीर बदल गई है। गाँव में पहुँचने पर हर घर के सामने पशु-धन मौजूद होता है, जो गाँव की खुशहाली का प्रत्यक्ष प्रमाण देता है। ग्राम पंचायत की हर बस्ती में अपना तालाब है। ये तालाब पानी से लबालब हैं। गाँव की यह तस्वीर कोई एक दिन में नहीं बदली है बल्कि इस बदलाव में लम्बा समय लगा और यह सम्भव हुआ एक नौजवान की कर्मयोगी प्रवृत्ति की वजह से। आज लापोड़िया गाँव विदेशियों के लिए रिसर्च का विषय बना हुआ है।

लापोड़िया में कुल 1144 हेक्टेयर की जमीन पर करीब 200 घरों के 2500 से ज्यादा लोग रहते हैं। खेती और पशुपालन ही यहाँ का मुख्य पेशा है। इस गाँव में बदलाव की बयार शुरू हुई 1977 में। गाँव के ही युवक लक्ष्मण सिंह ने इस बदलाव की बयार की परिकल्पना की नींव रखीं। अपने गाँव के ही दो दोस्तों को साथ लिया और तय किया कि गाँव के युवक मिलकर अपना तालाब बनाएँगे। फिर क्या था एक बार तरक्की की राह बननी शुरू हुई तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।

कर्मवीर अपनी कर्मठता से न सिर्फ अपना भाग्य बदल रहे हैं बल्कि समाज के पथ प्रदर्शक बने हुए हैं। कुछ ऐसा ही कर दिखाया है जयपुर-अजमेर राजमार्ग पर दूदू से करीब 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गाँव लापोड़िया के लोगों ने। इस गाँव के कर्मयोगी बने लक्ष्मण सिंह। अब स्थिति यह है कि यह समूचा गाँव अपने आस-पास के गाँवों को कर्मयोग का पाठ पढ़ा रहा है। लक्ष्मण सिंह की प्रेरणा से ग्रामीणों ने अपना खुद का पेयजल संसाधन विकसित ही नहीं किया बल्कि गाँव को ही हरा-भरा बना दिया है। अब स्थिति यह है कि लापोड़िया में शुरू हुई बदलाव की यह बयार पूरे प्रदेश में बहने लगी है।

राजस्थान की राजधानी जयपुर से अजमेर मार्ग पर निकलते ही रेगिस्तानी नजारा दिखने लगता है। हाइवे पर गर्मी के मौसम में धूल-भरी हवाओं से सामना होता है। करीब 80 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद दूदू कस्बे में पहुँचते हैं। यहाँ से करीब 10 किलोमीटर आगे जाने पर पडासोली कस्बा पड़ता है और फिर दाहिनी तरफ मुड़ते हुए शुरू हो जाता है लापोड़िया का रास्ता।
सूखे को कैसे पछाड़ा बागलकोट ने
Posted on 02 Jul, 2015 11:19 AM ड्राउट प्रूफिंग (सूखा रोधन) हमारे शब्दकोष में हाल में आई नई अवधारणा है। लेकिन यह कौशल बागलकोट जिले के लिये नया नहीं है। स्थानीय किसानों ने जल संरक्षण के लिये ऐसे तमाम तरीके खोजे थे जो कि विशेषज्ञों की जानकारी में भी नहीं थे। यहाँ उनके अपनाए गए तरीकों पर पैनी नजर डाली जा रही है।

जिस सूखे के कारण पूरे राज्य के अन्य जिलों में प्रतिकूल स्थितियाँ बनीं उनसे निपटने के लिये इन गाँवों ने कौन सी प्रणाली अपनाई? दुर्भाग्य से इस बारे में बहुत ही कम जानकारियाँ उपलब्ध हैं। फिर भी अनुभव बताता है कि बागलकोट के गुमनाम से दिखने वाले इन गाँवों में पारम्परिक विवेक मौजूद है जिसके कारण कम वर्षा का भी उन्होंने अधिकतम उपयोग किया और सूखे के असर को नियन्त्रित कर लिया।

कर्नाटक में बागलकोट जिला राज्य में सबसे कम वर्षा यानी 543 मिलीमीटर औसत के रूप में पहचाना जाता है। सरकारी अनुमान के अनुसार 2002-04 के बीच इस जिले में सूखे की स्थितियों और पानी की कमी के कारण 1500 करोड़ रुपए की फसल का नुकसान हुआ।

हालांकि जिले के कुछ गाँव ऐसे हैं जिन्होंने कम वर्षा और सूखे की स्थितियों के विरुद्ध अपने को बचा लिया। हुनागुंडा और बेनाकट्टी तालुका में स्थित इन गाँवों के नाम हैं-बड़वाडागी, चित्तरागी, , रामवाडागी, कराडी, कोडीहाला, इस्लामपुर, नंदवाडागी, केसरभावी।

लेकिन जिस सूखे के कारण पूरे राज्य के अन्य जिलों में प्रतिकूल स्थितियाँ बनीं उनसे निपटने के लिये इन गाँवों ने कौन सी प्रणाली अपनाई?
छोटी परियोजनाओं के फायदे
Posted on 08 Feb, 2015 12:48 PM

पानी को कुछ पक्का और कुछ कच्चा निर्माण कर रोका गया। इस पानी को रोकने का असर यह हुआ कि कहीं कम तो कहीं अधिक पर लगभग पाँच से दस गाँवों में पानी ‘रिचार्ज’ होने लगा और भूजल स्तर ऊपर उठने लगा। जिन कुँओं का पहले बहुत कम उपयोग हो पाता था उनसे सिंचाई के लिए पानी मिलने लगा। खेती से मिट्टी का कटान कम हो गया। रबी में गेहूँ, सरसों, जौ और सब्जियों की खेती होने लगी। चारागाह में हरियाली बढ़ गई और यहाँ के पशुओं को पीने के लिए पानी मिलने लगा।

अरबों रुपयों की लागत से बनी बड़े बाँधों की अनेक महँगी परियोजनाएँ अपेक्षित लाभ देने में विफल रही हैं। दूसरी ओर अपेक्षाकृत बहुत कम बजट की अनेक छोटी परियोजनाओं ने वर्षा के जल को रोककर अनेक गाँवों को नई उम्मीद दी है। इन छोटी परियोजनाओं में जहाँ गाँववासियों की नजदीकी भागीदारी से कार्य किया गया है और पारदर्शिता के तौर-तरीकों से भ्रष्टाचार को दूर रखा गया है, वहाँ अपेक्षाकृत बहुत कम बजट में ही कई गाँवों को हरा-भरा किया जा सका है।

ऐसी ही एक कम बजट में बड़ा लाभ देने वाली परियोजना है जयपुर जिले की कोरसिना परियोजना। कोरसिना पंचायत और आसपास के कुछ गाँव पेयजल के संकट से इतने त्रस्त हो गए थे कि कुछ वर्षों में इन गाँवों के अस्तित्व का संकट उत्पन्न होने वाला था।
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