Posted on 12 Feb, 2010 11:10 AMअगर सचमुच ईंधन और चारे की चिंता है और सरकार सबसे ज्यादा गरजमंदों को कुछ फायदा पहुंचाना चाहती है तो फिर ये सारे कार्यक्रम भूमिहीन, छोटे और सीमांत किसानों के लिए चलाने होंगे। विश्व बैंक की मदद से दुनिया भर में चल रहे वन संवर्धन कार्यक्रम के एक सर्वेक्षण में बैंक ने स्वीकार किया है कि इस मामले में वह असफल रहा है। “भूमिहीन लोगों के लिए पर्याप्त ईंधन, छवाई की लकड़ी और चारा उपलब्ध कराना शायद सभी सरकारों
Posted on 10 Feb, 2010 10:05 AMसमाजवादी माने गए दौर में जमींदारी प्रथा के खत्म होने के बाद तालाबों की देखरेख, पानी का बंटवारा और तालाबों की मरम्मत आदि की जिम्मेदारी सार्वजनिक प्रशासन संस्थाओं पर आ गई। पर सबसे खर्चीली व्यवस्था के इन ढांचों के पास ‘धन की कमी’ थी। आंध्र प्रदेश के एक अध्ययन के अनुसार देख-रेख का खर्च तालाब बनवावे का लागत से एक प्रतिशत का भी तिहाई आता था। लेकिन धीरे-धीरे सिंचाई वाले तालाबों का आधार ही खत्म हो गया। पर
Posted on 09 Feb, 2010 10:59 AMदेश की लाखों हेक्टेयर खेतों को बंजर बनाने का ही इरादा कर लिया हो तो बात दूसरी है, वरना भूमि संवर्धन को खान उद्योग का एक अनिवार्य अंग मानकर चलना बहुत जरूरी है। अमेरिका में किसी भी खदान को तभी मंजूरी दी जाती है जब भूमि संवर्धन की योजना भी साथ-साथ पेश की जाती है। न्यूयार्क के साइराक्यूज स्थित कॉलेज ऑफ एनवायर्नमेंटल सांइसेस एंड फारेस्ट्री के प्रो.
Posted on 09 Feb, 2010 10:41 AMखदानों के मलबे से झरनों और नदियों का पानी दूषित होता है। बारिश के पानी के साथ लोहे के कण और दूसरे जहरीले तत्व पास के जलाशयों में पहुंचते हैं। पानी का गुण बिगड़ता है और वह उपयोग के लायक नहीं रह जाता। खान के पास ही जब खनिजों के शोधन के कारखाने लग जाते हैं तब तो जल प्रदूषण की समस्या और भी गंभीर बन जाती है। अनुपचारित कीचड़ और कूड़ा-करकट सब सीधे पास के जलाशयों में या झरनों में गिरा दिया जाता है। अक्सर
Posted on 08 Feb, 2010 05:10 PMखदानों का कोई भी इलाका देख लीजिए, यहां से वहां तक एक ही रंग दिखाई देता है। कोयले की खान हो तो सब जगह काला की काला दिखेगा, कच्चे लोहे की बस्तियां लाल ही लाल नजर आएंगी, गेरू और रामरज की खान हो तो सब तरफ एक सफेद चादर बिछी मिलेगी। इन क्षेत्रों में हर जगह उन चीजों के बारीक कणों की परत-सी जम जाती है।
Posted on 08 Feb, 2010 04:59 PMदेश की माटी की इस दुर्दशा का वर्णन परती जमीन की बात किए बिना पूरा न होगी। लगातार फौलती बंजर जमीन के ठीक आंकड़े तो नहीं पर इस बारे में काम कर रही दिल्ली की एक संस्था सोसाइटी फार प्रमोशन आफ वेस्टलैंड डेवलपमेंट के अनुमान के अनुसार यह लगभग 10 करोड़ हेक्टेयर है यानी देश की लगभग एक-तिहाई से ज्यादा भूमि पर्यावरण की गंभीर समस्याओं का शिकार है।
Posted on 08 Feb, 2010 04:51 PM1971 में शुरू हुई केंद्र सरकार की योजना के अलावा केंद्र ने एक और बड़ा काम हाथ में लिया था। कई लोगों को यह जान कर अचरज होगा कि बीहड़ सुधार की यह योजना कृषि मंत्रालय की नहीं, गृह मंत्रालय की थी। उसकी निगाह में बीहड़ पर्यावरण की नहीं, डाकुओं की समस्या का केंद्र थे। कोई 500 से ज्यादा कुख्यात डाकू यहां तीन राज्यों (मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान) की पुलिस को धता बताकर एक तरह से समानांतर सरकार चला
Posted on 08 Feb, 2010 04:41 PMदेश की लगभग 8000 हेक्टेयर जमीन हर साल बीहड़ बनती जा रही है। एक अनुमान के अनुसार बीहड़ में सालाना 0.5 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है जिस रफ्तार से भूमि सुधार हो रही है उस हिसाब से सुधार कार्यक्रम पूरा करने में 150 साल लगेंगे, तब तक बीहड़ दुगुने हो जाएंगे। इसका अर्थ यह है कि ऊंची जमीन पूरी तरह बह जाएगी।
Posted on 06 Feb, 2010 10:04 AMनर्मदा के किनारे बसे मण्डला, तेवर, भेड़ाघाट, ब्रह्माणघाट होशंगाबाद, ओंकारेश्वर, माहेश्वर, माण्डवगढ़, अक्तेश्वर जैसे नगरों में आंचलिक (लोक) संस्कृतियाँ जन्मी हैं और बघेली, गोंडी, भीली, बुन्देली, मालवी और निमाड़ी लोकभाषाएँ फूली-फली हैं। भारत में चार नदियों को चार वेदों के रूप में माना गया है। गंगा को ऋग्वेद, यमुना को यजुर्वेद, सरस्वती को अथर्ववेद और नर्मदा को सामदेव। सामदेव कलाओं का प्रतीक है। नर्मद