दिल्ली

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नदी के द्वीप
Posted on 26 Aug, 2013 03:20 PM हम नदी के द्वीप हैं।
हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए।
वह हमें आकार देती है।
हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकत कूल,
सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।

माँ है वह। है, इसी से हम बने हैं।

किंतु हम हैं द्वीप।
हम धारा नहीं हैं।
स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के
बंधु हैं नदियाँ
Posted on 26 Aug, 2013 03:16 PM इसी जमुना के किनारे एक दिन
मैंने सुनी थी दुःख की गाथा तुम्हारी
और सहसा कहा ता बेबस : ‘तुम्हें मैं प्यार करता हूँ।’
गहे थे दो हाथ मौन समाधि में स्वीकाकर की।

इसी जमुना के किनारे आज
मैंने फिर कहा है वह : ‘तुम्हें मैं प्यार करता हूँ।’
और उत्तर में सुनी है दु:ख की गाथा तुम्हारी,
गहे हैं दो हाथ मौन समाधि में उत्सर्ग की।

न जाने फिर
हम नदी के साथ-साथ
Posted on 26 Aug, 2013 12:43 PM हम नदी के साथ-साथ
सागर की ओर गए
पर नदी सागर में मिली
हम छोर रहे:
नारियल के खड़े तने हमें
लहरों से अलगाते रहे
बालू के ढूहों से जहां-तहां चिपटे
रंग-बिरंग तृण-फूल-शूल
हमारा मन उलझाते रहे
नदी की नाव
न जाने कब खुल गई
नदी ही सागर घुल गई
हमारी ही गांठ न खुली
दीठ न धुली
हम फिर, लौटकर फिर गली-गली
नदी तट: एक चित्र
Posted on 26 Aug, 2013 12:41 PM नदी की बांक
गोरी चमक बालू की
विदा की आर्द्र लालिम
मेघ की रेखा
नीरव बलाका।

(नारा (जापान), 6 सितंबर, 1957, ‘सदानीरा-2’ में संकलित

नदी का पुल – 1
Posted on 26 Aug, 2013 12:39 PM ऐसा क्यों हो कि मेरे नीचे सदा खाई हो
जिसमें मैं जहां भी पैर टेकना चाहूं
भंवरे उठें, क्रुद्ध;
कि मैं किनारों को मिलाऊं
पर जिनके आवागमन के लिए राह बनाऊं
उनके द्वार निरंतर
दोनों ओर से रौंदा जाऊं?
जबकि दोनों को अलगाने वाली नदी निरंतर बहती जाए, अनवरुद्ध?

बर्कले (कैलिफोर्निया), 29, अक्तूवर, 1969

द्वीप, नौका, नदी, सागर
Posted on 26 Aug, 2013 12:37 PM द्वीप, नौका, नदी, सागर और हमारी
रुपकल्पी चेतना-सभी मिलकर वह
समग्र बिंदु बनाते हैं जिसमें हमारी
और एक निरपेक्ष चेतना हमें अपने
सच्चे रूप की पहचान कराती है –
हम जो टिके हैं और बीत रहे हैं जो।

कलकत्ता, वसंत पंचमी, 1987

नदी की बांक पर छाया
Posted on 26 Aug, 2013 12:25 PM नदी की बांक पर
छाया
सरकती है
कहीं भीतर
पुरानी भीत
धीरज की
दरकती है
कहीं फिर वेध्य होता हूं

दर्द से कोई
नहीं है ओट
जीवन को
व्यर्थ है यों
बांधना मन को
पुरानी लेखनी
जो आंकती है
आंक जाने दो
किन्हीं सूने पपोटों को
अंधेरे विवर में
चुप झांक जाने दो
पढ़ी जाती नहीं लिपि
दर्द ही
गंगा कूल 2
Posted on 26 Aug, 2013 12:24 PM गंगा- कूल सिराने ओ लघु दीप-
मूक दूत से जाओ सिंधु समीप!

ढुलक-ढुलक! नयनों से आंसू धार!
कहां भाग्य ले उनके पांव पखार।

लाहौर : 1935

प्रियतम देखो 1
Posted on 26 Aug, 2013 12:21 PM प्रियतम! देखो ! नदी समुद्र से मिलने के लिए किस सुदूर पर्वत के आश्रय से, किन उच्चतम पर्वत-श्रृंगों को ठुकराकर, किस पथ पर भटकती हुई, दौड़ी हुई आई है!

समुद्र से मिल जाने के पहले इसने अपनी चिर-संचित स्मृतियां, अपने अलंकार आभूषण, अपना सर्वस्व, अलग करके एक ओर रख दिया है, जहां वह एक परित्यकत केंचुल-सा मलिन पड़ा हुआ है।
भीम-प्रवाहिनी नदी
Posted on 26 Aug, 2013 11:36 AM भीम-प्रवाहिनी नदी के कूल पर बैठा मैं दीप जला-जलाकर उसमें छोड़ता जा रहा हूं।

प्रत्येक दीप का विसर्जन कर मैं सोचता हूं- ‘यही मेरा अंतिम दीप है।’
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