Posted on 14 Jul, 2011 09:12 AMहलक सूख रहा है अकड़ रहा है शरीर प्यास के मारे छटपटा रही है जान सूखते-सूखते कुआँ को ऐसा ही लगा होगा इसी तरह तड़पी होगी सूखते समय नदी
अपना पानी चुकते लख मछलियों को देख मरते आसमान की तरफ़ निहार-निहार कितना छटपटायी होगी अपनी बड़ी झील!!
Posted on 06 Jul, 2011 03:36 PMहर बरस की तरह इस बरस भी चल रही थी ज़िन्दगी सिवा इसके कि जितना सूख गयी थी झील उतनी ही सूख गयी थी शहर की सुंदरता
जैसे-तैसे पीने को पानी मिल ही रहा था शहर को पर पानी की रंगत से शहर दूर था शहर में कोई मेहमान आता था तो अब दिखाने के लिए नहीं था कुछ खास क्योंकि झील सूख चली थी
Posted on 04 Jul, 2011 09:22 AMबड़ी झील! तुम से बोलते-बतियाते मेरी जुबान की मैल छूट जाती है और धुल जाते हैं सारे दाग-धब्बे
कितना सारा मौन छुपा रखा है मैंने तुम्हारे पानी में एक दिन निकाल कर सारा मौन उसे कहने में लाऊँगा फिर भी जो कह न पाऊँगा उसे ज़रूर तुम्हारे कान में फुसफुसाऊँगा