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एक अनुभूति
Posted on 14 Jul, 2011 09:12 AM हलक सूख रहा है
अकड़ रहा है शरीर
प्यास के मारे छटपटा रही है जान
सूखते-सूखते कुआँ को ऐसा ही लगा होगा
इसी तरह तड़पी होगी सूखते समय नदी

अपना पानी चुकते लख
मछलियों को देख मरते
आसमान की तरफ़ निहार-निहार
कितना छटपटायी होगी
अपनी बड़ी झील!!

कीचड़ निकालने के वास्ते
Posted on 13 Jul, 2011 09:11 AM अपनी झील की पसलियों से
कीचड़ निकालने के वास्ते
उमड़ पड़ा है शहर

बड़ी झील को सहेजने-सँवारने में
लग गये हैं हाथ
तसलों-तगाडि़यों मंे भरी जा रही मिट्टी खुश है
कि पानी के लिए खाली कर रही है वह जगह

आसमान से अपना आफताब
हँस रहा है धूप-हँसी
और अब तगाड़ी-तसले उठाते लोगों के साथ
भिड़ गया है श्रमदान में खुद वह भी!

कोलांस
Posted on 12 Jul, 2011 09:27 AM बड़ी झील को भरी-पूरी देख कर
लहक उठती है कोलांस नदी

सुनते हैं आजकल कोलांस भी
झेल रही है सूखे की मार

दूरदराज से पानी लाकर
कोलांस ही भरती रही है बड़ी झील का पेट
बारिश का अभाव कि कोलांस भी
मनमसोस कर रह जाती है

कोलांस सूखती है
तो बड़ी झील के मन में उदासी बैठ जाती है
और बड़ी झील मछरी की तरह
छटपटाती रहती है गाद में रात-दिन!
बड़ी झील सूख कर
Posted on 09 Jul, 2011 11:27 AM यह आँखों को धोखा नहीं हुआ है
मैं वहाँ चल रहा हूँ जहाँ झील-तल में
लहराता था पोरसा भर पानी

कीचड़ भी अब सूख चुका
तल के चेहरे पर दरारों का जाला
फैला हुआ है

पपडि़यों में पानी का दरद है
टिटहरी की बोली और उदास करती है

बगुलों की बन आयी है
जीम रहे हैं मछरी
(बिना बकुल ध्यान के)

मरी मछरियों की गंध से
वहाँ आज कीचड़
Posted on 09 Jul, 2011 11:04 AM जहाँ पानी का जलसा होता था
वहाँ आज कीचड़ हँसता है

इतना सूख गयी है
झील
कि झील का ‘झ’ झुलसा हुआ दिखता है!
‘ई’ पपडि़याई हुई!!
‘ल’ की लाज भर के लिए
केवल अब पानी है!!!

सूखी झील
Posted on 08 Jul, 2011 09:40 AM सूखी झील को देखकर
आसमान के चेहरे पर
गहरी बेचैनी है

सतह का चेहरा भी
रूखा है
बिवाई की तरह फटा हुआ

बहुत सूख गयी है झील
तल की दरारों का अँधेरा
रात के पाँव में गड़ता है

जिस झील का पानी
पालता था पूरा शहर
वही झील आज

अपनी प्यास में छटपटाती है
उछलती लहरें बीत गयीं
और बचा हुआ पानी
गूँगा हो गया है!

सूख चली थी झील
Posted on 06 Jul, 2011 03:36 PM हर बरस की तरह
इस बरस भी चल रही थी ज़िन्दगी
सिवा इसके कि जितना सूख गयी थी झील
उतनी ही सूख गयी थी शहर की सुंदरता

जैसे-तैसे पीने को पानी मिल ही रहा था शहर को
पर पानी की रंगत से शहर दूर था
शहर में कोई मेहमान आता था तो अब
दिखाने के लिए नहीं था कुछ खास
क्योंकि झील सूख चली थी

चूँकि झील सूख चली थी
इसलिए हवा बिना नहाए ही
सूर्य मगन है
Posted on 05 Jul, 2011 02:31 PM सूर्य मगन है
अपने गगन में

बड़ी झील
अपने पानी में
ध्यानस्थ

किनारे दुपहर की
झपकी ले रहे हैं

बासन्ती धूप
पानी से लिपटी पड़ी है
डूबकर इन्हें निहारने में
मर्यादा है
खाँसने तक से
सुन्दरता का यह ताना-बाना
तार-तार हो जायेगा

तुम से बोलते-बतियाते
Posted on 04 Jul, 2011 09:22 AM बड़ी झील!
तुम से बोलते-बतियाते
मेरी जुबान की मैल छूट जाती है
और धुल जाते हैं सारे दाग-धब्बे

कितना सारा मौन छुपा रखा है मैंने
तुम्हारे पानी में
एक दिन निकाल कर सारा मौन
उसे कहने में लाऊँगा
फिर भी जो कह न पाऊँगा
उसे ज़रूर तुम्हारे कान में
फुसफुसाऊँगा

जटिल वाक्यों में
Posted on 04 Jul, 2011 09:18 AM जटिल वाक्यों में
पानी का गुन मिलाना चाहता हूँ
जो दौड़ता है प्यास की तरफ
जो रंगो में बोलता है

लहराती झील के लिए
भाषाओं में रखना चाहता हूँ
माननीय जगह
जिससे लिपियों में तरलता हो
सरलता हो संवाद में

झील एक संस्कृति है
जो हर हृदय के पानी में
जिन्दगी के मायने को
मान देती रहती है

मैं चाहता हूँ
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