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The Right to Information Act, 2005
Posted on 10 May, 2016 10:40 AM
संविधान, जल नीति और मौजूदा जल संकट
Posted on 08 May, 2016 03:11 PM
मौजूदा जल संकट की गम्भीरता का अनुमान सुप्रीम कोर्ट की 6 अप्रैल 2016 की उस टिप्पणी से लगाया जा सकता हैं जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से कहा है कि देश के दस राज्य सूखे की मार झेल रहे हैं। पारा 45 डिग्री पर पहुँच रहा है। लोगों के पास पीने का पानी नहीं है। उनकी मदद कीजिए। हालात बताते हैं कि महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, कर्नाटक, ओड़िशा
मानसून पूर्वानुमानों का सन्देश
Posted on 18 Apr, 2016 09:59 AM


देश के अलग-अलग राज्यों खासकर मराठवाड़ा, बुन्देलखण्ड और अन्य अंचलों में गहरा रहे मौजूदा जल संकट की परेशान करने वाली खबरों के बीच मौसम विभाग और स्काइमेट का हालिया पूर्वानुमान, काफी हद तक राहत प्रदान करता है। यह राहत 2016-17 के लिये है।

मौसम विभाग के पूर्वानुमान में बताया है कि इस साल मानसून समय पर आएगा। जून से लेकर सितम्बर के बीच 106 प्रतिशत तक बारिश (अधिकतम पाँच प्रतिशत घट-बढ़) हो सकती है। अर्थात इस साल कम-से-कम 101 प्रतिशत और अधिक-से-अधिक 111 प्रतिशत वर्षा होने की सम्भावना है।

ਬੀਜ ਉਤਪਾਦਨ ਨਾਲ ਵਧੀ ਆਤਮ-ਨਿਰਭਰਤਾ
Posted on 30 Mar, 2016 11:35 PM
ਹੜ੍ਹ ਪ੍ਰਭਾਵਿਤ ਖੇਤਰਾਂ ਵਿੱਚ ਖ਼ਾਸ ਕਰਕੇ ਮਹਿਲਾ ਕਿਸਾਨਾਂ ਦੀ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱ
धरती की फिक्रमन्द ये महिलाएँ
Posted on 08 Mar, 2016 10:18 AM

अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस 08 मार्च 2016 पर विशेष


अक्सर हम देश या दुनिया के किसी कोने में बाढ़, अकाल, सूखी नदियों, अचानक बड़ी संख्या में जीव जन्तुओं की मृत्यु, ग्लेशियर्स पिघल कर गाँवों कस्बों की जल समाधि, भू-स्खलन या अन्य प्राकृतिक आपदाओं का कहर बरपाते देखते हैं, तो भीतर तक सिहर उठते हैं और हमारे मुँह से निकल पड़ता है, ‘उफ, ये तो पर्यावरण के नाश के नतीजे हैं। हम अब भी नहीं चेते तो दुनिया बर्बाद हो जाएगी।’ हम तो बस कह कर रह जाते हैं, लेकिन दुनिया की कई महिलाओं ने पर्यावरण की रक्षा के लिये काफी कुछ किया है। हम चाहें तो इन पर्यावरण मित्र महिलाओं से प्रेरणा लेकर खुद भी बहुत कुछ कर सकते हैं। जानते हैं कुछ ऐसी महिलाओं के बारे में।

रोहिणी निलेकणी


.रोहिणी निलेकणी, चैरिटेबल ट्रस्ट अर्घ्यम फाउंडेशन की संस्थापक चेयरपर्सन हैं। पानी-पर्यावरण के क्षेत्र में उनका योगदान देश-दुनिया में जाना जाता है। पिछले एक दशक में उन्होंने पानी-पर्यावरण, शिक्षा और सेनिटेशन जैसे विभिन्न सेक्टरों में बड़ा निवेश किया है। यह निवेश किसी कारोबार के लिये नहीं बल्कि परोपकार और दान देने के लिये है। पानी और स्वच्छता जैसे मुद्दों पर काम करने वाले लोगों और संस्थाओं को स्वदेशी मदद देने के लिये ही अर्घ्यम जैसी संस्था बनाई। रोहिणी ने पर्यावरण के क्षेत्र में बड़ी दानदाता के रूप में अपनी छवि बनाई है।
सूखा : जंग जारी है
Posted on 28 Dec, 2015 12:23 PM

सूखा प्राकृतिक त्रासदी है। सारी दुनिया में उसके असर से, खेती सहित, अनेक गतिविधियाँ प्रभावित होती हैं। कुओं, तालाबों, जलाशयों और झीलों में पानी घटता है। कई बार, उन पर असमय सूखने का खतरा बढ़ता है। प्रभावित इलाकों में पीने के पानी की किल्लत हो जाती है। उद्योग धंधे भी पानी की कमी की त्रासदी भोगते हैं।

मिट्टी में नमी की कमी के कारण खाद्यान्नों का उत्पादन घट जाता है। कई बार पूरी फसल नष्ट हो जाती है। सूखे की अवधि कुछ दिनों से लेकर कुछ सालों तक की हो सकती है। सूखे का सबसे अधिक असर किसान की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। बरसों से उसके विरुद्ध जंग जारी है।

भारत में अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से उठी मानसूनी हवाओं के कारण बरसात होती है। दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में लौटते मानसून के कारण शीत ऋतु में पुनः बरसात होती है। देश के विभिन्न भागों में होने वाली बरसात की मात्रा और औसत वर्षा दिवसों में काफी भिन्नता है।

काकासाहेब कालेलकर सम्मान समारोह की मुख्य अतिथि होंगी मेधा पाटेकर
Posted on 22 Dec, 2015 09:34 AM काकासाहेब कालेलकर सम्मान समारोह की मुख्य अतिथि प्रसिद्ध समाजकर्मी मेधा पाटेकर होंगी, अध्यक्षता जनसत्ता के संपादक मुकेश भारद्वाज करेंगे।
आर्सेनिक समस्या : बढ़ते खतरे
Posted on 05 Dec, 2015 03:24 PM
सन् 1983 में स्कूल ऑफ ट्रापीकल मेडीसन, कोलकाता के चर्मरोग विशेषज्ञ डॉ. साहा ने मानवीय चमड़ी में होने वाले घावों के लिये आर्सेनिक को जिम्मेदार पाया था। इलाज के दौरान उन्हें लगा कि इस बीमारी के पीड़ित अधिकांश लोग, मुख्यतः पूर्वी बंगाल के रहने वाले वे लोग हैं जो नलकूपों का पानी उपयोग में ला रहे हैं।

इसके बाद, जादवपुर विश्वविद्यालय के पर्यावरणविद दीपंकर चक्रवर्ती ने प्रमाणित किया कि आर्सेनिक का स्रोत वे नलकूप हैं जो पिछले सालों में पेयजल और सिंचाई के लिये बड़ी मात्रा में लगाए गए हैं।

ग़ौरतलब है कि पूरे बंगाल में परम्परागत रूप से कुओं और पोखरों के पानी का उपयोग होता था। इन स्रोतों का पानी पूरी तरह निरापद था। कालान्तर में इन जलस्रोतों में प्रदूषण पनपा और वे अशुद्ध पानी से होने वाली बीमारियों के केन्द्र बनने लगे तब लोगों को अशुद्ध पानी से बचाने के लिये 1970 से 1980 में नलकूपों का विकल्प अपनाया गया।
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