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लूट पानी की
Posted on 12 Dec, 2012 02:32 PM पानी जीवन, जीविका और प्रकृति चक्र का प्रमुख आधार है जो प्राकृतिक रूप से सर्वत्र उपलब्ध है और सजीव सृष्टि के लिए हवा और धूप की तरह ही प्रकृति ने उसे सबके लिए उपलब्ध कराया है, वह पानी, भारत में बाजार की वस्तु बन चुका है। अब यहां सतही जल और भूमि जल पर मालिकाना हक प्राप्त किया सकता है और उस हक को खरीदा-बेचा जा सकता है। अब की व्यापारी/कंपनी किसी नदी, जलाशय या भूमिजल का हक खरीद सकता है, उसका मालिक बन सकता है और उस हक को बेच सकता है। ग़ुलाम भारत की लूट की कहानी हम जानते ही हैं। अँग्रेज़ व्यापार करने के नाम से आये और भारत को ग़ुलाम बनाकर लूट करते रहे। आज़ादी की लड़ाई ने लोगों के मन में यह उम्मीद जगाई थी कि अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के बाद यह लूट समाप्त होगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। भारत आज़ाद हुआ, लेकिन लूट जारी है, उसमें दिन-प्रतिदिन बढ़ोत्तरी ही हो रही है। इस लूट के स्वरूप में कुछ बदलाव हुआ है। लूट के लिए नए-नए रास्ते खोजे जा रहे हैं। श्रम के शोषण, औद्योगिक उत्पादन और सेवा उद्योग के माध्यम से की जानी वाली लूट के साथ-साथ अब देश के नैसर्गिक संसाधनों की खुली लूट भी की जा रही है। कोयला, खनिज, पेट्रोलियम, गैस, पानी, ज़मीन, जैव विविधता, जंगल आदि जैसी प्रकृति की देने को ही अब लूटा जा रहा है। इनमें से कई ऐसे स्रोत हैं, जिसके दोहन से वह हमेशा के लिए समाप्त होंगे।
हिमयुग का फिल्मी रूप
Posted on 11 Dec, 2012 11:01 AM एक तथ्य है कि वैज्ञानिकों द्वारा हिमयुग की परिकल्पना करने से बहुत पहले हॉलीवुड के फिल्मकारों ने इसे अपनी फिल्मों का विषय बनाना शुरू कर दिया था और मोटा मुनाफा कमाया था।
ध्रुवीय परिवर्तन के कारण आता है हिमयुग
Posted on 11 Dec, 2012 10:17 AM ध्रुवीय परिवर्तन के कारण पृथ्वी के अपने धुरी पर घूमने के काल में अंतर आ जाता है। साथ ही साथ सूर्य की परिक्रमा में लगने वाले समय में अंतर के कारण वर्ष के दिनों की गणना भी बदल जाती है। इस काल में ऋतु चक्र में भी व्यापक परिवर्तन देखा गया है। वर्तमान युग में देखा जा रहा है ऋतुएं अपनी स्थिति का अनुगमन नहीं कर रही हैं जो खतरनाक भविष्य का संकेत है।
स्वास्थ्य पर भी दिखने लगा है असर
Posted on 11 Dec, 2012 09:42 AM मौसम में जिस तरह उथल-पुथल मची हुई है उसका असर मानवीय स्तर पर भी भीषण रूप से पड़ रहा है। हाल ही में देखा गया है कि डेंगू जैसी बीमारी जो आमतौर पर बरसात में होती है अब सर्दियों में भी होने लगी है।
हिम युग की वापसी
Posted on 10 Dec, 2012 11:15 AM विश्वप्रसिद्ध वैज्ञानिक और लेखक जयंत विष्णु नार्लीकर की हिमयुग को लेकर अपनी अलग संकल्पना है जिसे उन्होंने यहां एक विज्ञान-कथा के जरिये सहजता से समझाया है। आइए उनकी नजर से देखें कि अगर हिमयुग आएगा तो क्यों और कैसे?
हिंदी सिनेमा में पानी
Posted on 08 Dec, 2012 12:26 PM पानी अलग-अलग रूपों में हिंदी फिल्मों का हिस्सा अपने शुरुआती दौर से ही बना रहा, कभी बरसात के रूप में, कभी नदियों के रूप में, कभी आंसुओं के रूप में तो कभी बाढ़ और सूखे की तबाही के रूप में।
बाजार में पानी
Posted on 08 Dec, 2012 11:52 AM ऐसे देश में जहां प्यासे को पानी देना पुण्य का काम समझा जाता है, पानी का बाज़ारीकरण, निजीकरण, कंपनीकरण और स्थानांतरण वास्तव में हमारी सभ्यता को चुनौती है। आज हाल यह है कि कंपनियों की दखल के चलते बोतलबंद पानी गांव-गांव तक पहुंच गया है।
तालाबों को तार न सके अफ़सर
Posted on 08 Dec, 2012 11:05 AM सरकार की महत्वाकांक्षी योजना मनरेगा में तालाबों की मरम्मत को जोड़ा गया तो उम्मीद यह लगाई गई कि इस महत्वाकांक्षी परियोजना से तालाबों का जीर्णोंद्धार हो जाएगा। कयास यह लगाया जा रहा था कि परंपरागत तालाब भले ही आधुनिक विकास के कारण उपेक्षित हो गए हों लेकिन कम से कम रोजगार की चाहत में तालाबों की मिट्टी निकलेगी और धरती की सबसे मूल्यवान तत्व में पानी सहेजने के प्रति लोग जागरूक होंगे। इन योजनाओं को लाग
बड़े बांधों से न बुझेगी प्यास
Posted on 07 Dec, 2012 04:20 PM पानी की समस्या का हल बड़े बांध नहीं हैं। आंकड़े देखें तो पिछले दस सालों में तालाब और छोटे जलाशयों से ही सबसे ज्यादा सिंचाई हुई है। बड़े बांधों से पिछले बीस सालों में एक हेक्टेयर सिंचाई भी नहीं बढ़ी है। इसलिए बड़े बांध समस्या का हल नहीं है।
बड़े बांध और छोटे तालाब
Posted on 07 Dec, 2012 02:21 PM हमारे पूर्वज जानते थे कि तालाबों से जंगल और जमीन का पोषण होता है। भूमि के कटाव एवं नदियों के तल में मिट्टी के जमाव को रोकने में भी तालाब मददगार हैं, लेकिन बड़े बांधों के निर्माण की होड़ ने हमारी उस महान परंपरा को नष्ट कर दिया।
1950 में भारत के कुल सिंचित क्षेत्र की 17 प्रतिशत सिंचाई तालाबों से की जाती थी। ये तालाब सिंचाई के साथ-साथ भू-गर्भ के जलस्तर को भी बनाए रखते थे, इस बात के ठोस प्रमाण उपलब्ध हैं। सूदूर भूतकाल में तो 8 प्रतिशत से अधिक सिंचाई तालाबों से ही होती थी। तालाबों में पाए गए शिलालेख इसके जीते-जागते प्रमाण हैं। इस स्वावलम्बी सिंचाई योजना का अंग्रेजों ने जानबूझकर खत्म करने का जो षड़यंत्र रचा था, उसे स्वतंत्र भारत के योजनाकारों ने बरकरार रखा है और वर्तमान, जनविरोधी,ग्राम-गुलामी की सिंचाई योजना को तेजी से लागू किया है। किसी भी देश की प्रगति या अवनति में वहां की जल संपदा का काफी महत्व होता है। जल की उपलब्धि या प्रभाव के कारण ही बहुत सी सभ्यताएं एवं संस्कृतियां बनती और बिगड़ी हैं। इसलिए हमारे देश की सांस्कृतिक चेतना में जल का काफी ऊंचा स्थान रहा है। हमारे पूर्वज जानते थे कि तालाबों से जंगल व जमीन का पोषण होता है। भूमि के कटाव एवं नदियों के तल में मिट्टी के जमाव को रोकने में भी तालाब मददगार होते हैं। जल के प्रति एक विशेष प्रकार की चेतना और उपयोग करने की समझ उनकी थी। इस चेतना के कारण ही गांव के संगठन की सूझ-बूझ से गांव के सारे पानी को विधिवत उपयोग में लेने के लिए तालाब बनाए जाते थे। इन तालाबों से अकाल के समय भी पानी मिल जाता था। जैसा कि गांवों की व्यवस्था से संबंधित अन्य बातों में होता था, उसी तरह तालाब के निर्माण व रख-रखाव के लिए भी गाँववासी अपनी ग्राम सभा में सर्वसम्मति से कुछ कानून बनाते थे।
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