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प्रकृति में जल-चक्र और जल-संतुलन
Posted on 14 Mar, 2014 01:26 PM प्रकृति में जल-चक्र और जल-संतुलन विनोद बिहारी लाल पानी आज विश्व की विकरालतम समस्याओं में से है। हर वर्ष बाढ़ और सूखे से हजारों जान
पानी पियो मोरे राम
Posted on 14 Mar, 2014 12:27 PM मई की तपती दोपहरी में पाँच कोस पैदल यात्रा के बाद मुझे एक दुर्लभ प्याऊ का दर्शन हुआ जहाँ के निर्मल जल
धरती : पहले शोषण फिर संरक्षण
Posted on 14 Mar, 2014 09:46 AM वैदिक काल के मनुष्य में जितनी आस्था सूर्य के प्रति थी, उससे कम धरती
धरती
प्रकृति-संरक्षण की संस्कृति
Posted on 14 Mar, 2014 09:38 AM भारतीय संस्कृति में निहित इन बिंदुओं को यदि नैतिकता-अनैतिकता की सी
साइंस और ज्योग्राफी की पढ़ाई मेडिकल ज्योग्राफी
Posted on 11 Mar, 2014 04:22 PM

साइंस और आर्ट्स की पढ़ाई एक साथ करवाने वाली मेडिकल ज्योग्राफी कुछ नया पढ़ने के लिए एक बेहतर विक

जल-स्तुति
Posted on 11 Mar, 2014 09:57 AM जल हमारी जिंदगी है,
जल हमारी बंदगी है।
हम बचाएं जल, मत बहाएं जल,
हर समस्या का यही है हल।।

पांच तत्वों में वही जल
अपनी आंखों में वही जल।
राष्ट्र की धारा है गंगा,
जिसकी बूंदों में वही जल।।

जल की महिमा जिसने जानी,
वो चतुर है वो ही ज्ञानी,
हमने इतनी बात जानी,
जल ही है सम्बल!
हर समस्या का यही है हल!!
धरती जानती है
Posted on 11 Mar, 2014 09:51 AM धरती जानती है
धरती वह सब भी जानती है
जो हम नहीं जानते।
युगों-युगों से तपी है यह धरती
लगातार तपस्यारत है, तप रही है।
किसी भी संत, महात्मा, ऋषि, ब्रह्मर्षि, फकीर, तीर्थकर, बोधिसत्व
अवतार, पैगम्बर या मसीहा से अधिक तपी है धरती
और अभी तक अंतर्धान नहीं हुई है
शायद असली अवतार, पैगम्बर या मसीहा धरती ही है।
नदी
Posted on 11 Mar, 2014 09:50 AM मैं नदी हूं, मेरी लंबी कहानी है
कभी मेरी तो कभी तेरी जुबानी है।
खेतों खलिहानों रही बहती-घूमती
किसी को प्यासा देख होती परेशानी है।
पहाड़ों से उतर आयीं तुम्हारी पुकार पर
लेकिन जो हो रहा, देख कर हैरानी है
बस्तियां, सभ्यताएं मेरे गोद में बसीं
ये देखो ये गांव, ये राजधानी है।
मेरे अंदर जो बह रहा है जीवन द्रव
वह मेरा रक्त है, तुम कहते हो पानी है।
सहजन के पेड़ कटे
Posted on 11 Mar, 2014 09:47 AM सहजनसहजन के पेड़ कटे
सहजन के पेड़।
जीवन की गठरी में, थे जो अरमान
ले उड़े अचानक ही आंधी-तूफान
पेड़ जो कि रहबर थे, गिरे कटे रोज
अब नदी नहीं बहती….
Posted on 09 Mar, 2014 03:36 PM कभी इस
घर के पीछे
एक नदी बहती थी, आज सूख गई है
वह धारा
जो प्रलयंकर वेग से बहकर एक नया प्रकम्पन
उत्पन्न करती थी।
दूर-दूर तक बहा ले जाती थी
करीबी झोपड़ियां
मवेशी और दरवाजे
सोये नन्हें-नन्हें बच्चों
को रात में।
बहा ले जाती थी बड़े-बड़े पेड़
दूर-दूर मीलों तक।
बदल देती थी आसपास
के खेतों की मिट्टी।
शरण लेते थे लोग
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