सुरेश भाई

सुरेश भाई
हिमालय बचाने की मुहिम
Posted on 03 May, 2015 03:10 PM
हिमालयी क्षेत्र के लिये अलग मन्त्रालय अवश्य होना चाहिये, लेकिन हिमालयी क्षेत्र में किस प्रकार का विकास मॉडल लागू हो, इसके उपाय हिमालय लोकनीति के माध्यम से सुझाए जा रहे हैं।

सभी कहते हैं कि हिमालय नहीं रहेगा तो, देश नहीं रहेगा, इस प्रकार हिमालय बचाओ! देश बचाओ! केवल नारा नहीं है, यह भावी विकास नीतियों को दिशाहीन होने से बचाने का भी एक रास्ता है। इसी तरह चिपको आन्दोलन में पहाड़ की महिलाओं ने कहा कि ‘मिट्टी, पानी और बयार! जिन्दा रहने के आधार!’ और आगे चलकर रक्षासूत्र आन्दोलन का नारा है कि ‘ऊँचाई पर पेड़ रहेंगे! नदी ग्लेशियर टिके रहेंगे!’, ये तमाम निर्देशन पहाड़ के लोगों ने देशवासियों को दिये हैं।

‘‘धार ऐंचपाणी, ढाल पर डाला, बिजली बणावा खाला-खाला!’’ इसका अर्थ यह है कि चोटी पर पानी पहुँचना चाहिए, ढालदार पहाड़ियों पर चौड़ी पत्ती के वृक्ष लगे और इन पहाड़ियों के बीच से आ रहे नदी, नालों के पानी से घराट और नहरें बनाकर बिजली एवं सिंचाई की व्यवस्था की जाए। इसको ध्यान में रखते हुए हिमालयी क्षेत्रों में रह रहे लोगों, सामाजिक अभियानों तथा आक्रामक विकास नीति को चुनौती देने वाले कार्यकर्ताओं, पर्यावरणविदों ने कई बार हिमालय नीति के लिये केन्द्र सरकार पर दबाव बनाया है।
हिमालयी क्षेत्र के लिये अलग मन्त्रालय अवश्य होना चाहिये, लेकिन हिमालयी क्षेत्र में किस प्रकार का विकास मॉडल लागू हो, इसके उपाय हिमालय लोकनीति के माध्यम से सुझाए जा रहे हैं।
नेपाल आपदा : हिमालय विकास के मॉडल पर पुनर्विचार का समय (Time to rethink the development model of the Himalayas)
Posted on 30 Apr, 2015 01:51 PM
25 अप्रैल को 7.9 तीव्रता के महाविनाशकारी भूकम्प ने नेपाल को बुरी तरह प्रभावित तो किया ही है, लेकिन भारत के उत्त रप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, सिक्किम, उत्तराखण्ड तथा साथ में लगे पड़ोसी देश चीन आदि को भी जान माल की हानि हुई है। पूरे दक्षिण एशियाई हिमालय क्षेत्र में बाढ़, भूकम्प की घटनाएँ पिछले 30 वर्षों में कुछ ज्यादा ही बढ़ गई हैं।

इससे सचेत रहने के लिये भूगर्भविदों ने प्राकृतिक आपदाओं के लिहाज से भी अलग-अलग जोन बनाकर दुनिया की सरकारों को बता रखा है कि कहाँ-कहाँ पर खतरे अधिक होने की सम्भावना है। हिमालय क्षेत्र मे अन्धाधुन्ध पर्यटन के नाम पर बहुमंजिले इमारतों का निर्माण, सड़कों का चौड़ीकरण, वनों का कटान, विकास के नाम पर बड़े-बड़े बाँधों, जलाशयों और सुरंगों के निर्माण में प्रयोग हो रहे विस्फोटों से हिमालय की रीढ़ काँपती रहती है।
हिमालय के लिये अलग नीति चाहिए
Posted on 03 Feb, 2015 03:10 PM

जलवायु परिवर्तन के दौर में मानव जनित विकास की छेड़छाड़ का परिणाम माना जा रहा है। सन् 2013 में उत्

समाज व सरकार मिलकर करेंगे प्राकृतिक संसाधनों का विकास
Posted on 05 Jan, 2015 01:03 PM

गंगोत्री पारिस्थितिकीय संवेदनशील क्षेत्र


केदारनाथ आपदा के बाद गठित विशेषज्ञ समिति की सिफारिशों पर केन्द्र की नजर
Posted on 05 Jan, 2015 12:39 PM
उत्तराखण्ड, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम, मणिपुर, नागालैण्ड, त्र
हिमालय के माथे की लकीर बनेगा-प्रस्तावित पंचेश्वर बांध
Posted on 07 Aug, 2014 10:58 AM
पिछले तीन दशकों में बड़े बांधों को लेकर दुनिया में जो बहस हुई उसने छोटे-छोटे बांधों की दिशा में सरकारों को सोचने के लिए बाध्य कर दिया है और कई देशों ने अपने बड़े बांधों को तोड़ा है। अब पंचेश्वर जैसा दुनिया का बड़ा बांध एक बार फिर विश्व के पटल पर वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, आमजन और सरकार के बीच निश्चित ही चर्चा का विषय बनेगा।

अब केवल यही अध्ययन होगा कि किन बांधों को पहले बनाया जाए और प्रतियोगिता होगी कि उस सरकार ने तो टिहरी बांध और हम इससे भी बड़ा बनाएंगे। यह कठिन दौर हिमालय के निवासियों को आने वाले दिनों में देखना पड़ेगा। जबकि सुझाव है कि यहां पर छोटी-छोटी परियोजनाएं बने। एक आंकलन के आधार पर मौेजूदा सिंचाई नहरों से 30 हजार मेगावाट बिजली बन सकती है, इससे स्थानीय युवकों को रोजगार मिल सकता है। आगे पानी और पलायन की समस्या का समाधान भी हो सकता है लेकिन इसका काम कौन भगीरथ करेगा?

नर्मदा और टिहरी में बड़े बांधों के निर्माण के बाद अब फिर से हिमालय में पंचेश्वर जैसा दुनिया का सबसे बड़ा बांध भारत-नेपाल की सीमा पर बहने वाली महाकाली नदी पर बनाने की पुनः तैयारी चल रही है। अभी हाल ही में नेपाल की यात्रा पर भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने नेपाल के प्रधानमंत्री सुशील कुमार कोइराला के साथ मिलकर इस बांध निर्माण के लिए एक समझौता पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए हैं।

इसके आधार पर पंचेश्वर विकास प्राधिकरण को महत्व देकर समझौता हुआ है कि इसका कार्यालय नेेेपाल के कंचनपुर में होगा, जिसमें भारत औेर नेपाल से 6-6 अधिकारी होंगे। बिजली उत्पादन पर दोनों देशों का बराबर हक होगा, लेकिन इस परियोजना पर होने वाले कुल खर्च में से भारत 62.5 प्रतिशत और नेपाल शेेष 37.5 प्रतिशत राशि खर्च करेगा।
आपदा की सच्चाइयों से मुंह न मोड़ें
Posted on 05 Aug, 2014 10:16 AM
आपदाएं केवल जलवायु परिवर्तन ही नहीं बल्कि मानवकृत विकास से उत्पन्न त्रासदी के रूप में भी सामने आ रही है यह पुणे के मलिण गांव और उत्तराखंड के जखन्याली नौताड़ की घटना से सीखना चाहिए-
हिमालय बचेगा तो गंगा बचेगी
Posted on 20 Jul, 2014 04:27 PM
भारत सरकार को पांचवी पंचवर्षीय योजना में हिमालयी क्षेत्रों के विका
नदियों को बचाने का सफल इतिहास
Posted on 06 Jun, 2014 04:57 PM

उत्तराखंड में नदी बचाओ अभियान ने सतत संघर्ष कर अनेक बांधों का निर्माण रद्द करवाया है। इसके फलस्वरूप कई नदियों का प्रवाह पुनः निर्बाध हुआ है। इस पूरे आंदोलन में महिलाओं की अत्यंत सक्रिय भूमिका रही है। उत्तराखंड के नदी बचाओ अभियान की सफल यात्रा को हमारे सामने लाता महत्वपूर्ण आलेख।

उत्तराखंड के सामाजिक कार्यकर्ताओं ने जनता के साथ मिलकर सन् 2008 को नदी बचाओ वर्ष घोषित करके पदयात्राएं की थी। उत्तराखंड के गठन से लोगों को आश थी कि यह नया ऊर्जा प्रदेश नौजवानों का पलायन रोकेगा और उन्हें रोजगार मिलेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यहां कई निजी कम्पनियों ने बिजली बनाने के नाम पर नदियों के उद्गमों को संकट में खड़ा करने हेतु पूरी ताकत झोंक रखी थी और निवेश का लालच देकर समझौता कराने पर आमादा थीं। इसके विरोध में लोग 2003 से जून 2007 तक विभिन्न स्थानों पर जल, जंगल, जमीन बचाने के मुद्दों पर संघर्ष करते रहे। अंततः सन् 2007 में उत्तराखंड के सामाजिक संगठनों को एक साथ इकट्ठा होने का एक ऐतिहासिक मौका भी मिला। इसकी पूर्व तैयारी के लिए उत्तरकाशी में भागीरथी एवं जलकुर घाटी में दो स्थानों पर बैठकें की गई। इसमें सुझाव आया कि नदियों के संकट पर अब राज्य स्तर पर एक व्यापक नदी बचाओ अभियान की आवश्यकता है। दूसरी बैठक 8 जुलाई, 07 को स्व. सरला बहन की पुण्य तिथि पर लक्ष्मी आश्रम कौसानी में हुई। यहां पर नदी बचाओ अभियान की रूप-रेखा बनाई गई। प्रत्येक नदी-घाटी में संयोजक चुने गए।

वन एवं पानी को बचाने में उत्तराखंड की अहम भूमिका
Posted on 13 Feb, 2014 12:15 PM
रक्षासूत्र आन्दोलन के कारण भागीरथी, भिलंगना, यमुना, टौंस, धर्मगंगा, बालगंगा आदि कई नदी जलग्रहण क्षेत्रों में वन निगम द्वारा किए जाने वाले लाखों हरे पेड़ों की कटाई को सफलतापूर्वक रोक दिया गया है। यहां तक कि टिहरी और उत्तरकाशी में सन् 1997 में लगभग 121 वन कर्मियों को वन मंत्रालय की एक जाँच कमेटी के द्वारा निलंबित भी किया गया था। रक्षासूत्र आन्दोलन ने ‘‘ग्राम वन’’ के विकास-प्रसार पर भी ध्यान दिया। इसके अंतर्गत जहां-जहां पर लोग परंपरागत तरीके से वन बचाते आ रहे हैं और इसका दोहन भी अपनी आवश्यकतानुसार करते हैं। वनों के विनाश को रोकने में भारत सरकार के सन् 1983 के चिपको के साथ उस समझौते का खुला उल्लंघन माना गया है, जिसमें 1000 मीटर की ऊँचाई से वनों के कटान पर लगे प्रतिबंध को 10 वर्ष बाद यानि सन् 1994 में यह कहकर हटा दिया गया कि हरे पेड़ों के कटान से जनता के हक-हकूकों की आपूर्ति की जाएगी। जबकि सन् 1983 में चिपको आंदोलन के साथ हुए इस समझौते के बाद सरकारी तंत्र ने वनों के संरक्षण का दायित्व स्वयं उठाया था।
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