सुनीता नारायण

सुनीता नारायण
मानसून का मतलब है जीवन
Posted on 09 Aug, 2012 10:44 AM

जब मानसून केरल से कश्मीर की ओर या फिर बंगाल से राजस्थान की ओर बढ़ता है तो लोगों की धड़कनें बढ़ने लगती हैं। इसलिए

सूखे के छह कारण
Posted on 23 Jul, 2012 10:54 AM

महाराष्ट्र अकेला ऐसा राज्य है जो कृषि के मुकाबले उद्योगों को पानी उपलब्ध कराने को ज्यादा प्राथमिकता देता है। इसलिए सिंचाई योजनाएं बनती हैं तो उनका पानी शहरों में उद्योगों की जरूरतों पर खर्च कर दिया जाता है। अमरावती जिले में ही, जो सबसे ज्यादा सूखाग्रस्त इलाका है, प्रधानमंत्री राहत योजना के तहत अपर वर्धा सिंचाई प्रोजेक्ट बनाया गया, लेकिन जब यह बनकर तैयार हुआ तो राज्य सरकार ने निर्णय लिया कि इसका पानी सोफिया थर्मल पावर प्रोजेक्ट को दे दिया जाए।

फिर से एक बार सूखे के दिन हैं। इसमें नया कुछ भी नहीं है। हर साल दिसंबर और जून के महीनों में हम सूखे से जूझते हैं फिर कुछ महीने बाढ़ से। यह हर साल का क्रमिक चक्र बन चुका है। लेकिन इसका कारण प्रकृति नहीं है जिसके लिए हम उसे दोष दें। ये सूखा और बाढ़ हम मनुष्यों के ही कर्मों का नतीजा है। हमारी लापरवाहियों का, जिनके कारण हम पानी और जमीन की सही देखभाल नहीं करते। हमारी लापरवाही के कारण ही ये प्राकृतिक आपदाएं पिछले कुछ सालों में विकराल रूप लेती रही हैं। इस सालों में महाराष्ट्र का एक बड़ा हिस्सा सूखे की चपेट में आया है जिसके कारण बड़े पैमाने पर किसानों की फसलें चौपट हुई हैं और वे आत्महत्या के लिए विवश हुए हैं। किसानों की मदद के नाम पर मुख्यमंत्री और पैसा चाहते हैं और विपक्ष इस पर अपनी सियासत करता है।
नदियों को मारकर,गंदे नालों के साथ जीने की लत
Posted on 02 Jul, 2012 12:52 PM
भारत नदियों का देश रहा है। इस देश में गंगा, यमुना, सरस्वती आदि प्रसिद्ध नदियां बहती हैं। इन नदियों को मां कहा जाता है। सुबह-शाम इनकी पूजा-अर्चना की जाती है। नदियों के किनारे ही हमारे संस्कृति का विकास हुआ है। लेकिन अब नदियां कचरा ढोने वाली मालगाड़ी बन गई हैं। अब नदियों में साफ पानी से ज्यादा सीवेज का कचरा मिलेगा। क्योंकि हम नदियों से पानी लेते तो हैं लेकिन उसके बदले नदियों को अपने शहर की गंदगी
पहले पृथ्वी सम्मेलन से दूसरे पृथ्वी सम्मेलन तक का सफर
Posted on 26 Jun, 2012 10:16 AM
पहला पृथ्वी सम्मेलन जून 1992 में हुआ था, और अब दुसरा पृथ्वी सम्मेलन जून 2012 में हुआ है। इन दोनों के बीच 20 साल का एक लंबा अंतराल रहा, पर जो मुद्दे पहले पृथ्वी सम्मेलन में उठाये गये थे वे बीस साल बाद और वयस्क होने के बजाय अभी शैश्वावस्था में ही हैं। 20 साल के सफर की व्याख्या कर रही हैं सुनीता नारायण।
नदी जोड़ योजना: बेजोड़ या अव्यावहारिक गठजोड़
Posted on 28 Mar, 2012 05:18 PM

सच्चाई यह है कि जब एक नदी में बाढ़ आई हुई होती है तो दूसरी नदी में भी पानी अधिक ही रहता है। इसी तरह नदियों के पा

शहर के पानी की बदबूदार कहानी
Posted on 20 Jan, 2012 05:45 PM

हम अपने शहरी घरों और शहरी उद्योगों के लिए इन्हीं नदियों से पानी लेते हैं और गंदा करके नदियों क

विकास विरुद्ध विकास
Posted on 06 Sep, 2011 01:12 PM

ओडिशा के समुद्र तट के नजदीक स्थित यह इस्पात संयंत्र और बंदरगाह परियोजना और ऐसे लोग जिनकी जमीन

जल बचाएं और मानसून से संबंध प्रगाढ़ बनाएं
Posted on 15 Jul, 2011 09:10 AM

हमारे शहरों और खेतों में होने वाली बारिश का उत्सव कैसे मनाया जाए?

जंगलों से लाभप्रद वानिकी की ओर
Posted on 06 Jun, 2011 11:44 AM

‘इकॉनामिक सर्वे’ देखने पर पता चलता है कि किस तरह भारत की राष्ट्रीय संपत्ति में वनों का महत्व क

ये भला कैसा वेदांत?
Posted on 08 Dec, 2010 09:52 AM
कच्चे माल की मांग का बढ़कर सिर चकरा देने वाले 1.6 करोड़ टन प्रति वर्ष पर पहुंच जाने को लेकर पड़ने वाले पर्यावरण के प्रभावों का अभी तक आकलन ही नहीं किया गया है। इतना सारा बाक्साइट कहां से आएगा? इसके लिए कितनी नई खदानों की जरूरत होगी? कितना अतिरिक्त जंगल काटा जाएगा? कितना पानी निगल लिया जाएगा, कितना साफ पानी भयानक गंदा हो जाएगा?पर्यावरण और वन मंत्रालय द्वारा उड़ीसा में वेदांत परियोजना पर रोक लगाने के फैसले को समझाना चाहिए। यह एक ताकतवर कंपनी द्वारा कानून तोड़े जाने की कहानी है। परंतु यह कहानी विकास की उस भूल भुलैया की भी है और यह देश की सबसे समृद्ध भूमि पर सबसे गरीब लोगों के रहने की कड़वी कहानी भी है।

एन.सी. सक्सेना समिति ने तीन आधारों पर खनन समूहों द्वारा पर्यावरण कानूनों को तोड़ने की ओर संकेत किया है। पहला कब्जा करके गांव के वनों को बिना किसी अनुमति के घेर लिया गया। दूसरा कंपनी अपने कच्चा माल अर्थात बाक्साइट की आपूर्ति अवैध खनन के माध्यम से कर रही थी।
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