Posted on 23 Apr, 2013 10:47 AMहमारे देश में पानी के उपयोग की प्राथमिकताएं तय की गई हैं। इसमें आमतौर पर पहले नंबर पर पेयजल, दूसरे नंबर पर सिंचाई और तीसरे नंबर पर उद्योगों को रखा जाता है। हर राज्य की अपनी जलनीति होती है, जिसमें यह वरीयता क्रम स्पष्ट किया जाता है। इसके बावजूद हर राज्य में बुनियादी ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ करके उद्योगों को और बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठानों को पानी दिया जाता है। लेकिन महाराष्ट्र में तो इसे नीति का ही हिस्सा बना दिया गया। राज्य की 2003 की जल नीति में पानी के उपयोग की प्राथमिकताओं में पेयजल के बाद उद्योगों को रखा गया और खेती का नंबर उसके बाद कर दिया गया। पिछले साल का उत्तरार्ध महाराष्ट्र की राजनीति में काफी गरम रहा। सिंचाई योजनाओं में घोटाले और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप जल संसाधन विभाग पर लगे। उपमुख्यमंत्री अजित पवार के इस्तीफ़े और वापसी का नाटक हुआ। जले पर नमक छिड़कने की भूमिका राज्य सरकार की ही सालाना आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट ने निभाई। इस रिपोर्ट से पता चला कि पिछले दस सालों में राज्य के सिंचित क्षेत्र में केवल 0.1 फीसदी बढ़ोतरी हुई। यह तब हुआ जब इसी अवधि में प्रधानमंत्री ने विदर्भ के किसानों के लिए विशेष पैकेज दिया, जिसमें सिंचाई योजनाओं का प्रमुख स्थान था। इस रिपोर्ट से इस सवाल को बल मिला कि इन दस सालों में महाराष्ट्र में सिंचाई की मद में जो करीब 70,000 करोड़ रुपये खर्च हुए थे, वो कहां गए। माहौल इतना गरम हुआ कि मुख्यमंत्री को सिंचाई हालत पर श्वेतपत्र निकालने की घोषणा करनी पड़ी। पंद्रह दिन में निकलने वाला श्वेतपत्र कई महीनों बाद नवंबर के अंत में निकला। इस श्वेतपत्र का विश्लेषण इस लेख का मकसद नहीं है। लेकिन इसमें सिंचाई में कमी के जो कारण बताए गए हैं, उनमें से एक महत्वपूर्ण कारण की चर्चा यहां की गई है।