प्रेमशंकर शुक्ल

प्रेमशंकर शुक्ल
सुन्दरता का आलाप
Posted on 20 Jul, 2011 09:44 AM
मुल्क हिन्दुस्तान में
शहर भोपाल
भोपाल में बड़ी झील:
जोड़ती शहर-गाँव

फिक्र हो बहुत-सिर भारी हो
मिलिए झील से-बात करिए जी खोल
फिर आपका रहे नहीं मन-मलीन
उदासी जाय झर
प्रवासी पाखियों की निहार-निहार
क्रीड़ा-काकलि
(गूलर-मछरी भी कम खिलण्दड़े नहीं)

बड़ी झील कृतार्थ करती है
लम्बे आलाप की तरह वह
बड़ी झील तमाशा नहीं है
Posted on 18 Jul, 2011 09:49 AM
बड़ी झील तमाशा नहीं है
जिसे देखने हर रोज उमड़ते हैं लोग
झील बहुत अपनी है (अनन्य!)
जिस से लोग मिलने जाते हैं

झील से भेंट कर
लोगों को खुशी मिलती है
और बढ़ जाता है भीतर
आत्मीयता का जल

प्यास कहो
तो पानी से रिश्ता जुड़ जाता है
और दुनिया के हर कण्ठ की प्यास
अपनी हो जाती है

भोपाल कहो तो बड़ी झील से
सफेद फूल
Posted on 18 Jul, 2011 09:08 AM
महात्मा शीतलदास की बगिया का एक सफेद फूल
तुम्हारे पानी में निडर तैर रहा है बड़ी झील!
जैसे यह घाट उसका ननिहाल हो
उधर घाट पर केचुए मिट्टी को स्वच्छ कर रहे हैं
कछुए पानी को

फूल पानी की गोद में हँस रहा है
फूल-हँसी

फूल हँसी को
उतनी ही वत्सल कोमलता से
अपने सीने पर सजाए
पानी बह रहा है मंद-मंद

और सुन्दरता का जीवन
आत्मा की झील में
Posted on 16 Jul, 2011 09:21 AM
कितने दिनों से पीड़ा-पराजय
पश्चाताप की झड़ी लगी है
हृदय को धूप दिखाना है

होंठ ठस पड़ते जा रहे हैं
खुलकर मुस्कुराना है
हँसना-खिलखिलाना है

आँखों में बहुत धूल भर गयी है
आत्मा की झील में
तैर कर आना है

आकाश माथे पर दिन चढ़ आया है
पूजा का वह इंदीवर लाना है
इधर कण्ठ ने पिया नहीं कुछ मीठा-मधुर
झील के घाट पर बैठ
झील की माटी अब खुश है
Posted on 15 Jul, 2011 09:12 AM
झील से काढ़ी जा रही माटी का मन
पहले भारी था
लेकिन ट्राली में लदी हुई
झील की माटी अब खुश है
कि वह खेत में
हरियाली बन कर लहरायेगी
सुनेगी अंकुरित होते बीजों का संगीत
और अपने सम्पूर्ण वात्सल्य से उन्हें वह दुलराएगी

फसलों के फूल से
महकेगा अब उसका हिया
हवा में जब बालियों के दाने बजेंगे
मारे खुशी के वह झूम जायेगी
एक अनुभूति
Posted on 14 Jul, 2011 09:12 AM
हलक सूख रहा है
अकड़ रहा है शरीर
प्यास के मारे छटपटा रही है जान
सूखते-सूखते कुआँ को ऐसा ही लगा होगा
इसी तरह तड़पी होगी सूखते समय नदी

अपना पानी चुकते लख
मछलियों को देख मरते
आसमान की तरफ़ निहार-निहार
कितना छटपटायी होगी
अपनी बड़ी झील!!

कीचड़ निकालने के वास्ते
Posted on 13 Jul, 2011 09:11 AM
अपनी झील की पसलियों से
कीचड़ निकालने के वास्ते
उमड़ पड़ा है शहर

बड़ी झील को सहेजने-सँवारने में
लग गये हैं हाथ
तसलों-तगाडि़यों मंे भरी जा रही मिट्टी खुश है
कि पानी के लिए खाली कर रही है वह जगह

आसमान से अपना आफताब
हँस रहा है धूप-हँसी
और अब तगाड़ी-तसले उठाते लोगों के साथ
भिड़ गया है श्रमदान में खुद वह भी!

कोलांस
Posted on 12 Jul, 2011 09:27 AM
बड़ी झील को भरी-पूरी देख कर
लहक उठती है कोलांस नदी

सुनते हैं आजकल कोलांस भी
झेल रही है सूखे की मार

दूरदराज से पानी लाकर
कोलांस ही भरती रही है बड़ी झील का पेट
बारिश का अभाव कि कोलांस भी
मनमसोस कर रह जाती है

कोलांस सूखती है
तो बड़ी झील के मन में उदासी बैठ जाती है
और बड़ी झील मछरी की तरह
छटपटाती रहती है गाद में रात-दिन!
बड़ी झील सूख कर
Posted on 09 Jul, 2011 11:27 AM
यह आँखों को धोखा नहीं हुआ है
मैं वहाँ चल रहा हूँ जहाँ झील-तल में
लहराता था पोरसा भर पानी

कीचड़ भी अब सूख चुका
तल के चेहरे पर दरारों का जाला
फैला हुआ है

पपडि़यों में पानी का दरद है
टिटहरी की बोली और उदास करती है

बगुलों की बन आयी है
जीम रहे हैं मछरी
(बिना बकुल ध्यान के)

मरी मछरियों की गंध से
वहाँ आज कीचड़
Posted on 09 Jul, 2011 11:04 AM
जहाँ पानी का जलसा होता था
वहाँ आज कीचड़ हँसता है

इतना सूख गयी है
झील
कि झील का ‘झ’ झुलसा हुआ दिखता है!
‘ई’ पपडि़याई हुई!!
‘ल’ की लाज भर के लिए
केवल अब पानी है!!!

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