केदारनाथ अग्रवाल

केदारनाथ अग्रवाल
नदी ने बरसों
Posted on 16 Oct, 2014 04:07 PM
नदी ने बरसों
जिसे प्यार किया
मिलन के लिए
जिसका रोज
इंतजार किया
पाकर जिसे तृप्त काम किया
अब
आज
उसी की लाश लिए बहती है
विरह-विलाप का
शोक-संताप सहती है
किसी से कुछ नहीं कहती है
करुणाकुल छलछलाती रहती है

सुबह की नदी
Posted on 06 Sep, 2013 11:55 AM
जी, हाँ,
सुबह हुई है,
पानी की देह में सूरज उगा है,
नदी का जीवन
जानदार हुआ है,
पत्थर चाटना
अब उसे अपने लिए
स्वीकार हुआ है,
तट का तोड़ना
अब दूसरों के लिए
दरकार हुआ है।

दोपहरी में नौका विहार
Posted on 06 Sep, 2013 11:52 AM
कल जैसी दोपहरी बीती वैसी कभी न बीती!
यों तो जाने कैसी-कैसी दोपहरी हैं बीतीं,
कमरे में प्यारे मित्रों में हँसते-गाते बीतीं,
कल जैसी दोपहरी बीती वैसी कभी न बीती!
गंगा के मटमैले जल में छपछप डाँड़ चलाते,
सरसैया से परमठ होते, उलटी गति में जाते,
तन का सारा जोर जमाते-धारा को कतराते,
आसपास के जल-भ्रमरों से अपनी नाव बचाते,
गंगा महिमा
Posted on 06 Sep, 2013 11:50 AM
(1)
भसम रमी है अंग रंग, रंग्यो अंग ही के,
संग माँहि भूत-प्रेत राखिबै की मति है।।
जहर जम्यो कंठ कठि मैं कोपीन कसी,
घाली मुंड माल उर औघड़ की गति है।.
सेवत मसान नैन तीन कौ विकट्ट रूप,
बैल असवारी करै अजुंबी सुरति है।।
कहत ‘बालेन्द्र’ ऐसे अंग सती रमतीं न,
जो पै देखि लेतीं नाहिं गंग लहरति है।।

(2)
केन किनारे
Posted on 06 Sep, 2013 11:48 AM
केन किनारे
पल्थी मारे
पत्थर बैठा गुमसुम!
सूरज पत्थर
सेंक रहा है गुमसुम!
साँप हवा में
झूम रहा है गुमसुम!
पानी पत्थर
चाट रहा है गुमसुम!
सहमा राही
ताक रहा है गुमसुम!

‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ से संकलित

हे मेरी तुम सोई सरिता!
Posted on 06 Sep, 2013 11:47 AM
हे मेरी तुम सोई सरिता!
उठो,
और लहरों से नाचो
तब तक, जब तक
आलिंगन में नहीं बाँध लूँ
और चूम लूँ
तुमको!
मैं मिलने आया बादल हूँ!!

‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ से संकलित

न भूलेगी मुझे
Posted on 06 Sep, 2013 11:46 AM
न भूलेगी मुझे
नितंबिनी,
स्रोतस्विनी,
जलधार से भरी नदी-
जिसने मुझे भेंटा,
मैने जिसे भेंटा,
सूर्य ने घंटो हमें देखा।

‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ से संकलित

अरबी घोड़े पर सवार
Posted on 06 Sep, 2013 11:44 AM
अरबी घोड़े पर सवार
जैसे कोई राजकुमार
नदी में डाल गया हो अपना यौवन
और वह हो गई हो निहाल
ऐसा है उसका यौवन
जो नगर में आज नाची
और कुहकी-
हाथों में भरे मदिरा
और हाथ में लिए कटार!

‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ से संकलित

आज नदी बिल्कुल उदास थी
Posted on 06 Sep, 2013 11:43 AM
आज नदी बिलकुल उदास थी,
सोई थी अपने पानी में,
उसके दर्पण पर,
बादल का वस्त्र पड़ा था।
मैंने उसको नहीं जगाया,
दबे पाँव घर वापस आया।

मेरे मन की नदी
Posted on 06 Sep, 2013 11:39 AM
मेरे मन की नदी
सदी से वृहत् सूर्य से चमक रही है
मेरे पौरुष का यह पानी दृढ़ पहाड़ से टकराता है
टूट-टूट जाता है फिर भी बूँद-बूँद से घहराता है
नृत्य-नाद की नटी तरंगों के छंदों की
जय का ज्वार भरे गाती है कल हंसों से।

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