एस. एन. गुप्ता

एस. एन. गुप्ता
नमामि गंगे
Posted on 04 Sep, 2016 04:52 PM

शिव अलकों की पावन शोभा
अमृत धारा गंगे
मोक्षदायिनी पतितपाविनी
त्रिपथगामिनि गंगे

शैलसुता तुम त्रिविध ताप से
करती थीं उद्धार
सदा निर्मला बहती थी
अब हो विरल धार गंगे

जीवनदायिनी तुमसे बनता था
स्वर्णिम प्रभात
भारत भू की अटल आस्था
अब बदरंग हुई गंगे

मनुज की अमिट लालसा ने
लूटा गंगे तुमको
परेशान सी रहती है अब

गंगा जल
Posted on 17 Sep, 2015 08:36 AM
जिस तट मुकुलित हुई मनुजता
चलता है जिससे जीवन
विकसित हुई सभ्यता जिससे
आलोकित होता जन-मन

निर्मल शीतल धवल चाँदनी
में कल-कल लहराती है
स्वप्न सजाती है नयनों में
पल-पल जागी बहती रहती है

आँसू बहते रहते माँ के
सागर खारा हो जाता है
तट तट मेले-उत्सव सजते
तन मैला क्यों रह जाता है

सदियों से निर्मलता देता
गंग धार
Posted on 02 Jul, 2015 11:01 AM
लांघ वन उपत्यका
त्रिलोक ताप हरण हेतु
हिमाद्रि तुंग कन्दरा
त्याग कर निकल चली
स्वमार्ग को प्रशस्त कर
अतुल उमंग से भरी
विरक्त भाव धार कर
प्रवेग से उमड़ चली

कभी सौम्य पुण्यदा
रौद्र रूप धारती कभी
ब्रह्म के विधान का
दिव्य लेख लिख रही
विवेकहीन मनुज को
प्रचंड प्रदाहिनी बनी
अदम्य शक्ति से भरी
दम्भ भंग कर रही
गंग धार
Posted on 25 Jun, 2015 11:54 AM
लांघ वन उपत्यका
त्रिलोक ताप हरण हेतु
हिमाद्रि तुंग कन्दरा
त्याग कर निकल चली
स्वमार्ग को प्रशस्त कर
अतुल उमंग से भरी
विरक्त भाव धार कर
प्रवेग से उमड़ चली

कभी सौम्य पुण्यदा
रौद्र रूप धारती कभी
ब्रह्म के विधान का
दिव्य लेख लिख रही
विवेकहीन मनुज को
प्रचंड प्रदाहिनी बनी
अदम्य शक्ति से भरी
दम्भ भंग कर रही
माँ गंगे
Posted on 14 Jun, 2015 12:31 PM
अमृत घट प्रवहित शुचि धारा
हिमवान पिता का मधुर हास
लहरों में तेरी गूँजे था सतत
जीवन का मधुरिम उल्लास

शिव अलकों से निकलीं अविरल
कल-कल कलरव करतीं गंगे
अवनि पर स्वर्ग सोपान रहीं
सहमी सहमी बहती क्यों गंगे

कभी सूर्य रश्मियाँ भोर चढ़े
तुमसे मिलने को आती थीं
सुर सरि तुम्हरे पावन जल में
स्वर्णिम अठखेली करती थीं
मैं गंगा क्यों मैली हूँ
Posted on 20 Jan, 2015 10:03 AM
हूँ पतित पावनी,जीवन दायी
मैं गंगा क्यों मैली हूँ
तट मेरे सजते कालजयी पर्वोत्सव से
स्वयं क्यों क्षीणा हूँ
कल मैं अपनी लहरों के संग
खूब किल्लोलें करती थी
अमृत सा था ये जल
सबके परलोक सुधारा करती थी
जन गण की प्यास बुझाती
मैं फिर क्यों प्यासी रहती हूँ
महा गरल से त्रस्त हो रही
मरती जाती हूँ
साक्षी रही इतिहास बदलते
सृष्टि का दुःदोहन
Posted on 16 Nov, 2014 03:49 PM
ऊपर असीम नभ का वितान
नीचे अवनि का विकल वदन
वसन हीन तरु करते प्रलाप
गिरिवर का तप्त झुलसता मन

भोर लाज से हो रही लाल
दिवस व्यथित हो रहा उदास
सांध्य पटल पर गहन तिमिर
करने को आतुर प्रलय हास

उद्दाम तरंगें सागर की
सब कूल-किनारे तोड़ चलीं
उन्मुक्त लालसा मानव की
प्रकृति की छवि मानो लील चली
जल प्रलय
Posted on 16 Sep, 2014 11:28 AM
क्रोध में अम्बर तना था
अवनि पर भी बेबसी थी
जिंदगी की डोर मानो
बादलों ने थाम ली थी
पर्वतों से छूट आफत
घाटियों में बह रही थी
महल डूबे झोंपड़ी ने
सांस मानो रोक ली थी
बिछुड़े परिजन कोख उजड़ी
मनुजता असहाय थी

प्रकृति माँ ने धैर्य की
सीमाएं सारी लाँघ ली थीं
स्वर्ग जैसी वादियों में
रक हा हा कर रहा था
दिवस का होना मलिन था
कहर नदियों का
Posted on 22 Aug, 2014 04:01 PM
कहर नदियों का नहीं है
यह पसीना है
व्यथित हिमवान का
रो रहा है आज मानव
आसन्न संकट देख कर
क्यों नहीं थे अश्रु दृग में
जब धरा के प्राण
गिरी-वन कट रहे थे
विजयी होने की
असीमित लालसा से
तन नदी के सूखते थे

मनुज जाति ने ही तो
निज दुष्कर्म द्वारा
भाग्य आगत का गढ़ा है
अमर होने की
अदम्य लिप्सा संजो कर
मैं गंगा...
Posted on 01 Aug, 2014 01:53 PM
विष्णुपद से निकल चली
करती कलकल गान
एक अनूठे तप का फल हूँ
भू पर स्वर्ग सोपान
मेरी लहरों में बसते थे
शुचिता और उल्लास
काल पटल में सिमट रहा हैं
मेरा मधुमय हास
मैं सुर सरि युग युग से
मनुज का करती हूँ उद्धार
कलुष हरण कर होती जाती
मैं कलुषित लाचार
मैं माँ हूँ दुखियारी भी हूँ
किसको अपनी व्यथा सुनाऊँ
घुटती जाती मन ही मन
×