अमरनाथ
गंगा वाहिनी की पहली कम्पनी की तैनाती से गंगा ग्राम योजना की शुरुआत
Posted on 10 Jan, 2016 09:25 AM
नमामि गंगे कार्यक्रम को सफल बनाने के महत्त्वपूर्ण पहल के तहत थल सेना की मदद से बनाई गई गंगा वाहिनी बटालियन की पहली कम्पनी की कल 4 जनवरी को गढ़मुक्तेश्वर में तैनाती की गई।
भारत की जल प्रबन्धन आवश्यकताओं से निपटने के लिये भारत यूरोपीय जल मंच
Posted on 21 Dec, 2015 03:51 PMभारत में विभिन्न क्षेत्रों की बढ़ती हुई और प्रतिस्पर्धात्मक माँग के कारण दिन-प्रतिदिन जल प्रबन्धन कठिन होता जा रहा है। हालांकि आज़ादी के बाद से ही भारत ने जल संसाधनों के विकास की दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयास किये हैं, लेकिन- ‘हमारा प्रयास ज्यादातर परियोजनाओं पर केन्द्रित रहा है जिससे पारिस्थितिकीय और प्रदूषण सम्बन्धी पहलुओं पर ध्यान नहीं दिया जा सका।
इसके फलस्वरूप जल का अत्यधिक प्रयोग हुआ, जल प्रदूषण फैला और विभिन्न क्षेत्रों के बीच अमर्यादित प्रतिस्पर्धा बढ़ी। इसलिये जल के समुचित आवंटन, माँग के प्रबन्धन और उसके उपयोग के लिये प्रभावकारी उपाय किया जाना बहुत जरूरी है।’
केन्द्रीय जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण राज्य मंत्री प्रोफेसर सांवर लाल जाट ने नई दिल्ली में भारतीय यूरोपीय जल मंच की पहली बैठक का उद्घाटन करते हुए इसे स्वीकार किया।
बिहार में तालाबों और आहर-पइन प्रणाली अपनाने की जरूरत
Posted on 17 Dec, 2015 02:34 PMसूखे से निपटने की नायाब योजना लेकर आई है बिहार सरकार। वह ग्रामीण क्षेत्रों में जो तालाब सूख गए हैं, उनमें नलकूप से पानी भरने जा रही है। गर्मी के मौसम में सूखे तालाबों को नलकूपों के पानी से भरने की यह योजना मत्स्यपालन को बढ़ावा देने के लिहाज से तैयार की गई है। मंत्री अवधेश कुमार सिंह ने कहा कि तालाबों में नलकूप से पानी भरने के लिये 50 प्रतिशत अनुदान दिया जाएगा।मत्स्यपालन से जुड़ी सहकारी समितियों को प्राथमिकता दी जाएगी। सूखे की हालत को देखते हुए यह योजना आकर्षक लगती है। इससे मत्स्यपालन और पशुओं के पेयजल की समस्या का फौरी समाधान भी हो सकता है। परन्तु प्रश्न यह है कि सूखाड़ की वजह से उत्पन्न समस्याओं का वास्तविक समाधान ऐसी योजनाओं से हो सकता है?
फ्लश टॉयलेट की गन्दगी बनाम सूखे शौचालयों की पवित्रता
Posted on 25 Nov, 2015 04:34 PM ‘हर घर में शौचालय अपना, यही है हमारा सपना’ का सरकारी नारा अक्सर सुनाई पड़ता है। सपने को साकार करने में विभिन्न सरकारें अपनी ओर से तत्पर भी हैं। पर अगर हर घर में शौचालय बन गए तो स्वच्छता के लिहाज से बहुत बुरा होगा क्योंकि प्रचलित ढंग के शौचालयों से मानव-मल का निपटारा नहीं होता।महज खुले में मल त्याग करने से छुटकारा मिल जाती है और शौचालयों में एकत्र मानवमल आखिरकार जलस्रोतों को मैला करता है। तकनीकी विकास के आधुनिक दौर में भी मानव मल का निपटारा एक बड़ी समस्या बना हुआ है। ऐसे में बरबस गाँधीजी की सीख ‘मल पर मिटटी’ की याद आती है। उस तकनीक के आधार पर बिहार के बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में खास किस्म के शौचालयों का विकास हुआ जिसके परिष्कृत रूप को ‘इकोसेन’ कहा जा सकता है।
महापर्व में भी गंगा तट से वंचित हैं बिहार के गंगावासी
Posted on 17 Nov, 2015 09:21 AMबिहार का सबसे बड़ा पर्व छठ आरम्भ हो गया है। पटना के गंगाघाट जगमग कर रहे हैं। सफाई,रोशनी और सुरक्षा के इन्तजामों में नगर निगम, पुलिस और प्रशासन मुस्तैद है। परन्तु इन छठ घाटों पर गंगा का पानी नहीं, शहर की मोरियों का गन्दा पानी है। गंगा को शहर के पास लाने के लिये हाईकोर्ट के निर्देश पर नहर खोदी गई थी।करीब सौ फीट चौड़ी (30.48 मीटर) करीब सात किलोमीटर नहर का निर्माण नमामि गंगे कार्यक्रम में शामिल था। करीब तीन माह के अथक प्रयास के बाद 17 जुलाई को गंगा की धारा इस नहर से होकर प्रवाहित भी हुई थी। अगले दिन गंगा की अविरल धारा को देखने के लिये कई घाटों पर लोगों की भीड़ उमड़ी थी। पर बरसात के बाद नहर के मुहाने जाम हो गए और उसमें गंगा का पानी आना बन्द हो गया।
बाढ़ के नैहर में सूखे की मार
Posted on 10 Nov, 2015 03:29 PM उत्तर बिहार के बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में सूखा बड़ी मारक होती है। वहाँ की महीन बालूई मिट्टी को पानी की अधिक जरूरत होती है क्योंकि ऐसी मिट्टी में पानी को रोककर रखने की क्षमता कम होती है। इसलिये सिंचाई अधिक बार करनी होती है। बाढ़ के साथ आई मिट्टी से खेतों का भूगोल बदल जाये, तब कुछ अधिक इन्तजाम करना होता है।परन्तु जब वर्षा अधिक होती थी तो बाढ़ की चर्चा ही अधिक होती थी, तब उसके बाद के सूखा की चिन्ता नहीं होती थी। बाद में नलकूपों का समाधान उपलब्ध हो गया। लेकिन सिंचाई की आवश्यकता लगातार बढ़ती गई है। वर्षा कम होने लगी है। डीजल महंगा होते जाने से उत्तर बिहार में सूखा का संकट अधिक विकराल हो गया है।
जबकि बाढ़ में अधिक पानी को सम्भालने और उसके बाद पानी की बढ़ी हुई आवश्यकता को पूरा करने के लिये प्राचीन काल में पोखरों की बेहतरीन व्यवस्था विकसित हुई थी।
सूखे के मद्देनज़र सरकारी अनुदानों के बँटवारे की कवायद
Posted on 18 Sep, 2015 03:58 PMसूखा प्रभावित जिलों में बुआई में अतिरिक्त लागत और सूखा प्रतिरोधक उपसभ्यता की जननी हैं नदियाँ
Posted on 17 Sep, 2015 03:34 PMविश्व नदी दिवस, 27 सितम्बर 2015 पर विशेष
पानी का चंचल रूप है नदी। यह अपने कछार में बसे लोगों की जीवनरेखा है। नदी के कारण कृषि सम्भव हुआ। जो शिकारी था, वह किसान बन गया। उसे शिकार की भागदौड़ से मुक्ति मिली। वह एक जगह घर बसा कर कला, धर्म, आध्यात्म, विज्ञान और साहित्य की ओर अग्रसर हो सका। हजारों वर्षों से मनुष्य नदी की ओर खिंचता चला आया है।
संस्कृतियों का जन्म नदियों की कोख से हुआ है। नदी हमारी आत्मा को तृप्त करती है। नदी हमारी चेतना का प्रवाह भी है।
इन शास्त्रीय उल्लेखों के अलावा नदियों के बारे में अनेक साहित्यिक अभिव्यक्तियाँ भी मिलती हैं। जैसे नदियाँ राष्ट्रों की माताएँ हैं और पर्वत पिता। पिता निष्चेष्ट, निर्बन्ध और चिन्तामुक्त निर्द्वन्द्व पुरुष है तो नदियाँ सचेष्ट, गतिशील-मुक्तिदात्री एवं रसवती सरस्वती हैं। शून्य में स्वच्छन्द विचरण करने वाले मेघ जब क्षितिज की शय्या पर हलचल मचाकर रिक्त हो जाते हैं तब माता पृथ्वी उस तेजोदीप्त जीवन-पुष्प को अपनी सरितन्तुओं द्वारा धारण करती है।
ग्लोबल वार्मिंग के मुकाबले में सतही जल का समेकित प्रबन्धन
Posted on 13 Sep, 2015 11:30 AMजल सम्पदा का प्रचलित वर्गीकरण संक्षिप्तीकरण का शिकार है। इसके तीन वबाढ़ के इलाके में भूजल का अकाल
Posted on 12 Sep, 2015 01:20 PMपहले पानी 45 फीट पर आता था, आज 60 फीट पर मिलता है। उसमें गंध रहता है और थोड़ी देर रखने पर पानी के उपर एक परत नजर आती है। कुल्हड़िया में पहले पानी 20 फीट पर था, अब 60 फीट पर है। कपड़े धोने पर पीले पड़ जाते हैं, पानी को स्थिर रखने पर ऊपर एक परत जम जाती है। पेयजल के माध्यम से मानव शरीर में एकत्र लौहतत्वों की अधिकता से कई बीमारियाँ होती हैं। जिनमें बाल गिरने से लेकर किडनी-लीवर की बीमारी के अलावा चिड़चिड़ापन व मस्तिष्क की बीमारियाँ भी शामिल हैं। भूजल घटने से पूरा देश, बल्कि दुनिया के अधिकतर देश चिन्तित हैं। फिर भी बाढ़ग्रस्त कोसी क्षेत्र के भूगर्भीय जल भण्डार घटने और दूषित होने की खबरें चौंकाती हैं, सचेत करती हैं। 18 गाँवों के सर्वेक्षण में पता चला कि पहले जहाँ 10-15 फीट गहराई पर पानी था, अब 70-80-100 फीट नीचे चला गया है।लोग हर काम के लिये भूजल पर निर्भर हैं। पेयजल के लिये चापाकल और सिंचाई के लिये नलकूप का प्रयोग लगातार बढ़ता गया है। करीब 79 प्रतिशत सिंचाई नलकूपों से होती है। वर्षाजल की हिस्सेदारी महज 15 प्रतिशत है। नदी और तालाब की हिस्सेदारी महज 5-6 प्रतिशत है।
यह बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र हैं। बाढ़ में आई पतली मिट्टी (सिल्ट या विभिन्न जैविक उर्वरकों से युक्त गाद) -बालू के कारण क्षेत्र की मिट्टी बलुआही है। उसकी जलधारण क्षमता कम है। इसलिये बरसात में जलनिकासी की समस्या भी उत्पन्न होती है और जल-जमाव होता है। कोसी तटबन्ध बनने के बाद बाढ़ विकराल हुई। उसका रूप बदला, वह विध्वंसक हो गई।